श्रद्धा वॉकर मर्डर में आरोपी आफताब अमीन को लेकर पुलिस उलझी हुई है. वारदात को दरअसल इतने शातिर ढंग से अंजाम दिया गया कि वो सबूत ही जुटाए जा रही है. आरोपी हत्या की बात कुबूल चुका, लेकिन कोर्ट में अगर पलट जाए, तो केस डेड हो जाएगा. लिहाजा सच का पता लगाने के लिए नार्को टेस्ट हो सकता है. तो क्या नार्को टेस्ट से शातिर कातिल भी फटाफट सच उगल देता है? अगर हां, तो क्या वजह है जो सुप्रीम कोर्ट ने इसपर रोक लगा दी?
अर्धबेहोशी में झूठ न बोलने के चांस ज्यादा
अक्सर बेहद खौफनाक वारदात करने वालों का दिमाग भी उतना ही उलझा हुआ होता है. वे पुलिस की गिरफ्त में आ तो जाते हैं, लेकिन दोष साबित करना आसान नहीं होता. सबूतों की कमी के कारण कोर्ट के पास भी आरोपी को छोड़ने के सिवा कोई रास्ता नहीं बचता. ऐसे में मुश्किल मामलों को सुलझाने में नार्को टेस्ट की मदद ली जाती रही. इसमें आरोपी को नसों में एक इंजेक्शन देते हैं, जिसके असर में वो धड़ाधड़ सारे सच उगल देता है. ये सबकुछ आधी बेहोशी की हालत में होता है.
केमिकल का इस्तेमाल होता है
सुनने में ही डरावना लगते टेस्ट के तहत इंजेक्शन में एक तरह की साइकोएक्टिव दवा मिलाई जाती है, जिसे ट्रूथ ड्रग भी कहते हैं. इसमें सोडियम पेंटोथल नाम का केमिकल होता है, जो जैसे ही नसों में उतरता है, शख्स कुछ मिनट से लेकर लंबे समय के लिए बेहोशी में चला जाता है. ये डोज पर निर्भर करता है. इसके बाद जागने के दौरान अर्धबेहोशी की हालत में वो बिना किसी लागलपेट के सब सच बोलता चला जाता है.
वर्ल्ड वॉर में यंत्रणा झेल चुके सैनिकों ने खोला था सच
बता दें कि दूसरे विश्व युद्ध के बाद लंबे समय तक युद्ध बंदी रह चुके सैनिक जब वापस लौटे, तो काफी हिंसक हो चुके थे. कईयों ने आत्महत्या कर डाली. इसके बाद यही ड्रग देकर उनसे सच जाना गया कि कैद में रहते हुए उन्होंने किस तरह की यंत्रनाएं झेलीं. एक बार सच जानने के बाद ऐसे सैनिकों का इलाज ज्यादा आसान हो गया.
इस दवा के इस्तेमाल के लिए कोर्ट से इजाजत क्यों लेनी पड़ती है?
पढ़ने-सुनने में आसान लगने वाला ये ड्रग असल में बेहद खतरनाक है. जरा भी चूक हुई तो आदमी की जान जा सकती है, वो कोमा में जा सकता है, या जीवनभर के लिए अपाहिज हो सकता है. अमेरिकी जेलों में पूछताछ के दौरान ही कई कैदियों की मौत हो गई. इसके बाद से इस ड्रग पर सवाल होने लगे. आखिरकार लगभग हर देश में नार्को टेस्ट पर रोक लग गई. हां, किसी खास मामले में अदालत अगर मंजूरी दे, तभी ये किया जा सकता है.
क्या सीधे पुलिस ही नार्कोएनालिसिस कर सकती है?
