झुलसाने वाली गर्मी के बाद बारिश से राहत तो मिली, लेकिन पहाड़ी इलाकों, खासकर हिमाचल प्रदेश के हाल खराब हैं. उफनती नदियों और लैंड स्लाइड से कई मौतें हो गईं. कई लोग अब भी लापता हैं लेकिन फिलहाल सबसे ज्यादा डर फ्लैश फ्लड की वजह से है. इससे बचने के लिए राज्य में बहुत सी सड़कों को बंद कर दिया गया. हर साल बारिश के समय यही हालात बनते हैं. तैयारियां धरी रह जाती हैं और बाढ़ जान-माल का नुकसान करती रहती है.
क्या है फ्लैश फ्लड और क्यों आता है?
ये बाढ़ का वो टाइप है, जो एकदम से आता है. इसे प्लविअल फ्लड भी कहते हैं. आमतौर पर मौसम विभाग या एक्सपर्ट इसकी भविष्यवाणी नहीं कर पाते हैं कि ये कब, कहां आएगा. फ्लैश फ्लड्स सिर्फ पहाड़ी जगहों पर नहीं आते, जहां भारी बारिश होती है, बल्कि सूखी जगहों पर भी इनके आने का डर रहता है. असल में ये घटना तब होती है, जब जमीन पानी को सोख नहीं पाती.
बंजर इलाकों में भी आ सकता है
अगर किसी जगह खूब बारिश हो चुकी हो और लगातार होती ही रहे, तब जमीन अतिरिक्त पानी को एब्जॉर्ब नहीं कर पाती. ऐसे में पानी बाढ़ की शक्ल ले लेता है. फ्लैश फ्लड उन इलाकों में भी दिखता है, जो सूखाग्रस्त रहे. ऐसी जगहों की जमीन बहुत सख्त हो चुकी होती है और बारिश होने पर पानी सूख नहीं पाता. तब जलस्तर बढ़कर तबाही मचाने लगता है.
जिन जगहों पर नदी संकरी होती है और पास ही सड़कें बनी हों, वहां बाढ़ आना कॉमन है क्योंकि भारी बारिश के बाद नदी उफनती है और कंक्रीट चूंकि पानी को सोख नहीं पाता तो तुरंत ही सड़कें बहनें लगती हैं. बादल फटने पर अचानक पानी गिरना भी फ्लैश फ्लड की वजह बनता है. हिमाचल में फिलहाल यही देखने को मिल रहा है.
भारत में फ्लैश फ्लड कितना कॉमन?
केदारनाथ आपदा तो बहुतों को याद होगी! 13 जून को उत्तराखंड में लगातार बारिश हो रही थी, इस दौरान चौराबाड़ी ग्लेशियर पिघल गया और मंदाकिनी नदी का जलस्तर इतना बढ़ा कि केदारनाथ घाटी को चपेट में ले लिया. इसके बाद मची तबाही ने 5 हजार से ज्यादा जानें ले लीं और हजारों लोग लापता हो गए. बाद के दिनों में लाशें यहां-वहां मिलती रहीं. केरल में साल 2018 में ऐसे ही आई बाढ़ ने लगभग 500 जानें ले लीं. पिछले साल की जुलाई में हिमाचल में ही फ्लैश फ्लड से काफी नुकसान हुआ था.
नदियों के उफनने पर आने वाली आफत
बर्फ पिघलने या नदियों का जलस्तर बढ़ने पर जो बाढ़ आती है, उसे फ्लविअल या रिवर फ्लड कहा जाता है. इससे अक्सर बांध टूट जाते हैं और जान-माल का भारी नुकसान होता है. लेकिन इसमें राहत की बात ये है कि इस तरह की बाढ़ का अनुमान समय रहते लगाया जा सकता है. वॉटर लेवल बढ़ने के कई स्तर होते हैं. जैसे ही पानी खतरे से आसपास पहुंचता है, अलर्ट जारी हो जाता है और तटीय इलाकों को खाली करा दिया जाता है. हालांकि पहाड़ी इलाकों में ये फ्लड काफी खतरनाक हो जाती है.
कोस्टल फ्लड्स भी हैं कॉमन
समुद्री इलाकों में भी बाढ़ आती है और भयंकर विनाश मचा देती है. इसे कोस्टल फ्लड कहते हैं. बारिश से इसका ताल्लुक कम और हवा से ज्यादा है. जब तूफानी हवाएं चलती हैं तो पानी की धारा काफी ऊंची हो जाती है और कोस्टल फ्लडिंग की घटनाएं होती हैं. अक्सर हरिकेन या टाइफून के समय ये होता है.
कोस्टल फ्लडिंग का भी पहले से अंदाजा लग जाता है और अलर्ट जारी हो जाता है. मौसम विज्ञानी हवा के बहाव के आधार पर बता पाते हैं कि ये कितनी खतरनाक हो सकती है. हालांकि चूक इसमें भी होती है. जैसे दिसंबर 2004 में आई सुनामी को ही लें तो किसी को इसका अनुमान नहीं था और कई देशों के समुद्र के आसपास इसने जो कोहराम मचाया, उसकी भरपाई सालों तक नहीं हो सकी.
ये देश फ्लड कंट्रोल में नंबर 1
इसमें नीदरलैंड टॉप पर है. इस डच देश में पचास के दशक में भारी बाढ़ आई थी. तब लगभग 600 स्क्वैयर मील हिस्सा पानी में पूरी तरह से डूब गया था, जिसमें 1800 से ज्यादा लोगों की मौत हुई थी. बाढ़ में कई दूसरे यूरोपियन देशों पर भी असर हुआ, लेकिन नीदरलैंड की भारी आबादी चूंकि समुद्र तट के पास ही बसी हुई है, तो उसका सबसे ज्यादा नुकसान हुआ. इसके बाद से वहां फ्लड कंट्रोल सिस्टम पर खूब काम हुआ.
नए-नए तरीके सोचे गए ताकि समुद्र का पानी स्तर से ऊपर आने पर उतना नुकसान न करे. वहां पर तैरने वाले घर बनाए जा रहे हैं. इनका बेस सीमेंट का होता है लेकिन अंदर स्टायरोफोम भरा होता है, ताकि वे पानी में तैरते रहें.इसके अलावा पानी का डायवर्जन सिस्टम भी बनाया गया जो एक्स्ट्रा पानी को दूसरी दिशा में मोड़ देता है. बाद में बहुत से यूरोपियन देश भी इस पैटर्न को फॉलो करने लगे.