वाइट हाउस में डोनाल्ड ट्रंप के आने के साथ ही ग्लोबल पावर डायनेमिक्स में उठापटक शुरू हो गई. पुराने अमेरिकी राष्ट्रपतियों से अलग ट्रंप रूस के कुछ करीब दिख रहे हैं. इसका असर ये रहा कि रूस-यूक्रेन जंग रोकने की चर्चा तो हो रही है, लेकिन यूक्रेन खुद इससे बाहर है. नाराज यूक्रेनी लीडर वोलोडिमिर जेलेंस्की ने यूरोपियन आर्मी बनाने की अपील की ताकि अमेरिकी ठंडेपन का असर उनकी सुरक्षा पर न पड़े.
अभी क्या नया हुआ जो चर्चा में है
हाल ही में जर्मनी के म्यूनिख में सिक्योरिटी कॉन्फ्रेंस हुई. यूरोप को उम्मीद थी कि ट्रंप बयान भले ही ऊटपटांग दे रहे हों लेकिन मंच पर वे संभले रहेंगे. यहां अमेरिका की तरफ से उप-राष्ट्रपति जेडी वेंस प्रतिनिधि थे. उन्होंने भी ट्रंप की बात दोहराई. वेंस ने साफ कहा कि NATO ठीक-ठाक काम करे, इसके लिए जरूरी है कि यूरोप में इस सैन्य दल के सदस्य देश भी अपना डिफेंस बजट बढ़ाएं.
वेंस की ये मांग उतनी भी गैर वाजिब नहीं. असल में अमेरिका नाटो का सबसे बड़ा फंडिंग सोर्स है. बीते कुछ सालों में ये बात बार-बार आती रही कि अच्छी अर्थव्यवस्था के बाद भी कुछ देश पैसे खर्चने से बच रहे हैं, जबकि उनकी सुरक्षा का भी सारा भार यूएस पर आ रहा है. यही वजह है कि ट्रंप के पहले भी कई राष्ट्रपतियों ने डिफेंस बजट बढ़ाने को लेकर बात की. हालांकि ज्यादातर यूरोपियन देश इससे कन्नी काटते रहे.
कितना खर्च करता है यूएस
अमेरिका फिलहाल इस गुट के कुल खर्च का लगभग 70 फीसदी हिस्सा देता है. इसका भी कारण है. साल 2014 में सभी नाटो सदस्यों ने मिलकर तय किया था कि वे अपनी जीडीपी का कम से कम 2% डिफेंस पर लगाएंगे. यही वो न्यूनतम खर्च है, जिसे बिल भी कहा जाता है. ज्यादातर देश इस मामले में पीछे हैं, जबकि अमेरिका ने अपनी जीडीपी का सबसे लगभग साढ़े 3 प्रतिशत डिफेंस पर खर्च किया.
ट्रंपियन अमेरिका ने इस बात की धमकी दे डाली है कि बाकी देश अपना हिस्सा न दें तो यूएस अकेले सारा खर्च नहीं उठाएगा. ट्रंप प्रशासन जिस तरह से सख्ती कर रहा है, ये अंदेशा भी है कि नाटो कमजोर होते हुए कहीं खत्म ही न हो जाए. ऐसे में यूरोप को डिफेंस पर काम करने की जरूरत महसूस होना लाजिमी है.
क्यों नाटो से हटने की धमकी डरा रही
नाटो वैसे तो सबकी सहमति से फैसला लेता है लेकिन अमेरिका इनमें सबसे ज्यादा ताकतवर है. उसके पास सैन्य पावर काफी ज्यादा है. इससे भी बड़ी चीज है, उसके पास परमाणु हथियारों का भंडार. यूरोप के सारे देश इसे सुरक्षा का गारंटी मानकर निश्चिंत रहते आए हैं. ऐसे में ट्रंप की धमकी परेशान करने वाली है.
नाटो का आर्टिकल 5 कहता है कि अगर यूरोप या नॉर्थ अमेरिका के किसी भी देश पर हमला हो तो इसे सारे मेंबर्स के खिलाफ हमला माना जाएगा. फिलहाल जैसे हालात हैं, जियो-पॉलिटिकल हिसाब-किताब वैसे ही गड़बड़ाया हुआ है, ऐसे में देशों में बेचैनी लाजिमी है.
