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आवरण कथाः प्रशांत किशोर ने तैयार कर दिया विपक्ष के लिए ब्लूप्रिंट

दिग्गज चुनावी रणनीतिकार ने एक्सक्लूसिव इंटरव्यू में विपक्ष की ताकत और खामियों का रेशा-रेशा विश्लेषण किया. साथ ही, 2024 के आम चुनाव में भाजपा को चुनौती पेश करने के लिए विपक्ष की खातिर उन्होंने तैयार किया एक लंबा-चौड़ा गेमप्लान.

प्रशांत किशोर
प्रशांत किशोर
अपडेटेड 22 दिसंबर , 2021

इत्तेफाकन चुनाव रणनीतिकार बने प्रशांत किशोर का ट्रैक रिकॉर्ड बड़ा ही कमाल का रहा है. वे नरेंद्र मोदी से लेकर ममता बनर्जी, नीतीश कुमार, राहुल गांधी, एम.के. स्टालिन, जगन मोहन रेड्डी, अरविंद केजरीवाल और कैप्टन अमरिंदर सिंह तक सियासी फलक पर तमाम नेताओं को अपनी सलाहों से नवाज चुके हैं. उन्होंने नौ चुनावों की रणनीति बनाने में मदद की.

इनमें से आठ में उनकी रणनीति ने जीत के झंडे गाड़े. सबसे ताजातरीन मई 2021 में पश्चिम बंगाल का विधानसभा चुनाव था. इसमें ममता बनर्जी भारी बहुमत से जीतकर तीसरे कार्यकाल के लिए फिर मुख्यमंत्री बनीं, बावजूद इसके कि भारतीय जनता पार्टी ने खेल में अपनी हर मुमकिन ताकत झोंक दी थी. तमिलनाडु में स्टालिन ने भी जीत हासिल की. एकमात्र चुनाव जो किशोर हारे, वह 2017 में उत्तर प्रदेश का विधानसभा चुनाव था, जिसमें उन्होंने कांग्रेस को जिताने का जतन किया था.

संयुक्त राष्ट्र के पूर्व जन स्वास्थ्य विशेषज्ञ 2010 में उस समय गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ एक मुलाकात के बाद पोल एडवोकेसी यानी वे चुनावी हिमायत के खतरनाक पेशे में कूद पड़े. भविष्योन्मुखी मुख्यमंत्री को स्वास्थ्य से जुड़े मुद्दों पर सलाह देने के साथ शुरू हुआ सिलसिला मोदी के भाषण लिखकर गुजरात सरकार को ताकतवर खुराक देने के अभियान में बदल गया.

किशोर बताते हैं, ‘‘एक के बाद दूसरी चीजें होती गईं और मैं उनके राजनैतिक अभियानों से जुड़ता गया.’’ उन्होंने 2012 में फिर चुनकर आने के बेहद कामयाब अभियान में मोदी की मदद की और फिर 2014 में प्रधानमंत्री बनने के उनके अभियान से औपचारिक तौर पर जुड़ गए.

किशोर ने चुनाव सलाहकार समूह सिटिजंस फॉर अकाउंटेबल गवर्नेंस (सीएजी) बनाया. मोदी के प्रधानमंत्री पद के अभियान के शिखर दिनों में इसके 13 राज्यों में 1,200 कर्मचारी थे. किशोर को मोदी के यादगार 'चाय पे चर्चा’ अभियान के विचार का श्रेय दिया जाता है. जीत के बाद अपनी भूमिका को लेकर मतभेद के चलते वे मोदी और भाजपा से अलग हो गए.

सीएजी को उन्होंने फिर आइ-पीएसी या इंडियन पोलिटिकल ऐक्शन कमेटी में बदल दिया, जो क्रॉस-पार्टी पोलिटिकल एडवोकेसी ग्रुप है. इसी के मार्फत वे देश के प्रमुख राजनैतिक सलाहकार बनकर उभरे.

किशोर जोर देकर कहते हैं कि अब वे आइ-पीएसी से औपचारिक तौर पर जुड़े नहीं रह गए हैं और इन दिनों एक ऐसा राजनैतिक ताना-बाना बुनने में व्यस्त हैं जो 2024 के आम चुनाव में भाजपा को असरदार चुनौती दे सके. इंडिया टुडे के साथ एक एक्सक्लूसिव इंटरव्यू में किशोर दो घंटे से ज्यादा वक्त बोले और 2024 में भाजपा को विश्वसनीय चुनौती देने के लिए गेमप्लान का खाका तैयार किया. उनसे हुई बातचीत के अंश:

हाल ही में एक ट्वीट में आपने कहा कि ''कांग्रेस जिस विचार और स्थान का प्रतिनिधित्व करती है, वह मजबूत विपक्ष के लिए अत्यंत अहम है. मगर कांग्रेस का नेतृत्व एक व्यक्ति का दैवीय अधिकार नहीं है, खासकर जब पार्टी बीते 10 सालों में 90 फीसद से ज्यादा चुनाव हार चुकी है. विपक्ष का नेतृत्व लोकतांत्रिक ढंग से घोषित होने दिया जाए.’’ साफ है कि आप कांग्रेस नेतृत्व पर हमला कर रहे हैं, पार्टी पर नहीं. वह क्या था जिसने आपको ऐसा करने के लिए उकसाया?

