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पश्चिम बंगाल में हो रहे पंचायत चुनावों में इस बार भी सत्ता के लिए किसी भी हद तक जाने के लिए खून-खराबा किया जाने लगा है.
बुधवार को ही उत्तर 24 परगना में बम हमले में एक नाबालिग की मौत हो गई है. बताया जा रहा है कि 17 साल का इमरान हुसैन मंगलवार को तृणमूल कांग्रेस की रैली में शामिल हुआ था. इससे पहले दक्षिण 24 परगना जिले में भी टीएमसी कार्यकर्ता जियारूल मोहल्ला नाम के शख्स की गोली मारकर हत्या कर दी गई थी.
वहीं, दो जुलाई को मुर्शिदाबाद जिले में रविवार रात कांग्रेस कार्यकर्ता आरिफ शेख को भी गोली मार दी गई थी. इस हमले में आरिफ शेख बुरी तरह जख्मी हो गए थे. सोमवार को पुरुलिया में 45 साल के बीजेपी कार्यकर्ता का शव खेतों में मिला था.
रिपोर्ट्स बतातीं हैं कि बंगाल में जिस दिन से पंचायत चुनाव की तारीखों का ऐलान हुआ है, तब से अब तक 15 लोगों की हत्या हो चुकी है. बंगाल में पंचायत चुनाव की तारीखों का ऐलान 8 जून को हुआ था.
पश्चिम बंगाल में 74 हजार से ज्यादा जिला परिषद, पंचायत समिति और ग्राम पंचायत में वोटिंग होनी है. ये वोटिंग 8 जुलाई को होगी, जबकि 11 जुलाई को नतीजे आएंगे.
पश्चिम बंगाल में पंचायत चुनाव हो या विधानसभा चुनाव हो या फिर लोकसभा चुनाव... हिंसा होती ही है. ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर यहां चुनावों के दौरान हिंसा क्यों भड़क जाती है?
क्यों भड़क उठता है बंगाल?
वैसे तो चुनावों के समय में हर राज्य में हिंसा होती है, लेकिन पश्चिम बंगाल में ये एक संस्कृति सी बन गई है. यहां कोई भी चुनाव बगैर हिंसा के पूरा नहीं होता.
2003 में जब यहां पंचायत चुनाव हुए थे, तब 76 लोगों की मौत हुई थी. इनमें से 40 से ज्यादा लोग तो वोटिंग वाले दिन मारे गए थे. 2013 और 2018 के चुनाव के समय यहां केंद्रीय बलों की तैनाती भी हुई थी, बावजूद उसके हिंसा नहीं थमी थी. 2013 में 39 और 2018 में 30 लोगों की मौत हुई थी.
राजनीतिक विश्लेषकों का मामला है कि पांच दशक में बंगाल की राजनीति बहुत बदली है. अब ये विचारधारा से ज्यादा पहचान की लड़ाई है. इलाके पर दबदबे की लड़ाई बन गई है.
राजनीतिक विश्लेषक मैदुल इस्लाम ने न्यूज एजेंसी से कहा, पंचायत चुनाव सिर्फ हार या जीत का मसला बनकर नहीं रह गया है, बल्कि ये एक तरह से आजीविका है. औद्योगिक विकास की कमी और बढ़ती बेरोजगारी ने ग्रामीण और अर्ध-शहरी इलाकों में लोगों को सरकार पर निर्भर कर दिया है.
उन्होंने बताया कि मनरेगा और दूसरी ग्रामीण विकास योजनाएं पंचायतों में पैसा कमाने का एक जरिया बन चुकी है. इससे न सिर्फ भ्रष्टाचार बढ़ रहा है, बल्कि हिंसा भी बढ़ रही है. क्योंकि हर कोई इसमें अपना हिस्सा चाहता है, फिर चाहे वो सत्ताधारी पार्टी हो या विपक्ष.
रबींद्र भारती यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर बिस्वनाथ चक्रवर्ती कहते हैं, बंगाल में एक पार्टी के वर्चस्व का लंबा इतिहास रहा है. पहले कांग्रेस, फिर लेफ्ट और अब टीएमसी. लेकिन बीते 30 साल में लेफ्ट की वजह से ग्रामीण इलाकों में अमीर और गरीब का एक नया वर्ग उभरकर सामने आया है.
चक्रवर्ती बताते हैं कि अगर आप सत्ताधारी पार्टी के साथ हैं तो आपको सारे लाभ मिलेंगे, लेकिन अगर आप दूसरी साइड हैं तो आपको लाभार्थियों की लिस्ट से बाहर कर दिया जाता है. ये ट्रेंड अभी भी जारी है.
