जर्मनी ने अपने नाजी दौर में पोलैंड के साथ जो नाइंसाफी की, वो किसी न किसी तरह से अब भी चली आ रही है. हाल ही में वहां की पर्यावरण और जलवायु मंत्री ऐना मॉस्क्वा ने कहा जर्मनी ने उनके देश में 7 जगहों पर 35 टन के करीब कूड़ा जमा कर दिया है. वो अपने देश को साफ करने के लिए दूसरों के यहां जहरीला कूड़ा भेज रहे हैं.
क्यों गुस्से में है पोलैंड?
उसका आरोप है कि जर्मनी ने उसके यहां की नदी में भी जहरीले केमिकल छोड़ दिए. दोनों देशों के बीच बहने वाली ओडर नदी में उस सीमा पर पॉल्यूटेंट्स डाले गए, जहां से पोलैंड का बॉर्डर सटता है. इससे हजारों टन मछलियां मर गईं. भड़के हुए पोलैंड ने अब यूरोपियन कोर्ट ऑफ जस्टिस में इसकी शिकायत करने की बात की है. इस बारे में जर्मन सरकार की सफाई भी आ चुकी, लेकिन पोलिश सरकार का कहना है कि वो जल्द से जल्द अपना कूड़ा वापस ले जाए.
ये अकेला मामला नहीं. ज्यादातर देश अपने वेस्ट को अपने यहां खत्म करने की बजाए पड़ोसी के घर के सामने छोड़ रहे हैं. ये उसी तरह से है जैसे शहर की पॉश कॉलोनी को साफ रखने के लिए स्लम्स के आसपास कूड़ाघर बना दिया जाए. इससे शहर सुंदर भी दिखेगा, और गरीब तबके के लोग ज्यादा आवाज भी नहीं उठा सकेंगे..
इसमें सामान्य बायोडिग्रेडेबल कचरे से लेकर खतरनाक किस्म का कचरा भी शामिल है, जैसे सीरिंज, खराब इलेक्ट्रॉनिक सामान और खराब दवाएं. इनका सही निपटारा जरूरी है ताकि वे धरती या जीव-जंतुओं को नुकसान न पहुंचाएं. इसके लिए हर देश की बाकायदा गाइडलाइन तक है, लेकिन पैसे बचाने के लिए अपराधी संगठन इस कचरे को अवैध तरीके से दूसरे देशों में ले जाकर छोड़ आते हैं.
क्यों हो रहा है ऐसा?
वेस्ट मैनेजमेंट अपने-आप में काफी खर्चीली तकनीक है. खासकर ई-वेस्ट और केमिकल वेस्ट का निपटान मुश्किल भी होता है और डर भी रहता है कि कहीं उसका असर पर्यावरण पर न पड़े. तकनीक में आगे देश रोज नई-नई चीजें तो बना रहे हैं, लेकिन उस प्रोसेस में जमा हुए कूड़े के निपटारे पर पैसे खर्च नहीं कर रहे. ऐसे में सबसे आसान तरीका ये है कि उसे गैरकानूनी ढंग से दूसरे देश की सीमा पर पटक आओ. यही किया जा रहा है.
कैसे जाता है कचरा एक से दूसरे देश में?
- अक्सर कचरे को किसी प्रोडक्ट का नाम दे दिया जाता है ताकि शिपमेंट आसान हो जाए.
- आमतौर पर तस्कर इसके लिए अवैध रूट्स खोजते हैं जिससे माल आसानी से एक से दूसरी जगह पहुंच सके.
- बदले में उस देश की किसी करप्ट पार्टी या ग्रुप को पैसे दिए जाते हैं. ये पैसे उससे काफी कम होते हैं, जितने असल वेस्ट मैनेजमेंट में लगते.
- अगर कूड़े पर देश की सरकार की नजर पड़ भी जाए तो वो पता नहीं लगा पाती है कि वो आया कहां से. फिर उसे निपटाने की जिम्मेदारी भी उसकी होती है.
कई बार मामला फंस जाता है. जैसे, कुछ समय पहले नाइजीरिया में एक शिपमेंट पकड़ा गया, जिसमें हजारों टन जहरीला कचरा था. ये पता नहीं लग सका कि कचरा आया कहां से. उसे खत्म करने का सारा बोझ नाइजीरिया सरकार पर आया.
इन देशों में इकट्ठा हो रहा जहर
विकसित देशों से कचरा गरीब देशों के बॉर्डर पर ले जाकर डंप किया जा रहा है. फिलीपींस, घाना, नाइजीरिया, वियतनाम, पाकिस्तान और बांग्लादेश से इस तरह की बहुत शिकायतें आईं कि उनके यहां रातोंरात नॉन-डिग्रेडेबल कचरे का पहाड़ जमा हो रहा है. यूनाइटेड नेशन्स के पर्यावरण कार्यक्रम के मुताबिक अकेले अमेरिका से ही सालाना लगभग 12 अरब डॉलर कीमत का अवैध कचरा तस्करी के जरिए यहां-वहां पहुंचता है.
बेसल संधि इस तस्करी को रोकती है
इंटरनेशनल स्तर पर नियम भी बन चुका अमीर देश अपना कचरा गरीब देशों में न छोड़ने लगें, इसके लिए एक इंटरनेशनल ट्रीटी साइन की गई, जिसे बेसल कन्वेंशन नाम मिला. साल 1989 से लेकर अब तक इसपर 188 देशों ने हामी भरी. इसमें कचरे की तस्करी रोकने के अलावा, कचरे का निपटान और कंट्रोल भी शामिल है. हालांकि इस ट्रीटी से ज्यादा फर्क नहीं पड़ा.
इसे देखते हुए साल 2019 में इसमें कुछ और संशोधन भी किए गए. इसके बाद भी गरीब देश, अमीर देशों के लिए कूड़ेदान का काम करते रहे. सरकारें भी अक्सर इसमें आंखें बंद रखती हैं क्योंकि कचरे का सही निपटारा काफी खर्चीला होता है.