इरादा किसी पर हमला करने का नहीं. हाल की पूरी बहस यह है कि प्रभावी विपक्ष का मतलब कांग्रेस के साथ विपक्ष है या कांग्रेस के बिना विपक्ष है. अपने ट्वीट में बिल्कुल स्पष्ट हूं कि कांग्रेस जिस विचार और स्थान का प्रतिनिधित्व करती है, वह इस देश में प्रभावी विपक्ष के लिए बेहद जरूरी है. मगर कांग्रेस पार्टी, वह विचार, या स्थान, जिसका वह प्रतिनिधित्व करती है, वही नहीं है जो कांग्रेस अपनी मौजूदा बनावट में है.

मौजूदा नेतृत्व के मातहत कांग्रेस ने बहुत अच्छा नहीं किया है. बीते 10 सालों में, 50 से ज्यादा राज्य और आम, दोनों चुनावों में, वह करीब 90 फीसद हारी है. बस कर्नाटक के 2012 के राज्य चुनाव, पंजाब के 2017 के चुनाव और छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और राजस्थान के 2018 के चुनाव छोड़ दें.

यह हमें बताता है कि मौजूदा संदर्भ में पार्टी ने खुद को जिस तरह संगठित किया है, जिस तरह वह चुनावों को देखती है, जिस तरह लोगों को जोड़ती है, उसमें कुछ न कुछ बुनियादी खामी है. मैं यह नहीं कह रहा कि संगठन का नेता कौन होना चाहिए. अकेली कांग्रेस पार्टी ही पूरा विपक्ष नहीं है. दूसरी पार्टियां भी हैं. तो उन्हें तय करने दीजिए कि कौन अगुआई करे, बजाए इसके कि कोई एक कहे कि अमुक अध्यक्ष होना चाहिए. मेरे ट्वीट में गलत क्या है?

कांग्रेस की अगुआई वाले यूपीए (संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन) ने केंद्र में 2004 से 2014 तक राज किया. इस तथ्य को देखते हुए पार्टी कह सकती है कि ये महज सत्ता-विरोधी नतीजों से हुए नुक्सान थे. राहुल गांधी कह सकते हैं, देखो हमने मोदी लहर में भी चार राज्य जीते, यह कांग्रेस के उबरने का संकेत है. तो नेतृत्व पर हमला क्यों?

कांग्रेस का पतन कोई ताजा फेनोमेना नहीं है. आखिरी बार उसने 1984 में यह देश जीता था (जब 404 सीटें जीतीं). 1984 के बाद पार्टी ने एक भी आम चुनाव नहीं जीता. हां, इस बीच उसने 15 साल राज किया, एक बार अल्पमत सरकार के रूप में और दो बार गठबंधन सरकार के रूप में. मगर पार्टी के रूप में उसने देश तो नहीं ही जीता. मसलन, 1989 के आम चुनाव में उसने महज 198 सीटें जीतकर सत्ता गंवाई. मगर 2004 में उसने केवल 145 सीटें जीतकर गठबंधन सरकार बनाई. तो सियासी पार्टी के तौर पर उसका पतन चिरकालिक है.

2009 को छोड़ जब 206 सीटें जीती थीं.
हां, लेकिन तब भी उसके पास अपने दम पर बहुमत नहीं था. उसके प्रदर्शन की बेहतर थाह विधानसभा निर्वाचन क्षेत्र (से ली जा सकती) है. अपने शिखर पर कांग्रेस करीब 3,500 निर्वाचन क्षेत्रों (फिलहाल कुल 4,121 हैं) में नंबर 1 या करीबी नंबर 2 हुआ करती थी. आज यह संख्या घटकर 1,500-1,600 पर आ गई है. उसका ग्राफ गिरता रहा है, खासकर 1984 के बाद. कह मैं यह रहा हूं कि कांग्रेस की गिरावट तात्कालिक परिघटना नहीं है. यह किसी व्यक्ति या प्रसंग से जुड़ी नहीं है. यह ढांचागत है और कांग्रेस के पुनरुत्थान की किसी भी योजना में इन कारकों का ध्यान रखना होगा. वर्ना उन्हें नतीजे नहीं मिलेंगे.

कांग्रेस में कई लोग जोर देकर कहते हैं कि चूंकि आप पार्टी को रणनीति पर सलाह देने वाले थे और यह हो नहीं सका, इसलिए आप बदले की भावना से उन पर हमला कर रहे हैं.

देखिए, यह तो मुमकिन ही नहीं है कि कोई भी बिन बुलाया मेहमान बनकर गांधी परिवार या कांग्रेस नेतृत्व के घर पहुंच जाए और कहे कि जरा मेरी रणनीति जान-सुन लीजिए. उन्होंने मुझसे पूछा और मेरे विचार से जो ठीक लगा, वह मैंने बताया. अब मैंने जो उनके सामने पेश किया, उसे वे मानें या खारिज कर दें, यह उनका अधिकार है.

