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रूस से खत्म हुआ कम्युनिज्म चीन में फलता-फूलता रहा, कैसे इस आइडियोलॉजी ने बनाए-बिगाड़े रिश्ते?

रूस के राष्ट्रपति पद की शपथ लेने के बाद व्लादिमीर पुतिन ने पहला विदेश दौरा चीन का किया. इस पर दुनियाभर की नजरें हैं कि दो कम्युनिस्ट देश मिलकर क्या करने जा रहे हैं. रूस और चीन दोनों ही दुनिया की सबसे बड़ी कम्युनिस्ट ताकतें रहीं. बीजिंग तो अब भी खुद को कम्युनिस्ट कहता है. लेकिन दोनों के तौर-तरीके काफी अलग हो चुके.

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रूस और चीन को कम्युनिज्म नाम की कड़ी जोड़ती रही. (Photo- Getty Images)
रूस और चीन को कम्युनिज्म नाम की कड़ी जोड़ती रही. (Photo- Getty Images)

रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने अपने पहले विदेश दौरे की शुरुआत चीन से की. ऐसा करना दुनिया के लिए संकेत है कि चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग से मॉस्को का रिश्ता काफी पुराना है. वैसे दोनों ही देश अपनी कम्युनिस्ट विचारधारा के लिए जाने जाते थे, लेकिन वक्त के साथ दोनों में काफी अंतर दिखने लगा. हां, ये बात अब भी है कि कम्युनिज्म नाम का तार दोनों को कई मौकों पर एक करता रहा. 

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जब चीनी नेता करते थे रूस से मिलने का इंतजार

शुरुआत करते हैं पुराने मामले से. पचास से दशक में चीनी लीडर माओत्से तुंग ने रूस (तब सोवियत संघ) का दौरा किया. युद्ध के बाद चीन को अपनी बदहाली से उबरने के लिए मदद की जरूरत थी. वहीं अमेरिका के खिलाफ खड़ा होने के लिए सोवियत संघ के लिए भी चीन बड़ी सहायता बन सकता था. रूस के लीडर तब जोसेफ स्टालिन थे.- तुंग के मॉस्को पहुंचने पर तब स्टालिन ने उनकी मेहमाननवाजी नहीं की, बल्कि एक दूर-दराज के गेस्ट हाउस में ठहरा दिया और लंबा इंतजार करवाया. हफ्तेभर से कुछ ज्यादा समय बाद दोनों नेताओं की मुलाकात हुई और ट्रीटी ऑफ फ्रेंडशिप पर साइन हुए. इससे दोनों देश एक-दूसरे के लिए मददगार बने, खासकर अमेरिका के खिलाफ. 

अब बात करते हैं शी जिनपिंग और व्लादिमीर पुतिन की. स्टालिन और तुंग की मुलाकात से 7 दशक से भी ज्यादा बाद दोनों नेता मिल रहे हैं और बार-बार मिल रहे हैं. पिछले साल भी जिनपिंग ने मॉस्को का दौरा किया था, अब रूस उनके यहां पहुंचा है. छोटी-मोटी तकरारों के बीच दोनों देशों को कम्युनिज्म नाम की कड़ी जोड़ती रही. 

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russian and chinese communism amid vladimir putin and xi jinping meeting in china photo Reuters

क्या है कम्युनिज्म का मतलब 

ये एक तरह की राजनैतिक और आर्थिक सोच है, जो खुद को पूंजीवाद का विरोधी मानती है. साम्यवाद की मानें तो साधनों का कोई अकेला मालिक नहीं होता, बल्कि वो लोगों के बीच बंट जाता है. जैसे हाल ही बात लें तो संपत्ति के समान बंटवारे का मुद्दा कांग्रेस और भाजपा के बीच उछला था. इस आइडियोलॉजी के मुताबिक, कोई एक आदमी बहुत अमीर और दूसरा बहुत गरीब नहीं होगा, बल्कि पैसों और साधनों को समान बांट दिया जाएगा. 

