इंटरनेशनल स्पेस स्टेशन में रोज की जिंदगी बहुत तेज होती है, मुंबई या न्यूयॉर्क से बहुत तेज. एस्ट्रोनॉट्स हर घंटे 17 हजार मील की दूरी तय करते हैं और रोज 16 बार सूरज का उगना-डूबना देखते हैं. एक से दूसरे देश की लंबी यात्रा के बाद यात्री कई तरह की दिक्कतें झेलते हैं. ऐसे में इस लंबे सफर के दौरान अंतरिक्ष यात्रियों का शरीर क्या झेलता होगा, इस पर नासा ने लंबी स्टडी की.
जुड़वां भाइयों पर हुई स्टडी
साल 2015 में स्कॉट कैली को स्पेस मिशन पर भेजना इसी स्टडी का हिस्सा था. जबकि उनका आइडेंटिकल ट्विन यहीं धरती पर इंतजार कर रहा था. ट्विन स्टडी पर 12 यूनिवर्सिटीज के 84 रिसर्चर काम कर रहे थे. कैली के स्पेस जाने से कई महीने पहले ही दोनों भाइयों के ब्लड, यूरिन, स्टूल सैंपल लिए जाने लगे. हर तरह की जांच हुई, ताकि पता लगे कि दोनों की बायोलॉजिकल एज कितनी एक जैसी है. इसे ट्विन स्टडी नाम दिया गया, जो साइंस जर्नल में साल 2019 में छपी थी.
डीएनए में आने लगे बदलाव
जैसे ही स्कॉट अंतरिक्ष पहुंचे, उनके शरीर के 1 हजार जीन्स में बदलाव आया. मगर, सबसे बड़ा बदलाव टेलोमेयर में दिखा. ये क्रोमोजोम के सिरों में मौजूद एक प्रोटीन होता है, जो इसकी हर कॉपी बनने के साथ घटता जाता है. जैसे-जैसे डीएनए छोटा होता जाता है, कोशिकाओं में एजिंग दिखने लगती है. टेलोमेयर का यही डीजेनरेशन इंसान को बूढ़ा दिखाने लगता है. वहीं, स्पेस में पाया गया कि डीएनए का साइज लंबा हो रहा है.
टेलोमेयर के छोटा होने के साथ दिखने लगता है बुढ़ापा
सालभर लंबी स्पेस यात्रा के दूसरे चरण में ये प्रक्रिया और तेज हो गई. यानी सीधे-सीधे डीएनए के फिजिकल स्ट्रक्चर में वो बदलाव आया, जो धरती पर मुमकिन नहीं. ये उन्हें धरती पर मौजूद उन्हीं की उम्र से लोगों से कई गुना ज्यादा युवा दिखाने लगा. इससे पहले माना जा रहा था कि स्पेस का एक्सट्रीम वातावरण टेलोमेयर को छोटा करके उम्र घटा देगा.
ट्विन स्टडी के दौरान अंतरिक्ष में भेजे गए यात्री की उम्र धरती पर मौजूद भाई से कम लगने लगी. वे ज्यादा युवा दिखते थे. उनके 91.3% जीन एक्टिविटी में बदलाव आ चुका था. हालांकि, वापसी के 6 महीने के भीतर ये सब कुछ पहले जैसा हो गया.
मस्तिष्क पर भी होता है असर
शरीर के अलावा दिमाग पर अंतरिक्ष के असर को समझने के लिए कई सारी स्टडीज लगातार हो रही है. ऐसी ही एक स्टडी अमेरिका में हुई, जो साल की शुरुआत में फ्रंटिअर न्यूरल सर्किट में ‘ब्रेन्स इन स्पेस- इफेक्ट ऑफ स्पेसलाइट ऑन ह्यूमन ब्रेन’ नाम से छपी.
अध्ययन के तहत ऐसे 12 एस्ट्रोनॉट्स को लिया गया, जो स्पेस पर 6 महीने से ज्यादा बिताकर लौटे थे. स्पेस पर जाने से पहले उनका ब्रेन इमेजिंग हुई और फिर इंटरनेशनल स्पेस स्टेशन से लौटकर धरती पर फ्लाइट लेने से पहले उनका MRI हुआ. 10 दिन बाद ये दोबारा हुआ. ये प्रक्रिया लगातार 7 महीनों तक चलती रही.
इस तरह हुई जांच
अंतरिक्ष में रहने का मस्तिष्क पर क्या असर होता है, ये समझने के लिए एक खास तकनीक तैयार हुई, जिसे नाम मिला ट्रैक्टोग्राफी. ये ब्रेन इमेजिंग टेक्नीक है, जो न्यूरॉन्स में हल्के से हल्के बदलाव को दिखाती है. स्टडी में कई हैरतअंगेज बातें दिखीं. जैसे स्पेस पर पहुंचने पर वहां की बेहद खतरनाक रेडिएशन से बचने के लिए ब्रेन अलग तरह से काम करने लगता है. इसे न्यूरोप्लासिसिटी कहते हैं.
क्या है न्यूरोप्लासिसिटी
ये दिमाग की वो क्षमता है, जो न्यूरॉन्स को क्लाइमेट या पर्यावरण में आए बदलाव के अनुसार काम करने के लिए प्रेरित करता है. लगभग 6 महीने भी वहां बिताने के बाद ब्रेन का ये सिस्टम कुछ इस तरह से री-वायर्ड हो जाता है कि धरती पर लौटना भी उसे बदल नहीं पाता. या बदलता भी होगा, तो फिलहाल ये सामने नहीं आ सका है.
क्या हो सकती है वजह?
स्पेस की एक्सट्रीम कंडीशन्स के कारण दिमाग अलग तरह से व्यवहार करने लगता है. जैसे वहां शरीर का भार खत्म हो जाता है. इस पर कंट्रोल के लिए ब्रेन अलग संकेत देता है, जो एक या दो दिन नहीं, कई महीनों तक चलता है. ब्रेन की री-वायरिंग के लिए इतना समय काफी है.
क्या बदलाव दिखते हैं?
धरती पर लौटने के बाद ऐसे स्पेस ट्रैवलर चलने, बैलेंस बनाने में मुश्किल झेलते हैं. मोटर के साथ-साथ उनकी कॉग्निटिव स्किल पर भी असर होता है. पाया गया कि ज्यादातर यात्री लंबे समय तक बोलने और लोगों से मिलने-जुलने में दिक्कत झेलते रहे. यहां तक कि लगभग सभी की आंखें काफी कमजोर हो गईं.
अर्थ की ऑर्बिट पार करने के साथ रेडिएशन ज्यादा
इंटरनेशनल स्पेस स्टेशन फिर भी प्रोटेक्टिव लेयर के भीतर है. ये वेन एलन रेडिएशन बेल्ट के भीतर आता है. यहां रहने वाले एस्ट्रोनॉट्स रेडिएशन के संपर्क में आते हैं, लेकिन लो अर्थ ऑर्बिट को पार करके जाने वालों में और भी ज्यादा बदलाव दिखते हैं. जैसे मार्स में जाने वाले अंतरिक्ष यात्री स्पेस स्टेशन पर रहने वाले लोगों से 8 गुना ज्यादा रेडिएशन और बदलाव झेलेंगे.