मुझे भी वह करने का अधिकार है जो सही है. कांग्रेस नेतृत्व के साथ मेरी पिछले दो साल से बातचीत चल रही थी. बंगाल चुनाव के बाद यह कहीं ज्यादा विधिवत, गहन बातचीत थी. मैं पार्टी में लगभग शामिल हो ही गया था. मगर कुछ मुद्दों पर हमें एहसास हुआ कि साथ आना दोनों ही पक्षों के लिए मददगार होने की बजाए नुक्सानदायक होगा. हम ससम्मान अलग हो गए. कोई कटुता थी ही नहीं.

कांग्रेस को क्या करना चाहिए?

कांग्रेस पार्टी के तौर पर जिस तरह ढली है, जिस तरह वह काम करती है और जिस तरह वह फैसले लेती है, उसे बदलने की जरूरत है. आपको एक उदाहरण देता हूं. कांग्रेस के आकार, पैमाने और विरासत वाली राजनैतिक पार्टी पिछले तीन साल से अंतरिम अध्यक्ष या कामचलाऊ व्यवस्था के साथ काम कर रही है. क्या यह स्मार्ट कदम है? सलाह के लिए आपको प्रशांत किशोर या उस लिहाज से किसी की भी जरूरत नहीं. आप जिसे भी चुनें, पूर्णकालिक अध्यक्ष होना चाहिए.

और?

नेतृत्व के मुद्दे के अलावा उसे तेजी से फैसले लेने और स्थानीय नेताओं को ताकतवर बनाने की जरूरत है. तमाम फैसले लेने को केंद्रीयकृत करके दिल्ली में कुछेक व्यक्तियों के हाथ में सीमित रखने की जरूरत नहीं है. भारत इतना बड़ा और इतना विशाल है कि सारा ज्ञान और विशेषज्ञता कुछेक व्यक्तियों में ही समाई हो, यह मुमकिन नहीं. अगर आप कांग्रेस के शिखर वाले दिनों को देखें तो पाएंगे कि दिल्ली में बैठे चंद महासचिव उसे नहीं चला रहे थे.

पार्टी मजबूत थी क्योंकि उसके पास धाकड़ क्षेत्रीय नेता थे. मैं यह नहीं कह रहा कि उसके पास मजबूत नेता नहीं, पर फिलहाल कांग्रेस जिस तरह काम करती है, उसे देखते हुए तो असल ताकत महासचिवों में और जिसे लोग पार्टी हाइकमान कहते हैं उसी में समाई है. बिल्कुल जमीनी स्तर से कांग्रेस के पुनरुत्थान में यही सबसे बड़ा रोड़ा है.

पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री और तृणमूल कांग्रेस की नेता ममता बनर्जी ने हाल में ऐलान किया कि यूपीए मर चुका है और यहां तक कि उन्होंने कांग्रेस नेतृत्व और खासकर राहुल गांधी पर हमला किया, यह कहकर कि नेता इतना सारा समय विदेश में नहीं बिता सकते.

वे ही बता सकती हैं कि उनका आशय क्या था, पर यह तर्कसंगत है क्योंकि यूपीए केंद्र में सरकार बनाने और चलाने के लिए 2004 में बना था. यह उस स्थिति में राजनैतिक गठबंधन बनाने जैसी बात नहीं थी जब आप सरकार में न हों. अगर आप मान भी लें कि यह दोनों स्थितियों के लिए था, तो इसके गठन, इसके कामकाज पर नए सिरे से विचार का समय आ गया है.

क्योंकि इसके घटक बदल गए हैं; इसका हिस्सा रहे कई दल बाहर चले गए हैं, कई जो हिस्सा नहीं थे, इसमें आ गए हैं. डायनैमिक्स बदल गया है. तो आप वही यूपीए नहीं रख सकते जो 2004 में था. आप कहते रहें कि वही संगठन, उन्हीं समर्थकों और उसी कामकाजी तंत्र के साथ मौजूद है. यूपीए और उसके गठन पर नए सिरे से विचार की जरूरत है.

आपने यह भी कहा कि कांग्रेस नेतृत्व किसी का दैवीय अधिकार नहीं है. साफ है कि आप उसके वंशवादी झुकाव का जिक्र कर रहे थे...

नहीं, यह किसी व्यक्ति की ओर निर्देशित नहीं था. मेरी बात सीधी-सादी है. राजनैतिक पार्टी का नेता होने के नाते जब आप उसकी जीत का श्रेय लेते हैं, तो दुनिया भर में लोकतांत्रिक पार्टी की नीति यह है कि जब आप हारते हैं तो पद छोड़ देते हैं और किसी दूसरे को नेतृत्व संभालने देते हैं. आप जितने चाहे मौके ले सकते हैं पर अगर किसी वजह से यह कारगर नहीं हो रहा, तो यही समय है कि आप किसी और को मौका लेने दें.