बंगाली का खूनी इतिहास
मुगल शासक शाहजहां के बेटे और बंगाल के गवर्नर रहे मिर्जा शाह शुजा ने 17वीं सदी में बंगाल को 'शांतिप्रिय' बताया था. लेकिन बंगाल का मिजाज इससे थोड़ा उल्टा रहा है. यहां हिंसा का एक बहुत लंबा इतिहास रहा है.
बंगाल की राजनीतिक हिंसा का इतिहास 1946 से 1948 तक चले 'तेभागा आंदोलन' से शुरू माना जा सकता है. ये आंदोलन कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया यानी सीपीआई की अगुवाई में हुआ था. इस आंदोलन के कारण कांग्रेस समर्थित जमींदारों और किसानों के बीच जमकर खून-खराबा हुआ था.
60 के दशक में भी यहां कई खूनी आंदोलन हुए. 1959 में फूड मूवमेंट और स्टूडेंट्स मूवमेंट के दौरान राज्य में हिंसा हुई.
इसके बाद 1967 में चारू मजूमदार की अगुवाई में नक्सली आंदोलन शुरू हुआ. इस दौरान कथित तौर पर जमींदारों, पुलिस कर्मियों और राजनीतिक विरोधियों की चुन-चुनकर हत्या की गई.
1972 में कांग्रेस फिर जीत गई. सिद्धार्थ शंकर रे मुख्यमंत्री बने. बताया जाता है कि उनकी सरकार में विपक्ष को खत्म करने की भरपूर कोशिश हुई. फिर इमरजेंसी के दौरान भी बड़े पैमाने पर हिंसा हुई. विपक्षी नेताओं को गिरफ्तार किया जाने लगा. ऐसा तो पूरे देश में ही हो रहा था, लेकिन बंगाल में ज्यादा हुआ.
1977 में लेफ्ट की सरकार आने के बाद कुछ सालों बंगाल में शांति रही. लेकिन विपक्ष ने लेफ्ट पर 'साइलेंट थ्रेट्स' का कल्चर लाने का आरोप लगाया. लेफ्ट ने भी फिर वही किया जो अब तक यहां कांग्रेस करती आ रही थी.
जब ममता बनर्जी पर हुआ था हमला
ये वो दौर था जब ममता बनर्जी कांग्रेस में हुआ करती थीं. 90 के दशक में लेफ्ट की सरकार ने बसों का किराया बढ़ा दिया.
16 अगस्त 1990 को कांग्रेस ने सरकारी बसों के बढ़े किराये के खिलाफ हड़ताल बुलाई थी. ममता जब कार्यकर्ताओं के साथ कोलकाता के हजारा इलाके में पहुंची तो सीपीएम के लोगों ने उन्हें घेर लिया.
ममता बनर्जी अपनी आत्मकथा 'माय अनफोरगेटेबल मेमोरीज' में लिखती हैं, 'मैंने देखा कि लालू आलम और उसके साथ मेरी तरफ बढ़ रहे हैं. उनके हाथ में लोहे की रॉड और पिस्तौल है. मैं शांति से उनके मुझ तक पहुंचने का इंतजार करती रही. लालू आलम ने आते ही मेरे सिर पर रॉड मारी. मैं खून से भीग गई थी.'
इस हमले के बाद ममता कई दिनों तक अस्पताल में भर्ती रही थीं. साल 2011 में लालू आलम ने ममता बनर्जी से माफी मांगी थी. उसने कहा कि सीपीएम ने जबरदस्ती उससे हमला करवाया था. 2019 में लालू आलम को इस केस से बरी कर दिया गया.
इसी तरह, 21 जुलाई 1993 को कोलकाता में ममता बनर्जी की अगुवाई में कांग्रेस ने एक और बड़ा प्रदर्शन किया. पुलिस ने फायरिंग कर दी. इसमें 13 कांग्रेस कार्यकर्ता मारे गए. इस घटना ने ममता बनर्जी की अलग पहचान बना दी. साल 1998 में ममता ने कांग्रेस ने अलग होकर अपनी पार्टी 'तृणमूल कांग्रेस' बनाई.
ममता आईं, लेकिन नहीं थमी हिंसा
माना जाता है कि पश्चिम बंगाल में सत्ता की चाबी ग्रामीण इलाकों से ही निकलती है. यही वजह है कि देश के कई राज्यों के विधानसभा चुनावों की उतनी चर्चा नहीं होती, जितनी सुर्खियां बंगाल के पंचायत चुनावों को मिल जाती हैं.
