स्विस इंटेलिजेंस सर्विस ने इस बार एनुअल रिपोर्ट जारी करते हुए चिंता जताई है. इसकी एक वजह रूस और यूक्रेन के बीच छिड़ी लड़ाई है, जिसे दुनियाभर के ताकतवर देश अपनी-अपनी नाक का सवाल बना ले रहे हैं. एक तरफ रूस और चीन हैं तो दूसरी ओर अमेरिका-यूरोप. सभी चाहते हैं कि उनकी जीत हो. अगर लड़ाई के मैदान में हार मिल रही हो तो जासूसी से इसकी भरपाई हो सकती है. यही मानते हुए देश अपने-अपने टॉप जासूसों को स्विटजरलैंड भेज रहे हैं.
लेकिन स्विटजरलैंड क्यों?
इसका जवाब जानने से पहले एक रिपोर्ट पढ़ते चलें. साल 2018 में फेडरल काउंसिल ने माना कि स्विटजरलैंड में हर 4 रूसी डिप्लोमेट्स में से 1 शख्स जासूस है. इनमें से कई जासूसों को पकड़ भी लिया गया, लेकिन डिप्लोमेटिक इम्युनिटी होने की वजह से उनपर कोई कार्रवाई नहीं हो सकी. वहीं ज्यादातर एजेंट अंडरकवर होकर ही सारा काम करते रहते हैं.
किस भेष में आते हैं जासूस?
अकेला रूस नहीं, बल्कि स्विस एजेंसी ने चीन पर भी आरोप लगाए कि वो अपने जासूसों को कवर करके भेज रहा है. रूस के जासूस जहां डिप्लोमेट बनकर आते हैं, वहीं चीनी जासूस अक्सर साइंटिस्ट, गेस्ट प्रोफेसर, कलाकार या पत्रकार बनकर आते हैं. ये लोग ज्यूरिख, जेनेवा और लुसाने में रहते हैं और जासूसी करते हैं.
किनकी जासूसी होती है?
स्विटजरलैंड का जेनेवा जासूसों की फेवरेट जगह है. ये वो शहर है, जहां ढेर सारे इंटरनेशनल संस्थानों के हेडक्वार्टर हैं. यहां रेड क्रॉस भी है. साथ ही वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गेनाइजेशन और यूनाइटेड नेशन्स भी. इन दफ्तरों में पॉलिसीज तय होती हैं, जिससे दुनिया में बड़े बदलाव आते हैं. यही वजह है कि यहां हर देश से डिप्लोमेट्स आते रहते हैं. जासूसों का काम अंदरखाने की खबर लाना होता है ताकि उनके देश कुछ नया कर सकें.
स्विटजरलैंड में ही क्यों हैं अहम हेड-क्वार्टर?
इसके लिए स्विस देश ने काफी मेहनत की. उसने 100 साल पहले से ही खुद को न्यूट्रल घोषित कर दिया था. तटस्थता की नीति के तहत, स्विट्जरलैंड दो देशों के बीच लड़ाई में किसी तरह का सैन्य सहयोग नहीं करेगा. वो न तो अपने सैनिक देगा, न इस खास मकसद से हथियार सप्लाई करेगा. यहां तक कि अगर दो पड़ोसी देशों के बीच जंग छिड़ी हो और एक देश की आर्मी किसी भी तरह स्विस सीमा का इस्तेमाल करना चाहे तो उसकी मनाही है.
हर देश को मिलती है सेफ्टी और भरोसे की गारंटी
चूंकि ये देश किसी के साथ या खिलाफ नहीं है, तो ऐसे में ये किसी के लिए खतरा भी नहीं है. इसके बाद से जितनी भी बाइलेटरल संधियां होने लगीं, उनके दफ्तर यहां के जेनेवा या ज्यूरिख में बनने लगे. स्विटजरलैंड भी बदले में वादा करने लगा कि ये जगह उनके लिए सेफ हेवन है और कोई भी देश उन्हें डिस्टर्ब नहीं करेगा. अगर कोई संस्था स्विटजरलैंड में अपना मुख्यालय बनाना चाहे तो स्विस फेडरल काउंसिल के साथ करार होता है.
सालों खर्च करके स्विटजरलैंड ने अपनी तटस्थ इमेज बनाई, ताकि देशों का उसके यहां आना-जाना बढ़े. तनाव में जी रहे देश नेगोशिएशन के लिए यहां आने लगे. मित्र राष्ट्र नई डील्स साइन करने के लिए यहां मिलने लगे. इस तरह से छोटा देश होकर भी स्विटजरलैंड न्यूयॉर्क और वियना जितनी अहमियत रखने लगा.
हालांकि इसका अपना खतरा भी था, जो जल्दी ही दिखने लगा. दूसरे विश्व युद्ध के समय से ही इस देश में विदेशी जासूस बढ़ने लगे. वे अपने दुश्मन देश की प्लानिंग का भेद लेकर उसे कमजोर बनाने की फिराक में थे.
जासूसों को नहीं था ज्यादा अधिकार
जासूसी को रोकने के लिए स्विटजरलैंड समय-समय पर देशों से रिक्वेस्ट करता रहा. लेकिन सबसे बड़ा एक्शन उसने साल 2016 में लिया. उसके सीक्रेट सर्विस एजेंट्स को ये अधिकार मिल गया कि वे प्राइवेट फोन्स पर भी नजर रख सकें. हालांकि जासूस अगर डिप्लोमेट बनकर आते हैं तो स्विस सरकार के हाथ बंधे हुए हैं. वो उसकी, उसके मकान या इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों की तलाशी नहीं ले सकती है, जब तक कि कोई रंगे हाथ न पकड़ा जाए.
दुनियाभर के देशों को सेफ ठिकाना देना स्विस सरकार की प्राथमिकता है. अगर जासूसों की वजह से इसमें दिक्कत आए तो न्यूट्रल देश सख्त एक्शन लेता है. जैसे साल 2018 में जब रूस के जासूसों का भेद खुला तो फेडरल काउंसिल और विदेश मंत्रालय, दोनों ने वॉर्निंग दी. इसके बाद मामलों में कुछ कमी भी आई थी.
कैसी है स्विस इंटेलिजेंसी एजेंसी?
दूसरे यूरोपियन देशों की तुलना में ये काफी छोटी है. इसमें 300 से कुछ ज्यादा लोग फुल टाइम जासूस हैं. हर साल इनपर लगभग 80 मिलियन डॉलर खर्च होता है. एजेंसी के हाथ में खास ताकत नहीं है, क्योंकि देश ने अपने यहां आने वालों को आजादी का वादा कर रखा है. ये भी एक वजह है कि विदेशी जासूस यहां आकर टिके रहते हैं.
सबसे बड़ा जासूसी स्कैंडल कब हुआ था?
नब्बे की शुरुआत में न्यूट्रल कहलाते इस देश का नया ही चेहरा सामने आया था. स्विस जासूसों ने 9 लाख से ज्यादा लोगों की फाइल्स बनाई हुई थीं. यानी हर बीसवां स्विस नागरिक और हर तीसरा विदेशी नागरिक यहां सर्विलांस पर था. FIS पर आरोप लगा कि उसने देश की सुरक्षा की आड़ में लोगों की जानकारियां जमा कर रखी हैं. इस खुलासे को सीक्रेट फाइल्स स्कैंडल कहा गया.