इस लिहाज से राजनैतिक पार्टी ही क्यों, किसी कॉर्पोरेट, किसी भी संस्था, भारतीय क्रिकेट टीम के कप्तान या किसी भी टीम को लीजिए. अगर नेता लगातार नाकाम हो रहा है, तो क्या यह तर्कसंगत नहीं है कि वह अलग हट जाए और किसी और को वह काम करने दे? वह 'कोई और’ भी कांग्रेस से हो सकता है.

राहुल गांधी हट तो गए थे...

मैं राहुल गांधी की बात नहीं कर रहा हूं, मैं उस नेतृत्व की बात कर रहा हूं जिसके मातहत पिछले 10 साल से चुनाव लड़े जाते रहे हैं. वह नेतृत्व 90 फीसद चुनावों में नाकाम हो चुका है और यह कड़वा सच है. अब जो भी नेता था, नैतिकता और रणनीतिक बोध का तकाजा है कि आप हट जाएं और किसी और को (कमान) संभालने दें.

क्या आप वंशवादी उत्तराधिकार के खिलाफ हैं? 

वंशवाद इस देश की सचाई है. हममें से कइयों को यह दुर्भाग्यपूर्ण लग सकता है, पर यह सच है. डेटा बताता है कि मौजूदा संसद में या पिछली संसदों में 40 से कम उम्र के दो-तिहाई सांसदों का किसी न किसी प्रकार का खानदानी संबंध था. जब चुनावी राजनीति की बात आती है, जिन लोगों की वंशवादी पृष्ठभूमि नहीं है, उनका प्रवेश लगातार मुश्किल होता जा रहा है.

मगर यह लंबे वक्त की चुनौती है जिसका मुकाबला भारतीय लोकतंत्र को करना होगा. यह आदर्श स्थिति नहीं है, पर हम चाहने भर से इससे छुटकारा नहीं पा सकते. हालांकि इसके लिए ज्यादातर कांग्रेस को जिम्मेदार ठहराया जाता है, पर गलती ज्यादा नहीं तो बराबर से दूसरी पार्टियों की भी है. पर ये ऐसी चीजें हैं जो समय के साथ अपने आप ठीक हो जाएंगी.

आप ममता बनर्जी को सलाह दे रहे हैं.

नहीं, मैं ममता बनर्जी को सलाह नहीं दे रहा. मैंने कहा था कि पश्चिम बंगाल के चुनाव के बाद मैं जो कर रहा था, वह छोड़ दूंगा. मैं जिस संगठन आइ-पीएसी (इंडियन पोलिटिकल ऐक्शन कमेटी) में काम किया करता था, अगर आप जाकर देखें, तो बीते छह महीनों में उनके दफ्तरों में बमुश्किल 2-3 बार गया होऊंगा.

मेरी इच्छा है कि हम एक ऐसा राजनैतिक तानाबाना जुड़ता देख सकें जो असरदार हो, जो उस 60 फीसद जगह को मजबूत करता हो जो गद्दीनशीन निजाम के साथ नहीं है. इसी के लिए मैं लोगों से मिलता हूं लेकिन मोटे तौर पर मैं घर बैठा हूं और कुछ नहीं कर रहा.

मैं यह पूछना चाहता था कि ममता बनर्जी अपने भतीजे अभिषेक को तैयार करती मालूम देती हैं. क्या तृणमूल में वंशवादी उत्तराधिकार चल रहा है?

तृणमूल की कमान और कंट्रोल 100 फीसद ममता बनर्जी के हाथ में है. वे खुद बहुत काम करने वाली नेता हैं. ममता बनर्जी ही शो चला रही थीं और चला रही हैं. अभिषेक बनर्जी पार्टी के सबसे महत्वपूर्ण नेताओं में से एक हैं.

अभिषेक बनर्जी की खासियत और योगदान क्या है?

यह तय करना पार्टी का काम है, पर वे तीसरी बार सांसद हैं और मैं मानता हूं कि वे पार्टी को मजबूत करने के लिए काम कर रहे हैं. सार्वजनिक तौर पर घोषित उनकी भूमिका बंगाल के बाहर तृणमूल के विस्तार में मदद करना है.

वाकई ममता बनर्जी अपने पंख फैलाती मालूम दे रही हैं. तृणमूल गोवा, मेघालय और त्रिपुरा में चुनाव लड़ने की योजना बना रही है. क्या तृणमूल नई कांग्रेस बनने की कोशिश कर रही है?

यह तो समय ही बताएगा पर तृणमूल के तथाकथित विस्तार को कुछ ज्यादा ही तूल दिया जा रहा है. तथ्य यह है कि इन राज्यों से लोकसभा की महज 4-5 सीटें आती हैं. बार-बार कहा जाता है कि कांग्रेस ही अकेली विपक्षी ताकत है जो राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा का मुकाबला कर रही है लेकिन डेटा दूसरी ही तस्वीर दिखाता है.

