चीन ने बीजिंग में तैनात तालिबानी अधिकारी को अफगान के राजदूत के तौर पर मान्यता दे दी है. ये बहुत बड़ी बात है. इसके बाद चीन की अफगानिस्तान एंबेसी में तालिबानी लोग ही देश के प्रतिनिधि के तौर पर जाने जाएंगे. यहां तक कि अफगानिस्तान के झंडे को तालिबानी झंडा रिप्लेस कर देगा. तालिबान के झंडे को इस्लामिक एमिरेट्स ऑफ अफगानिस्तान कहा जाता है, जबकि अफगानिस्तान सरकार इस्लामिक रिपब्लिक ऑफ अफगानिस्तान के नाम से काम करती थी.
चीनी मान्यता मिलने की घटना तब हुई है, जब कुछ ही दिनों पहले तालिबान ने भारत में अपना शटर गिरा दिया. उसने आरोप लगाया कि उसे पूरी मदद नहीं मिल पा रही, जिसके कारण वो यहां काम नहीं कर सकता. भारत ने इसपर कोई रिएक्शन नहीं दिया क्योंकि वो तालिबान को मान्यता ही नहीं देता है. यही हाल बाकी देशों का है. दुनिया का कोई भी मुल्क तालिबानी सरकार को अफगान का असल चेहरा नहीं मान पा रहा.
क्यों हो रहा है ऐसा?
तालिबान असल में इस्लामिक चरमपंथी गुट है. नब्बे के दशक में सुन्नी इस्लामिक शिक्षा के नाम पर ये आगे बढ़ा और जल्द ही अपना असली चेहरा दिखाने लगा. सत्ता में आने पर उसने इस्लामिक कानून शरिया लागू कर दिया.
महिलाओं और बच्चियों पर हिंसा
यहां तक तो फिर भी ठीक था, लेकिन दुनिया को असल एतराज महिलाओं को लेकर उसके रवैए से था. उसने महिलाओं के चलने-घूमने और कपड़े पहनने तक पर पाबंदी लगा दी. यहां तक कि उसने ज्यादातर इलाकों में टीन-एज लड़कियों के पढ़ने पर भी मनाही कर दी. ऐसा करने पर कड़ी सजा, यहां तक कि कोड़े या पत्थर मारकर जान लेने जैसी सजाएं तक हैं.
इन बातों को देखते हुए आनन-फानन सारे देशों ने अफगानिस्तान में अपनी एंबेसी बंद कर दी. साथ ही तालिबान को देश के नेचुरल रूलर के तौर पर मान्यता देने से भी मना कर दिया.
क्या नुकसान हैं इसके?
तालिबान को मान्यता न मिलने का खामियाजा उसे ही नहीं, बल्कि पूरे देश को भुगतना पड़ रहा है. उसे वर्ल्ड बैंक और इंटरनेशनल मॉनिटरी फंड (IMF) से तब तक कोई मदद नहीं मिलेगी, जब तक कि आधिकारिक दर्जा नहीं मिल जाए. IMF ने देश के लिए तय हुए सारे फंड निरस्त कर दिए. अमेरिका समेत कई पश्चिमी देश अफगानिस्तान को सबसे ज्यादा लोन दे रहे थे. उसपर भी रोक लगा दी गई.
तो अब कहां से आ रहे हैं पैसे?
इसका कोई पक्का स्त्रोत नहीं. अमेरिकी इंटेलिजेंस ने अक्टूबर में आरोप लगाया था कि तालिबान फेक एनजीओ बना रहा है और उनके जरिए उगाही कर रहा है. यूएस स्पेशल इंस्पेक्टर जनरल ऑफ अफगानिस्तान रीकंस्ट्रक्शन (SIGAR) ने आरोप लगाया कि तालिबान ने पढ़ाई और मेडिकल मदद के लिए कई एनजीओ खड़े कर रखे हैं. वे इंटरनेशनल मदद तो लेते हैं, लेकिन उसे जरूरतमंदों तक नहीं पहुंचाते.
निजी अमेरिकी कंपनियां दे रहीं दान
SIGAR के मुताबिक खुद अमेरिका ने तालिबान के आने के बाद से अब तक 185 मिलियन डॉलर केवल पढ़ाई के नाम पर उसे डोनेट किए. ये तब हो रहा है, जब कथित तौर पर अमेरिका समेत किसी भी देश ने तालिबान को मान्यता नहीं दी है. अब चीन ऐसा पहला देश बन गया, जो तालिबान को रिकॉग्नाइज करता है.
क्या होगा मान्यता मिलने पर?
मान्यता या आधिकारिक दर्जा देना वो कंडीशन है, जिसमें दो देश एक-दूसरे को स्वीकार करते हैं. इसके बाद वे आर्थिक और राजनैतिक रिश्ते रख सकते हैं. दोनों के दूतावास होते हैं और वहां तैनात लोगों को डिप्लोमेटिक इम्युनिटी भी मिलती है. इसके बाद ही इंटरनेशनल लोन मिल पाता है.
कौन देता है मान्यता?
आमतौर पर देश का सुप्रीम लीडर अपने साथियों के साथ ये तय करता है. लेकिन ये प्रोसेस आसान नहीं. इसमें ये भी देखना होता है कि क्या नई सत्ता हिंसक तो नहीं, या फिर कितने लीगल ढंग से आई है. साथ ही फॉरेन पॉलिसी भी देखनी होती है.
मसलन, अगर भारत, तालिबान को स्वीकार ले तो क्या पड़ोसी देश उससे नाराज हो जाएंगे, या फिर क्या उसके राजदूत देश में आकर जासूसी करने लगेंगे. सारे पहलू देखने के बाद ही ये तय होता है.
भारत में क्यों बंद करना पड़ा दूतावास?
कुछ ही दिनों पहले तालिबान ने नई दिल्ली में अपना दूतावास बंद कर दिया क्योंकि उसे मान्यता नहीं मिल पा रही थी. असल में भारतीय विदेश मंत्रालय यहां तैनात अफगान राजदूत को ही देश का असल प्रतिनिधि मानती रही. इस बीच तालिबान ने अपने आदमी को एंबेसी इंचार्ज बना दिया. अब भारत के सामने उलझन ये थी कि अगर वो पुराने राजदूत से संबंध रखे तो तालिबान नाराज हो जाएगा. वहीं मान्यता न देने की वजह से वो तालिबानी राजनयिक को भी नहीं मान सकता था. इसी वजह से तालिबानी स्टाफ के सामने कई मुश्किलें आने लगीं, और आखिरकार उसे अपने लोगों को हटाना पड़ा.