वायनाड में शुरू हुई तबाही अभी रुकी नहीं है. सोमवार देर तक हुए लैंडस्लाइड के बाद से रेस्क्यू टीमें हजारों लोगों को बचाकर राहत शिविरों में भेज चुकीं. बारिश की चेतावनी के बीच बचाव दल अपना काम कर रहे हैं. लेकिन मलबे में दबे लोगों को बचाना आसान नहीं. कई बार मलबे से ठीक हालत में बाहर आने के बाद भी मौतें देखी जाती रहीं, जो कुछ घंटों से लेकर कई दिन बाद भी हो सकती हैं.
क्यों होती है बचने के बाद भी मौत
पोस्ट रेस्क्यू डेथ के कई कारण हो सकते हैं. इनमें सबसे पहला तो यही है कि हो सकता है कि बचाव दल ने पीड़ित को मलबे से निकालने के बाद उसकी चोटों को ठीक से न समझा हो, या ज्यादा दबाव के चलते अस्पताल भी इससे चूक गए हों. लेकिन साइंस के पास इसके और भी कारण हैं.
इनमें से एक है हाइपोथर्मिया
लैंडस्लाइड या भूकंप के कारण इमारतों के ध्वस्त होने से जो मलबा बनता है, उसके नीचे का तापमान कम हो जाता है. ये टेंपरेचर जमीन के ऊपर से काफी कम रहता है. खासकर अगर हादसा ठंडी जगहों या बारिश के बीच हुआ हो. ये मलबे के नीचे दबे लोगों की ब्लड वेसल्स को सिकोड़ देता है. ये एक प्रोसेस है, जिसके जरिए रक्त कोशिकाएं तय करती हैं कि शरीर से जितनी हो सके, उतनी कम गर्मी स्किन से बाहर निकले. इससे शरीर का ऊपरी तापमान घट जाता है, जबकि भीतर का टेंपरेचर बढ़ा रहता है ताकि वाइटल्स काम करते रहें.
रक्त वाहिकाओं का अचानक फैलना या सिकुड़ना खतरनाक
बचाव के दौरान पीड़ित को नीचे से ऊपर लाने की कोशिश में काफी मशक्कत करनी होती है. पीड़ित का शरीर लगातार मूवमेंट करता रहता है. इससे ब्लड वेसल्स अचानक से फैल जाती हैं. तापमान में तुरंत फर्क आने से कार्डियक एरिदमिया की स्थिति बन सकती है, यानी दिल की धड़कन का अनियमित हो जाना. ये जानलेवा है.
क्रश सिंड्रोम है आम कारण
मलबे के भीतर अगर शरीर का एक हिस्सा दबा हुआ हो तो उस भाग में टिश्यू डैमेज हो जाते हैं. इस दौरान शरीर से मायोग्लोबिन निकलता है. यह एक तरह का प्रोटीन है जो शरीर के क्षतिग्रस्त हिस्से में ऑक्सीजन पहुंचाने का जिम्मा लेता है. यहां तक तो ठीक है, लेकिन जैसे ही शख्स मलबे से बाहर निकाला जाएगा, शरीर के एक हिस्से तक सीमित ये प्रोटीन पूरे शरीर में फैल जाएगा. इससे किडनी फेल हो सकती है. इसे क्रश सिंड्रोम भी कहते हैं.
दिल अपना काम रोक देता है
पोटैशियम की मात्रा इतनी ज्यादा बढ़ सकती है कि वेंट्रीकुलर फाइब्रिलेशन की स्थिति आ जाए. इससे हार्ट शरीर के हर हिस्से तक ब्लड नहीं पहुंचा पाता. जो लोग पहले से ही दिल की बीमारियों का शिकार हों, उनके लिए ये कंडीशन खासतौर पर खतरनाक हो सकती है.
कम स्ट्रेस भी बन सकता है जानलेवा
समुद्र में डूबते लोगों के रेस्क्यू के दौरान ये बात खूब देखी गई. जैसे ही लोग बचाव दल को अपने पास देखते हैं, उन्हें भरोसा होने लगता है कि वे सुरक्षित निकल आएंगे. इससे उनके स्ट्रेस हॉर्मोन का स्तर एकदम तेजी से गिरता है. स्ट्रेस हॉर्मोन आपदा के दौरान जान बचाने का काम करते हैं क्योंकि इनकी वजह से ब्रेन को सिग्नल मिलता है और वो सारे अंगों को ठीक से काम करने को कहता है. लेकिन स्ट्रेस हॉर्मोन का स्तर अचानक घटते ही सर्कुलेटरी सिस्टम ढह सकता है.
मेंटल स्ट्रेस भी मौत दे सकता है
कई बार बचाव के बाद अचानक आया मानसिक तनाव भी जान ले सकता है, जैसे बचने वाले को अहसास हो कि उसका परिवार खत्म हो चुका, या लापता है. या फिर उसकी सारी संपत्ति नष्ट हो चुकी. ऐसे में छोटी-मोटी चोट भी गंभीर बन सकती है. ये भी देखा गया कि भूकंप या सुनामी जैसी आपदाओं के बाद उस इलाके में डिप्रेशन के गंभीर मरीज बढ़ जाते हैं जो आत्महत्या की प्रवृति रखते हैं.
वैसे मलबे के भीतर काफी दिनों तक भी जिंदा रहा जा सकता है. ये इसपर निर्भर है कि शख्स भीतर किसी स्थिति में दबा हुआ है. अगर उस तक हवा-पानी पहुंच रहा हो तो स्वस्थ वयस्क हफ्तेभर भी जिंदा रह सकता है. यही वजह है कि संयुक्त राष्ट्र किसी प्राकृतिक आपदा में 5 से 7 दिनों तक सघन रेस्क्यू अभियान चलाए रखने की बात करता है.