भाजपा के खिलाफ कांग्रेस का स्ट्राइक रेट 2019 के लोकसभा चुनाव  में महज 4 फीसद और 2014 में 6 फीसद था. जिन पर कांग्रेस ने भाजपा से सीधी लड़ाई लड़ी, ऐसी हर 100 सीटों में से उसने केवल चार जीतीं. उसकी जीत का बड़ा हिस्सा तमिलनाडु, केरल, पंजाब में था, जहां उसका सामना भाजपा से नहीं था. हां, वह भाजपा से लड़ रही है पर जीत कुछ नहीं रही. तो अगर कोई और विपक्षी पार्टी 15-20 सीटों के लिए कोशिश कर रही है तो इसमें गलत क्या है?

ममता बनर्जी का गेमप्लान क्या है?

यह तो आपको उन्हीं से पूछना पड़ेगा. मुझे लगता है कि अगर तृणमूल, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) और वाइएसआर कांग्रेस या वे जिनकी जड़ें कांग्रेस के विचार, जगह और विचारधारा से आई हैं, साथ मिलकर कोशिश करें तो वे कांग्रेस के मौजूदा स्वरूप का संभावित विकल्प बनकर उभर सकती हैं.

यह कांग्रेस के लिए नई परिघटना नहीं है. उनके लंबे इतिहास में यह कम से कम 3-4 बार हो चुका है. 1969 में जब इंदिरा गांधी ने कांग्रेस (आइ) बनाई, यह ज्यादा बड़ी कांग्रेस बनकर उभरी. सैद्धांतिक तौर पर यह संभावना मौजूद है कि कोई भी नई कांग्रेस बना सकता है. अगर वह स्पेस ज्यादा बड़ा हो जाता है, तो आप मौजूदा कांग्रेस में बदलाव आते देखेंगे.

हमारी समझ से ममता ऐसी विपक्षी एकता चाहेंगी जिसमें जो भी क्षेत्रीय पार्टी जहां मजबूत है, मसलन तमिलनाडु में स्टालिन, आंध्र में जगन रेड्डी, तेलंगाना में केसीआर या फिर महाराष्ट्र में शरद पवार, वह उस राज्य में बेरोकटोक लड़े. वे यह मानती लगती हैं कि इन इलाकों का कुल योग इतना बड़ा और संपूर्ण हो सकता है कि भाजपा को हरा सके.

यह पूरी की पूरी धारणा कि हर कोई साथ आकर भाजपा को हराने के लिए बहुत मजबूत विपक्ष बना देगा, सफल न होगी. असम में इस साल राज्य के चुनाव में एक महागठबंधन था, वह हार गया. हम यूपी में यही देख चुके हैं, जहां बसपा, सपा और दूसरी पार्टियां 2017 में साथ आईं और हार गईं. तो हमें अतीत से सीखना पड़ेगा.

महज कई पार्टियों का एक साथ आना मौजूदा भाजपा के खिलाफ कामयाबी के लिए पक्का उपाय नहीं है. उसके लिए आपको एकजुट करने वाले चेहरे की, नैरेटिव की और फिर समीकरण की दरकार होगी ताकि लोगों को एक संयुक्त विपक्ष दिखाई दे.

परिदृश्य पर क्या आपको ऐसा कोई नेता दिखाई देता है?

नेता खोजने की यह कवायद गैरजरूरी है. फर्ज कीजिए कि हम यह इंटरव्यू 1972 में कर रहे हैं. अपनी पूरी अक्लमंदी से क्या कोई यह भविष्यवाणी कर सकता था कि जेपी (जयप्रकाश नारायण) नाम का एक नेता विपक्ष को एकजुट करेगा और उसका चेहरा बन जाएगा? अगर हम यह बातचीत 1986 में कर रहे होते, तो भी क्या यह कहा जा सकता था कि वी.पी. सिंह चेहरा बन जाएंगे?

2010 में नरेंद्र मोदी के बारे में किसने सोचा था? मोदी सरकार के लिए तीन बड़े यू-टर्न देखिए. पहला जमीन अधिग्रहण विधेयक था. क्या हम वह चेहरा याद कर सकते हैं जिसने उस विरोध की अगुआई की थी? नहीं. दूसरा नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिजंस (एनआरसी) था, जिसे रद्द नहीं किया गया है, लेकिन उस पर कदम आगे नहीं बढ़े हैं. क्या हम किसी नेता विशेष को याद कर सकते हैं जिसकी वजह से सरकार कदम पीछे खींचने को मजबूर हुई?

हाल में सरकार ने कृषि कानून रद्द कर दिए, लेकिन क्या हम किसी एक व्यक्ति को जानते हैं जिसे इसका श्रेय दिया जा सके? मैं कह यह रहा हूं कि अगर आपके पास सही मुद्दे हैं, तो आप नैरेटिव खड़ा कीजिए, चेहरा उभर आएगा. तो यह पूरी बहस कि पहले चेहरे की पहचान की जाए और तब तक आपके पास कोई चैलेंजर नहीं हो सकता, आगे बढऩे का सही तरीका नहीं है.

