नए साल की शुरुआत में ही भारत और स्विट्जरलैंड के रिश्तों में कुछ बड़ा हो रहा है. हुआ ये कि स्विस सरकार ने हमसे मोस्ट फेवर्ड नेशन (एमएफएन) का स्टेटस ले लिया. उसने यह फैसला साल 2023 में हुए सुप्रीम कोर्ट के एक निर्णय के बाद लिया. कई देश आपस में मोस्ट फेवर्ड नेशन का स्टेटस मेंटेन करते हैं लेकिन फिर इसे निरस्त भी कर देते हैं. जानें, क्या है इसका अर्थ, और क्यों हो सकता है नुकसान.
शुक्रवार को स्विस सरकार ने कहा कि भारत की कोर्ट के चलते उसे ऐसा करना पड़ा है. असल में पिछले साल स्विस कंपनी नेस्ले से जुड़े एक मामले पर बात करते हुए सर्वोच्च अदालत ने कहा था कि देश में डबल टैक्स अवॉइडेंस एग्रीमेंट (डीटीएए) तब तक लागू नहीं किया जा सकता, जब तक कि इसे इनकम टैक्स एक्ट के तहत नोटिफाई न किया जाए.
डीटीएए एक तरह का करार है, जिसका इस्तेमाल दो देश अपने लोगों और कंपनियों को दोगुने टैक्स से बचाने के लिए करते हैं. इसके तहत कंपनियों या व्यक्तियों को उनकी सेवाओं या प्रोडक्ट के लिए दो अलग देशों में अलग टैक्स नहीं देना पड़ता. इसे ऐसे भी समझ सकते हैं कि एक देश की कंपनी, दूसरे देश में निवेश और व्यापार कर रही हो तो उसे दोनों देशों में अपने फायदे पर टैक्स न देना पड़े.
अब केंद्र को पहले डीटीएए को आयकर के तहत नोटिफाई करना होगा. इसके बाद ही स्विस सरकार को टैक्स में छूट मिल सकेगी. तब तक नेस्ले समेत तमाम कंपनियां ज्यादा कर चुकाती रहेंगी. इससे पहले दिल्ली हाई कोर्ट ने आदेश दिया था कि विदेशी कंपनियों में काम करने वाले लोगों को दोगुना टैक्स न देना पड़े, लेकिन एससी ने इस फैसले को पलट दिया. इसके बाद ही स्विटजरलैंड ने भारत से मोस्ट फेवर्ड नेशन का दर्जा भी वापस ले लिया. अब वहां काम करने वाली भारतीय कंपनियों को 10 प्रतिशत ज्यादा टैक्स देना होगा. फिलहाल ये सीमा 5 प्रतिशत है.
क्यों पहुंचा था कोर्ट तक मामला
दरअसल स्विट्जरलैंड की कंपनी नेस्ले ने सुप्रीम कोर्ट में दलील दी थी कि भारत ने कई देशों को टैक्स में भारी छूट दी है, जो एफएसएन के तहत उसे भी मिलनी चाहिए. जिन देशों का कंपनी ने हवाला दिया, वे कोलंबिया और लिथुएनिया जैसे छोटे देश थे. ये भारत से करार के बाद ही ऑर्गेनाइजेशन फॉर इकनॉमिक कोऑपरेशन का हिस्सा बने, और मोस्ट फेवर्ड नेशन की लिस्ट में आ गए. इन्हें मिलती छूट को देखते हुए स्विस कंपनी ने अंदाजा लगाया कि उसे भी व्यापार में वे छूटें मिल सकेंगी, जो इन देशों को मिल रही हैं.
यही बात अदालत तक पहुंची और स्विस कंपनी की उम्मीदों से अलग फैसला आ गया. कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि नेस्ले को यह फायदा एमएफएन के तहत अपने-आप नहीं मिल सकता, बल्कि इसके लिए सरकार को अलग से अधिसूचना जारी करनी होगी.
स्विटजरलैंड ने सर्वोच्च अदालत के निर्णय पर स्ट्रॉन्ग प्रतिक्रिया देते हुए भारत से मोस्ट फेवर्ड नेशन का दर्जा ही वापस ले लिया. साथ ही उसने कोर्ट के फैसले को भी अपने निर्णय की वजह बता दिया.
क्यों मोस्ट फेवर्ड का स्टेटस छीन भी लेते हैं देश
वर्ल्ड ट्रेड ऑर्गेनाइजेशन का टैरिफ एंड ट्रेड एग्रीमेंट 1994 कहता है कि सारे सदस्य देश एक-दूसरे को मोस्ट फेवर्ड नेशन का दर्जा दें, खासकर पड़ोसी देश आपस में, ताकि फ्री ट्रेड आसान हो सके. हालांकि ये कोई पक्का नियम नहीं. यही वजह है कि रिश्ते खराब होने पर देश सबसे पहले आपस में यही स्टेटस खत्म करते हैं ताकि नाराजगी का आर्थिक असर भी जमकर दिखाई दे. जैसे पाकिस्तान और भारत ने आपस में मोस्ट फेवर्ड नेशन स्टेटस ले लिया. इसमें देश आपस में छूटें भी कम-ज्यादा कर सकते हैं. कुल मिलाकर, मोस्ट फेवर्ड नेशन होने पर कोई तयशुदा फॉर्मेट नहीं है, कि इतनी छूट मिलनी चाहिए. इसे लेकर भी तुलना और खींचतान होती रहती है.
कितना लंबा कारोबार फैला हुआ
फिलहाल देश में तीन सौ से ज्यादा स्विस कंपनियां काम कर रही हैं, जिसमें लगभग डेढ़ लाख लोगों को रोजगार मिला है. इनमें बैंकिंग, इंफ्रास्ट्रक्चर, आईटी के अलावा कई और भी सेक्टर शामिल हैं. वहीं इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के अनुसार, स्विटजरलैंड के अलग-अलग हिस्सों में लगभग 140 भारतीय कंपनियों ने इनवेस्ट किया है. अब मोस्ट फेवर्ड नेशन का स्टेटस हटने पर दोनों ही जगहों पर इसका असर हो सकता है. खासकर तब जबकि भारत और स्विटजरलैंड समेत कई देशों ने मिलकर व्यापार में एक और समझौता किया है.
आयरलैंड, नॉर्वे, स्विटजरलैंड और लिकटेंस्टीन के साथ भारत ने एक समूह जॉइन किया, जिसका नाम है, यूरोपियन फ्री ट्रेड एसोसिएशन. इसके तहत EFTA देश भारत में अगले 15 सालों में सौ बिलियन के आसपास इनवेस्टमेंट करने वाले हैं. स्विस एंबेसी ने वैसे कहा कि मोस्ट फेवर्ड हटने का कोई असर इसपर नहीं पड़ेगा.