रूस से चीन तक पहुंची विचारधारा

कम्युनिज्म की बात लंबे समय से होती रही, लेकिन सोवियत संघ ने इसे अमल में लाने की शुरुआत की. ये फर्स्ट वर्ल्ड वॉर के बाद का समय था, जब व्लादिमीर लेनिन ने सत्ता संभाली थी. उनके बाद जोसेफ स्टालिन आए. इसी बीच रूसी विचारक ग्रिगोरी वोइटिंस्की चीन पहुंचे और वहां कम्युनिस्ट पार्टी की नींव डाली. यहां तक सब एक जैसा रहा, लेकिन वक्त के साथ दोनों के कम्युनिज्म में फर्क आता गया.

खराब होने लगे थे रिश्ते

पचास के दशक के आखिर में चीन ने रूस से लगभग सारे रिश्ते तोड़ लिए थे. यहां तक कि उसे अमेरिका जैसा खतरनाक कहने लगा. दोनों देशों के बीच मार्च 1969 में टकराव भी हुआ था. चीनी सैनिकों ने सोवियत संघ पर क्यों हमला किया, इसकी कोई सीधी वजह कभी पता नहीं लग सकी, लेकिन माना जा रहा था नेताओं की मंशा ही इसके पीछे रही होगी. बाद में सोवियत संघ के टूटने के साथ रूस की आइडियोलॉजी एकदम से बदली और वो पूंजीवादी हो गया. 

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अब ये पांच देश ही कम्युनिस्ट

फिलहाल कम्युनिस्ट देशों की बात करें तो चीन के अलावा, क्यूबा, नॉर्थ कोरिया, वियतनाम और लाओस में ये विचारधारा है. 

russian and chinese communism amid vladimir putin and xi jinping meeting in china photo Getty Image

क्या बदल चुका दोनों देशों में

रूस कम्युनिज्म का जनक होने के बाद भी उससे अलग हो गया तो इस सोच वाले देशों से भी उसके रिश्ते वैसे नहीं रहे. दूसरी तरफ चीन ने रूस की जगह ले ली. अब बचे हुए चारे कम्युनिस्ट देश उसकी तरफ देखते हैं. जैसे नॉर्थ कोरिया और चीन में डिफेंस समझौता है, लाओस से भी उसका सिक्योरिटी कोऑपरेशन एग्रीमेंट है. वहीं रूस के इन सारे देशों से रिश्ते तो हैं, लेकिन उतने गहरे नहीं. 

एंटी-अमेरिकी सेंटिमेंट रहा था बुनियाद

मॉस्को और क्रेमलिन दोनों ही जगहों पर एंटी-अमेरिकन सेंटिमेंट्स रहे. दोनों ही इसे कम्युनिज्म के खिलाफ खड़े देश की तरह देखते रहे. लेकिन अब रूस के आम लोगों में अमेरिका के लिए बैर या दूरी तेजी से कम हो रही है. वहां के समाजशास्त्रीय अनुसंधान संगठन लेवाडा सेंटर के पोल्स ये बात कहते हैं. अगर चीन की बात करें तो यहां एंटी-अमेरिकन सेंटिमेंट्स बढ़ रहे हैं. यहां तक कि आम अमेरिकी भी रूस की बजाए चीन को अपना कंपीटिटर मानने लगे. 

दोनों देशों में बड़ा फर्क कम्युनिज्म और कैपिटलिज्म का है. रूस अब पूंजीवादी मुल्क है, जहां ज्यादातर बड़े बिजनेस पूंजीपतियों के हाथों में हैं. कंपनियों के प्राइवेट ओनर हैं. दूसरी तरफ चीन में इंडस्ट्रीज पर स्टेट का दबदबा भी निजी मालिकों के साथ-साथ चलता है. 

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यूएसएसआर के टूटने के दौरान ही सोवियत लीडरों ने माना कि उन्हें आर्थिक और राजनैतिक स्ट्रक्चर बदलने की जरूरत है ताकि देश आगे निकल सके. इसके साथ ही रूलिंग कम्युनिस्ट पार्टी टूट गई. वहीं चीन में चाइनीज कम्युनिस्ट पार्टी न केवल आगे बढ़ती रही, बल्कि इसी सोच के साथ चीन इकनॉमी में काफी आगे निकल गया. 

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