क्या इन स्वत:स्फूर्त लेकिन थोड़े-बहुत नेताविहीन विरोध प्रदर्शनों का एक संदेश विपक्ष के लिए यह भी है कि लोगों का उनमें भरोसा नहीं है या उन्होंने उन्हें निराश किया है?

मैं इसे जरूरी तौर पर विपक्ष की नाकामी की तरह नहीं देखूंगा, लेकिन लोग अपने लोकतांत्रिक इंटरफेस यानी राजनैतिक दलों पर भरोसा करने या उन्हें यह काम करने देने की बजाए मामले अपने हाथ में ले रहे हैं. ज्यादा अहम वे कुछ चीजें हैं जो इन विरोध प्रदर्शनों में साझा थीं. एक यही कि लोग इनकी अगुआई कर रहे थे.

दूसरी वह दृढ़ता और जिद है जिससे वे लड़ाई जीते. यह जीत एक दिन में नहीं मिली. किसान आंदोलन तो साल भर चला. तो अगर आपमें इच्छाशक्ति है, दमखम है और टिके रहने का माद्दा है तो यह होगा. यह नहीं कि एक ट्वीट करें, अगले दिन लुटियंस की दिल्ली में उस पर एक प्रेस कॉन्फ्रेंस कर दें, और कुछ कैंडल मार्च निकाल दें और उम्मीद करें कि सरकार घुटनों पर आ जाएगी. कैसे होगा यह!

● लखीमपुर खीरी में कांग्रेस के किसान आंदोलन के बाद आपने कहा कि आसान और फौरी समाधान काम नहीं आएंगे.

देश के तौर पर हम टी20 मोड में आ गए लगते हैं. सब कुछ एक दिन में तय होना है, हर चीज पर हां या नहीं होना है, व्हाट्सऐप यूनिवर्सिटी जहां सब कुछ एक लाइन में कहा जाना चाहिए. बारीक और ब्योरेवार तर्क-वितर्क की कोई जगह ही नहीं है. आप या तो मोदी भक्त हैं या राहुल गांधी भक्त. यह सोच विपक्ष को चोट पहुंचाती और कमजोर करती है. कुछ चुनौतियां बड़ी और जटिल हैं और आपको तफसील से समझना होता है, ऐसे तर्क और स्थापनाएं करनी होती हैं जिनकी कई परतें हैं, वे महज बाइनरी नहीं.

फिर कांग्रेस पर लौटें, क्या आप कह रहे हैं कि राहुल गांधी पराजित सेनानायक हैं और उन्हें बाहर निकल जाना चाहिए?

हम उन अकेले को पराजित सेनानायक नहीं कह सकते, क्योंकि हर लिहाज से नेतृत्व मिला-जुला है जिसमें मौजूदा अध्यक्ष और वे इसे चला रहे हैं. मुझे इसे सही नजरिए से रखने दीजिए. मैं सोनिया गांधी के मातहत कांग्रेस का रिकॉर्ड इसलिए देखता हूं क्योंकि वे 25 साल इसकी प्रमुख रहने के साथ सबसे लंबे समय रहने वाली कांग्रेस अध्यक्ष हैं.

उनका चुनावी स्ट्राइक रेट कोई 31-32 के आसपास आता है, यानी कांग्रेस ने जितने चुनाव लड़े उनके एक-तिहाई. बतौर अध्यक्ष राहुल गांधी का स्ट्राइक रेट थोड़ा बेहतर करीब 34-35 फीसद था. दोनों का कोई बहुत अच्छा ट्रैक रिकॉर्ड नहीं रहा है. मगर 2019 से, जब किसी को पता नहीं कि नेता कौन है, स्ट्राइक रेट घटकर 10 फीसद या उससे भी नीचे आ गया है. आपको इसे भी देखने की जरूरत है.

● आपको लगता है कि गांधी परिवार को अब जाना चाहिए?
नहीं, मैं यह नहीं कह रहा. जरूरत इसकी संरचना बदलने की है. मुमकिन है आप अपनी जगह सही हों पर कभी-कभी बनावट का विन्यास या व्यवस्था बदलकर आप बेहतर काम कर सकते हैं, क्योंकि मौजूदा बनावट निश्चित रूप से कारगर नहीं. मौजूदा बनावट और संगठन के स्वरूप को देखते हुए अगले कुछ सालों में भाजपा के खिलाफ इसके कोई बड़ी चुनावी कामयाबी हासिल करने की संभावना कम ही है. मैं कांग्रेस ही नहीं, व्यापक यूपीए की बनावट की बात भी कर रहा हूं.

नेतृत्व का सवाल अलग रख दें, तब भी यह तथ्य तो है कि कांग्रेस बड़ी विपक्षी ताकत है. क्या आप किसी भी विपक्षी गठबंधन को ग्रैंड ओल्ड पार्टी को अनदेखा करने की सलाह देंगे?