नहीं. चूंकि ये ड्रग्स से जुड़ा हुआ है, और जानलेवा भी हो सकता है, लिहाजा इस टेस्ट के दौरान पूरी टीम होती है. इसमें एनेस्थीसिया देने वाले, डॉक्टर, मेडिसिन एक्सपर्ट और साइकोलॉजिस्ट के साथ-साथ पुलिस अधिकारी होते हैं. साथ ही नार्को के लिए इंजेक्शन देने से पहले आरोपी की मेडिकल जांच होती है ताकि पता रहे कि वो किसी बड़ी बीमारी का शिकार तो नहीं. अगर उसे ऑर्गन से जुड़ी, मनोवैज्ञानिक, या कैंसर जैसी कोई बीमारी है, तो ये टेस्ट नहीं किया जा सकता. नाबालिग का भी नार्को टेस्ट नहीं हो सकता.
हमारे यहां साल 2010 में सुप्रीम कोर्ट की तीन सदस्यीय बेंच, जिसमें चीफ जस्टिस केजी बालकृष्णन भी शामिल थे, ने नार्को समेत, ब्रेन मैपिंग और पॉलीग्राफ को गैरकानूनी करार दे दिया. बेंच का कहना था कि कोई भी ऐसी प्रोसेस, जो किसी शख्स की मानसिक स्थिति में किसी भी तरह की बाधा डालती हो, वो करना सही नहीं है.
आर्टिकल 20 (3) के हवाले से अपराधी को भी ये छूट दी जाती है, कि वो अपने ही खिलाफ गवाह न बन जाए.
ये तो हुआ नार्को टेस्ट, पॉलीग्राफ टेस्ट के बारे में भी जान लेते हैं.
पॉलीग्राफ भी लाई डिटेक्टर टेस्ट है, जिसमें कुछ उपकरणों की मदद से शख्स के दिल की धड़कन, ब्लड प्रेशर, पल्स, सांस की आवाज जैसी चीजों में बदलाव देखा जाता है. साथ ही ये भी देखा जाता है कि किसी खास सवाल के दौरान उसका शरीर सामान्य से ज्यादा ठंडा या गर्म तो नहीं हो गया, या पसीना तो नहीं आ रहा! इन बदलावों को देखते हुए तय होता है कि आरोपी कितना सच या झूठ बोल रहा है.
ब्रेन मैपिंग में बाहरी उपकरणों की मदद
ब्रेन मैपिंग भी ऐसी ही एक तकनीक है, जिसमें फॉरेंसिक एक्सपर्ट ब्रेन में बदलावों को देखते हैं. एक निर्दोष आदमी जो क्राइम सीन के बारे में कुछ भी नहीं जानता, के दिमाग से तुलना करते हुए वे अपराधी का दिमाग जांचते हैं, जो क्राइम सीन की बात करते ही ऊपरी तौर पर भले शांत दिखे, लेकिन जिसके ब्रेन में हलचल होने लगती है. इसमें भी शरीर के भीतर कोई केमिकल नहीं डाला जाता, बल्कि सेंसर कनेक्ट कर दिए जाते हैं, जो कंप्यूटर की स्क्रीन पर बदलाव दिखाते हैं.
इसके बाद भी मुश्किल खत्म नहीं होगी पुलिस की
वैसे आफताब अगर वाकई में हत्यारा है तो नार्को टेस्ट के बाद भी सच जान सकना पुलिस के लिए उतना आसान नहीं होगा. ड्रग्स के बाद भी कई शातिर अपराधी झूठ बोल पाते हैं. हमारे देश में कई मामलों में पुलिस सच-झूठ का फैसला नहीं कर पाई थी. जैसे निठारी कांड में, जब दो लोगों ने कई बच्चों और युवतियों को मारकर उनका मांस खा लिया, तब भी ये टेस्ट हुआ था, लेकिन कुछ साफ नहीं हो सका. साल 2007 में हैदराबाद ट्विन ब्लास्ट में भी अब्दुल करीम और इमरान खान पर यही जांच हुई, लेकिन इनवेस्टिगेशन में कुछ नया निकलकर नहीं आ सका.