लेफ्ट ने भूमि सुधारों और पंचायत व्यवस्था की मदद से ग्रामीण इलाकों में अपनी पकड़ बनाए रखी थी. इसी ने उसे 34 साल तक बंगाल की सत्ता में बनाए रखा था.
2008 के पंचायत चुनाव में वाममोर्चा का प्रदर्शन बहुत खराब रहा. नतीजा ये हुआ कि 2011 में लेफ्ट का किला ढह गया. और ममता बनर्जी की टीएमसी की बड़ी जीत हुई. ममता बनर्जी की सरकार आने के बाद भी बंगाल में हिंसा थमी नहीं.
समाधान की बजाय ब्लेम गेम
जानकारों का मानना है कि राजनीति और चुनावों में हिंसा की संस्कृति को खत्म करने की बजाय पार्टियां ब्लेम गेम में लगी रहती हैं.
टीएमसी सांसद सौगत रॉय ने न्यूज एजेंसी से कहा, 'हम इससे सहमत हैं कि राजनीतिक हिंसा की संस्कृति को रोकना होगा, लेकिन इस बार चुनाव के दौरान हुई हिंसा लेफ्ट पार्टी के दौर में हुई हिंसा की तुलना में कम है. वामपंथ ने ही अपने तीन दशक के शासन में हिंसा को बढ़ाया.'
उन्होंने कहा, 'अब विपक्षी पार्टियां हमारे खिलाफ एकजुट हो गईं हैं. सिर्फ सत्ताधारी ही नहीं, बल्कि विपक्षी पार्टियों को भी चुनावी हिंसा रोकने के लिए आगे आना होगा.'
बीजेपी प्रवक्ता सामिक भट्टाचार्य ने कहा, 'कांग्रेस ने इसे 70 के दशक में शुरू किया, लेफ्ट ने इसे आगे बढ़ाया और अब टीएमसी इसे अलग ही स्तर पर लेकर चली गई है. सत्ताधारी पार्टी को हिंसा रोकने के लिए इच्छाशक्ति दिखानी होगी, लेकिन मौजूदा सरकार राज्य को राजनीतिक हिंसा और हत्याओं के मामले में टॉप पर रखना चाहती है.'
सीपीएम नेता सुजान चक्रवर्ती वाम सरकार के दौरान हिंसा को बढ़ावा देने के आरोपों को खारिज करते हैं. उनका कहना है, 'टीएमसी लोकतांत्रिक प्रक्रिया में बहुत ज्यादा विश्वास नहीं करती है, जिस कारण राज्य अराजकता की ओर बढ़ रहा है.'
कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष अधीर चौधरी ने कहा कि टीएमसी की सोच 'सबकुछ हड़प लेने' वाली है और यहां किसी भी तरह के विरोध की कोई जगह नहीं है, जिसने अराजकता को जन्म दिया है.
चुनावी हिंसा पर क्या कहते हैं आकंड़े
रिपोर्ट्स के मुताबिक, पंचायत चुनाव की तारीखों के ऐलान के बाद से अब तक कम से कम 15 लोगों की हत्या हो चुकी है. 2018 में 30 लोगों की मौत हुई थी.
हालांकि, नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो यानी एनसीआरबी के आंकड़े इससे थोड़ा अलग हैं. एनसीआरबी के आंकड़े बताते हैं कि 2018 में पश्चिम बंगाल में 12 राजनीतिक हत्याएं हुई थीं. जबकि, देशभर में 54 लोग मारे गए थे.
लेकिन उसी साल केंद्रीय गृह मंत्रालय ने एक राज्य सरकार को एक एडवाइजरी भेजी थी, जिसमें कहा गया था कि पश्चिम बंगाल में 96 राजनीतिक हत्याएं हुई हैं. इसके बाद एनसीआरबी ने सफाई देते हुए कहा था कि कुछ राज्यों से सही आंकड़े नहीं मिले हैं, इसलिए उसके आंकड़ों को फाइनल नहीं माना जाना चाहिए.
एनसीआरबी के आंकड़ों के मुताबिक, 2012 से 2021 के बीच 10 साल में देशभर में 840 लोगों की हत्याएं राजनीतिक मकसद से हुईं हैं. इनमें से 95 हत्याएं पश्चिम बंगाल में हुई हैं.