कांग्रेस से जिस विचार और स्पेस का प्रतिनिधित्व करने की उम्मीद की जाती थी और जिस पर वह काबिज है, जमीन पर वह अब भी मजबूत है. सवाल यह है कि आप इसे साथ लाकर चुनावी कामयाबी में कैसे बदलते हैं. मेरा तो पक्के तौर पर मानना है कि राष्ट्रीय स्तर पर किसी भी तीसरी पार्टी के लिए सही मायने में भाजपा को चुनौती देने की स्थिति में आ पाने की कोई गुंजाइश नहीं, जब तक कि आप वह जगह नहीं लेते जिसका प्रतिनिधित्व कांग्रेस करती है. पर मैं यह भी कह रहा हूं कि आपको भिन्न समीकरण की जरूरत है.

बार-बार आप आखिर कांग्रेस की कौन-सी स्पेस की बात कर रहे हैं?

कांग्रेस की जगह मोटे तौर पर 40-45 फीसद है. भारत के मतदाताओं को देखें, तो आप पाएंगे कि भाजपा सही मायने में करीब 40 फीसद को अपने डिनॉमिनेटर के रूप में देख सकती है, क्योंकि वह 30 से 37 फीसद के बीच वोट हासिल करती रही है. 20 फीसद वोट कई छोटे चैलेंजर क्षेत्रीय दलों को चले जाते हैं. तो कांग्रेस के लिए जगह 40 फीसद तक सिकुड़ गई है. मैं वोटों की नहीं, डिनॉमिनेटर की बात कर रहा हूं.

तो कांग्रेस अगर भाजपा की मुख्य चैलेंजर बनना चाहती है तो उसे उस बाकी 60 फीसद में से 40 फीसद हासिल करना होगा, जो भाजपा को वोट नहीं कर रहा. कांग्रेस की वोट हिस्सेदारी 19 फीसद है—यानी उसे उस 40 फीसद का आधे से भी कम हासिल है. तो समीकरण और रणनीति में बदलाव और बेहतर कोशिशों से इसे 25-30 फीसद तक बढ़ाया जा सकता है और यह बिल्कुल किया जा सकता है.
      
कांग्रेस आखिर किसका प्रतिनिधित्व करती है?

इस 60 फीसद स्पेस के लिहाज से कांग्रेस अभी भी देश में शासन चलाने की खातिर सबसे उपयुक्त पार्टी है. आज भारत जो कुछ भी है उसमें उसका योगदान है, उसे संविधान और उन मूल्यों के रक्षक के रूप में देखा गया जिसकी कल्पना हमारे देश के संस्थापकों ने की थी. इसलिए, यह सब बहुत बड़ा फायदा है, और इसी पर आगे बढऩा चाहिए. आगे आने वाली किसी भी दूसरी पार्टी के लिए वह 19 फीसद वोट बड़ा बोनस होगा. पर कांग्रेस के लिए यह बेहद नकारात्मक है क्योंकि आप उस 40 फीसद से नीचे आ रहे हैं जिसका कि आपके लिए अनुमान लगाया गया है.

● और विचारधारा के संदर्भ में?

बहुत व्यापक संदर्भ में, मुझे लगता है कि कांग्रेस को अभी भी बुनियादी तौर पर मध्य और वाम के बीच तथा भाजपा को मध्य और दक्षिण के बीच की विचारधारा वाली पार्टी के तौर पर देखा जाता है. मैं इसी सेंटर टु लेफ्ट के बीच की जगह की बात कर रहा हूं. एक देश में जहां 60 फीसद से ज्यादा आबादी रोजाना 100 रुपए भी नहीं कमा पाती, वहां यह बहुत बड़ी जगह है. यही वह जगह है जहां कांग्रेस को महत्वपूर्ण आवाज और खिलाड़ी माना जाता है. इसलिए कांग्रेस के मर जाने की कामना आप नहीं कर सकते या उसे पूरी तरह खत्म नहीं कर सकते.

आपने हाल ही में कहा था कि भाजपा बहुत ज्यादा मजबूत ताकत है और उसे आसानी से नहीं हटाया जा सकता. क्यों?

राजनैतिक ताकत के रूप में भाजपा को आप बस चाहकर नहीं हटा सकते. पहले आपको देखना होगा कि उन्हें यहां तक कौन-सी चीज लेकर आई है. पिछले 50-60 वर्षों में कई पीढिय़ों के किए गए कामों के नतीजतन बना पुराना संगठन है जो जनसंघ और उससे भी पहले शुरू हुआ था. अब, 60-70 वर्षों के संघर्ष के बाद वे 30-35 फीसद वोट तक पहुंचे हैं. मुमकिन है वे एक या कि कई चुनाव हार जाएं. पर अगर अखिल भारतीय स्तर पर 30 फीसद वोट पाने वाला विशाल संगठन एक बार खड़ा हो चुका है तो वह राजनैतिक संगठन आपके चाहने भर से दूर नहीं बिठाया जा सकता.

आपने यह भी कहा था कि भाजपा दशकों तक भारतीय राजनीति का केंद्र बनी रहेगी.

