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श्रीलंका में आज नई सरकार का गठन हो गया है. संसदीय चुनाव में राष्ट्रपति अनुरा कुमारा दिसानायके की नेशनल पीपुल्स पॉवर (NPP) ने संसद की 225 में से 159 सीटें जीती थीं. 2020 के चुनाव में NPP सिर्फ 3 सीटें ही जीत सकी थी. इस बार NPP को 62 फीसदी वोट मिले हैं. सितंबर में राष्ट्रपति चुनाव जीतने के बाद दिसानायके की लोकप्रियता काफी बढ़ी है. राष्ट्रपति चुनाव में उन्हें 42 फीसदी वोट मिले थे.
विपक्षी नेता सजीत प्रेमदासा की पार्टी समागी जन बालावेगया (SJB) ने 40 सीटें जीती हैं. श्रीलंका की सत्ता पर लंबे वक्त तक रहे राजपक्षे परिवार की पोडुजन पेरामुना पार्टी (PPP) सिर्फ तीन सीट पर सिमट गई है. पिछले चुनाव में PPP ने 145 सीटें जीती थीं. वहीं, पूर्व राष्ट्रपति रानिल विक्रमसिंघे के न्यू डेमोक्रेटिक फ्रंट (NDF) ने पांच सीटें जीती हैं.
एक तरह से इस बार श्रीलंका के संसदीय चुनाव में दिसानायके की सुनामी चली है. दिसानायके के लिए चुनाव में जीत काफी मायने रखती थी, क्योंकि राष्ट्रपति चुनाव में उन्हें 42 फीसदी वोट ही मिले थे. अपनी नीतियों को लागू करवाने के लिए उन्हें संसद में बहुमत लाना जरूरी था.
श्रीलंका की नई सरकार में हरिनी अमरसूर्या को फिर से प्रधानमंत्री नियुक्त किया गया है. सितंबर में राष्ट्रपति चुनाव जीतने के बाद दिसानायके ने हरिनी अमरसूर्या को प्रधानमंत्री बनाया था.
कैसे चली दिसानायके की सुनामी?
श्रीलंका के चुनाव में NPP ने जिस तरह से प्रदर्शन किया है, उसकी तुलना सुनामी से की जा रही है. वो इसलिए क्योंकि ये पहली बार है जब श्रीलंका में किसी पार्टी या गठबंधन ने 150 का आंकड़ा पार किया है. इतना ही नहीं, पहली बार किसी पार्टी को 61.56 फीसदी वोट मिले हैं.
इससे पहले 2010 के चुनाव में पूर्व राष्ट्रपति महिंदा राजपक्षे की पार्टी को 60.33 फीसदी वोट मिले थे. राजपक्षे की पार्टी इस बार महज 3 फीसदी वोट ही हासिल कर सकी है.
कम्युनिस्ट विचारधारा वाले दिसानायके की पार्टी ने जाफना जिले में भी इतिहास रचा. यहां तमिलों का दबदबा है और यहां हमेशा से तमिल राष्ट्रवादी पार्टियां ही जीतती आईं हैं. लेकिन इस बार दिसानायके की पार्टी ने यहां 62 फीसदी से ज्यादा वोट हासिल कर जीत हासिल की. NPP ने अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने का वादा किया था.
इस बार 160 से ज्यादा सांसद पहली बार चुने गए हैं. सिर्फ 37 सांसद ही ऐसे हैं, जिन्हें जनता ने दोबारा जिताया है. पहली बार चुने गए सांसदों में से 100 से ज्यादा सांसद NPP से हैं.
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भारत पर क्या पड़ सकता है असर?
मई 2022 में राजपक्षे सरकार गिरने के बाद रानिल विक्रमसिंघे श्रीलंका की कमान संभाल रहे थे. विक्रमसिंघे को भारत समर्थक माना जाता है. पर अब सितंबर से दिसानायके वहां के राष्ट्रपति हैं. दिसानायके की पार्टी के पास अब तक संसद में बहुमत नहीं था. लेकिन अब संसद में भी उनके पास दो-तिहाई से ज्यादा सांसद हैं.
दिसानायके जिस जनता विमुक्ति पेरामुना (JVP) पार्टी से आते हैं, वो अतीत में श्रीलंका के दो हिंसक आंदोलनों में शामिल रही है. पहला- 1971 और दूसरा- 1987 से 1989 तक. दोनों ही विद्रोहों को दबाने में भारत ने श्रीलंका की मदद की थी. इसलिए JVP एक तरह से भारत को अपने विरोधी की तरह देखती है.