अब यहां आता है यूक्रेन का रोल
वो लंबे समय से खुद के लिए नाटो की सदस्यता मांगता रहा. अगर ऐसा होता है तो कीव पर खतरा काफी हद तक कम हो जाता और खुद अमेरिका भी उसे बचाने के लिए मॉस्को से भिड़ जाता. जेलेंस्की की मांग को वाइट हाउस ने न केवल ठुकरा दिया, बल्कि रूस से हो रही जंग में कहीं न कहीं ये इशारा भी दिया कि वो यूक्रेन से उतनी सहानुभूति नहीं रखता. शायद शांति आ भी जाए लेकिन वो यूक्रेन की शर्तों पर नहीं होगी. जेलेंस्की इससे परेशान हैं. तीन सालों बाद आखिरकार उन्होंने ये सुझाया कि क्यों न यूरोप अपनी खुद की सेना बना ले. यूरोप तात्कालिक खतरे में तो नहीं, लेकिन अमेरिकी पॉलिसी शिफ्ट के बीच खतरे से इनकार भी नहीं किया जा सकता.
यूएस और यूरोपियन यूनियन के बीच तनातनी को देखते हुए ही जेलेंस्की ने गरम लोहे पर हथौड़ा मार दिया. मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक, उन्होंने रूस की बढ़ती सैन्य ताकत को दिखाते हुए आशंका जताई कि मॉस्को बेलारूस से होते हुए यूरोप के बाकी देशों के लिए भी खतरा हो सकता है.
दूसरी तरफ यूरोपियन यूनियन सीधे-सीधे कोई बयान देने से बचता दिख रहा है. ईयू की फॉरेन पॉलिसी चीफ काजा कैलास ने कहा कि अलग से आर्मी बनाने की बजाए यूरोप की मौजूदा सेनाएं मिलकर यानी NATO के अंब्रेला तले काम करती रहें. पोलैंड की फॉरेन मिनिस्ट्री ने भी यूरोपियन आर्मी की संभावना को खारिज करते हुए कहा कि अलग से सेना खड़ी करना प्रैक्टिकल नहीं, बल्कि ईयू को बने हुए डिफेंस को और मजबूत करना चाहिए.
यूरोप में कौन से और सैन्य संगठन
फिलहाल वहां तमाम देशों में सैन्य बजट बढ़ाने पर चर्चाएं चल रही हैं. इसके अलावा प्लान बी के नाम पर यूरोप में एक और सैन्य गुट बन चुका, जिसका नाम है- कॉमन सिक्योरिटी एंड डिफेंस पॉलिसी. इसके तहत तहत ईयू के पास लगभग 300,000 सैनिकों की सैन्य क्षमता है, जो इमरजेंसी में अपने सदस्य देश की मदद करेगी. हालांकि नाटो के मुकाबले इसके पास काफी सीमित ताकत और संसाधन हैं.
क्यों अलग सेना बनाने से बच रहा यूरोप
डिफेंस बजट इसकी अकेली वजह नहीं. असल में यूरोपीय संघ के सदस्य देशों के बीच आपस में रार है. ईयू में 25 से ज्यादा देश हैं. हरेक की अपनी प्राथमिकता और सैन्य जरूरत है. कोई किसी से उखड़ा रहता है तो कोई किसी के करीब दिखता है. ऐसे में जॉइंट यूरोपियन आर्मी बनाना मुश्किल ही है. साथ ही इतने दशकों से अमेरिकी लीडरशिप में काम करते हुए ईयू के लिए छुटपुट फैसले करना आसान रहा. अब वो सीधे अमेरिका से बिदककर इतना बड़ा फैसला ले तो इससे रणनीतिक ही नहीं, आर्थिक हित भी चोट खाएंगे. यही वजह है कि जेलेंस्की के कहने के बाद भी कोई देश सीधा स्टेटमेंट नहीं दे रहा.