हालांकि, दिसानायके के दौर में JVP का भारत को लेकर नजरिया बदला है. उनका मानना है कि श्रीलंका की तरक्की के लिए भारत का साथ बहुत जरूरी है. पिछले साल फरवरी में दिसानायके भारत आए थे, तो उन्होंने विदेश मंत्री जयशंकर से मुलाकात की थी. तब जयशंकर ने इस मुलाकात को द्विपक्षीय संबंधों को और मजबूत करने की दिशा में अच्छा कदम बताया था. इसके बाद एनएसए अजित डोवाल भी श्रीलंका गए थे और उन्होंने दिसानायके से मुलाकात की थी.
श्रीलंका के लिए मजबूरी क्यों है भारत?
राजपक्षे की सरकार में श्रीलंका और चीन के बीच नजदीकियां बढ़ीं. चीन ने कर्ज देकर श्रीलंका को दिवालिया कर दिया. अप्रैल 2022 में जब श्रीलंका ने खुद को दिवालिया घोषित किया, तब उस पर 51 अरब डॉलर से ज्यादा का कर्ज था. श्रीलंका को आर्थिक संकट से बाहर निकलने में भारत ने काफी मदद की. भारत ने 4 अरब डॉलर से ज्यादा की मदद की थी.
दिसानायके चाहकर भी भारत के साथ संबंध नहीं बिगाड़ सकते, क्योंकि इससे उसकी अर्थव्यवस्था को चोट पहुंच सकती है. जबकि, दिसानायके को जनता ने अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के वादे के कारण सत्ता सौंपी है. चीन के बाद भारत, श्रीलंका का दूसरा सबसे बड़ा कारोबारी देश है. पेट्रोलियम के लिए श्रीलंका बहुत हद तक भारत पर ही निर्भर है.
हालांकि, वो चीन को भी नजरअंदाज नहीं कर सकते, लेकिन दिसानायके और उनकी सरकार के लिए भारत से रिश्ते बेहतर करना मजबूरी भी है, क्योंकि उन्होंने देखा है कि जरूरत पड़ने पर भारत ही उनके काम आएगा.
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भारत के लिए भी जरूरी है श्रीलंका!
दक्षिण एशिया के बाकी देशों की तरह श्रीलंका में भी चीन का काफी प्रभाव है. श्रीलंका पर 51 अरब डॉलर के कर्ज में से 11 फीसदी से ज्यादा चीन का ही बकाया है. 2019 में श्रीलंका सरकार को कर्ज न चुका पाने के कारण हंबनटोटा बंदरगाह चीन को 99 साल की लीज पर देना पड़ा था.
दिसानायके वामपंथी विचारधारा के हैं और चीन इसका फायदा उठाते हुए अपने पाले में लाने की कोशिश करेगा. इसलिए भारत के लिए भी ये जरूरी है कि वो श्रीलंका को अपने साथ रखे. अगस्त में शेख हसीना की सरकार के तख्तापलट होने के बाद भारत ने अपने अहम सहयोगी बांग्लादेश को खो दिया है.
भारत के सभी पड़ोसियों पर चीन का दबदबा है. आजादी के बाद से ही पाकिस्तान से रिश्ते तनावपूर्ण रहे हैं. और कुछ सालों से तो पाकिस्तान, चीन की गोद में बैठा है. चारों ओर जमीन से घिरा भूटान भी चीन के करीब जाता दिखा रहा है. चीन के साथ सीमा विवाद सुलझाने को लेकर उसकी बातचीत अंतिम दौर में हैं. नेपाल में भी केपी शर्मा ओली की सरकार है, जो चीन के करीबी हैं. मालदीव के राष्ट्रपति मोहम्मद मुइज्जू को भी चीन समर्थक माना जाता है. म्यांमार में साढ़े तीन साल से सैन्य शासन है और इस दौरान उसकी भी चीन से नजदीकियां बढ़ी हैं. इन सबको ध्यान में रखते हुए भारत के लिए श्रीलंका और भी ज्यादा जरूरी बन गया है.
दूसरी बड़ी वजह ये है कि श्रीलंका हिंद महासागर में ऐसी जगह बसा है, जो समुद्री कारोबार के केंद्र में आता है. श्रीलंका, भारत के दक्षिणी तट के करीब है, जो नौसैनिक रणनीति में काफी काम आ सकता है.
कुल मिलाकर, विचारधारा के नजरिए से श्रीलंका की दिसानायके सरकार भले ही चीन के करीब हो, लेकिन आर्थिक लिहाज से भारत उसकी मजबूरी है. इसी तरह, पुराने समय में दिसानायके की पार्टी का रुख भारत को लेकर कुछ भी रहा हो, चीन के दबदबे को कम करने के लिए श्रीलंका भी भारत के लिए काफी अहम है.