मैं यह नहीं कह रहा कि भाजपा अगले 30-40 वर्षों तक राज करेगी, लेकिन हां, चाहे वे चुनाव जीतें या हारें, अगले 30-40 वर्षों तक वे भारतीय राजनीति की धुरी बने रहेंगे. ठीक उसी तरह जिस तरह कांग्रेस रही है. 1967 के बाद कांग्रेस को कई चुनावों में मुंह की खानी पड़ी, लेकिन भारतीय राजनीति उसी के इर्द-गिर्द (घूमती) रही क्योंकि अखिल भारतीय स्तर पर उसके पास 30-35 फीसद वोट थे.

ठीक यही बात भाजपा पर लागू होती है. कई सारे लोग सोचते हैं कि यह बस वक्त का मामला है और भाजपा का दौर भी खत्म हो जाएगा, वे बहुत बड़ी गलती कर रहे हैं. अगर आप भाजपा के खिलाफ हैं, तो आपको एक लंबी सियासी लड़ाई के लिए तैयार रहना होगा, लोगों को यह समझाने के लिए कि आप उन्हें भाजपा से बेहतर विकल्प दे सकते हैं. यह जल्दबाजी में नहीं किया जा सकता; इसका कोई फौरी हल नहीं है.

तृणमूल के हाथों भाजपा की हार का सबसे बड़ा पाठ क्या था?

यह कि आप रक्षात्मक नहीं रह सकते, आप बहुत देर से अभियान नहीं शुरू कर सकते, और यह कि आप मुतमइन नहीं रह सकते. 2019 के लोकसभा चुनाव में जो हुआ, तृणमूल को उसे स्वीकारना पड़ा क्योंकि वह शायद यह मानने को तैयार न थी कि भाजपा बंगाल में मजबूत ताकत बन गई है. अगर आप प्रतिद्वंद्वी को हराने के लिए पूरी तरह तैयार हैं, तो उसकी ताकत को स्वीकार करने में कोई समस्या न होगी. आपको पता रहेगा कि उसे किस तरह से हराना है.

ममता बनर्जी ने भाजपा के ध्रुवीकरण के दांव का मुकाबला कैसे किया?

ध्रुवीकरण एक पहलू था और इसी वजह से भाजपा ने पश्चिम बंगाल चुनाव में 38 फीसद वोट हासिल किए. इसमें से बड़ा हिस्सा धार्मिक आधार पर हुए ध्रुवीकरण से आया. लेकिन ध्रुवीकरण की भी अपनी सीमाएं हैं. हमने आंकड़ों पर नजर डाली और पाया कि ध्रुवीकरण 50-55 फीसद तक सीमित है. धार्मिक आधार पर किसी भी समुदाय का ध्रुवीकरण आप 50-55 फीसद से ज्यादा नहीं कर सकते. बंगाल में मोटे तौर पर ऐसा ही हुआ.

तब क्या आप कहेंगे कि हिंदुत्व की अपनी सीमाएं हैं, जिसे भाजपा और आरएसएस एक चुनावी रणनीति के रूप में प्रचारित कर रहे हैं?

दरअसल, किसी भी रणनीति की अपनी सीमाएं होती हैं. उस हद तक, हिंदुत्व की भी अपनी सीमाएं हैं. क्योंकि हिंदू कोई एक ही जैसे लोगों का धार्मिक समुदाय तो है नहीं. भले तमाम लोग ऐसा ही मानते हों. दूसरी बात, मैं मानता हूं कि राष्ट्रीय स्तर पर 50 फीसद हिंदू ऐसे हैं जो हिंदुत्व के आधार पर भाजपा को वोट नहीं देना चाहते.

इसकी पुष्टि आंकड़े भी करते हैं जो बताते हैं कि भाजपा को वोट देने वाले हर हिंदू पर एक अन्य हिंदू भी होगा जो उसे वोट नहीं करेगा. भाजपा को सियासी चुनौती देने वाली कोई भी पार्टी उसी दूसरी आधी हिंदू आबादी पर नजर गड़ाएगी और चुनावी रूप से भाजपा से मुकाबला करने के लिए उसे पक्ष में करने की कोशिश करेगी.

फरवरी में उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव होंगे. वहां ध्रुवीकरण किस तरह काम करेगा, खासकर जब मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ कट्टर हिंदुत्व के एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए जाने जाते हैं?

ध्रुवीकरण का चेहरा चाहे जो भी हो या ध्रुवीकरण की घटना कोई भी हो, इसकी सीमाएं होंगी ही. मैं कोई अनुमान नहीं लगाना चाहता, इसलिए इस बारे में बात करने की बजाए कि यूपी में चुनावी नतीजे क्या होंगे, मैं एक ठोस बिंदु सामने रखना चाहता हूं: यह जरूरी नहीं कि यूपी चुनाव के नतीजों में यह झलक मिले कि 2024 के आम चुनावों में क्या होगा. कई सारे लोग इसी जाल में फंस रहे हैं कि यूपी के नतीजे ही 2024 का रुख तय करेंगे.

मैं आंकड़ों से इसे गलत साबित करूंगा. 2012 में भाजपा यूपी में तीसरे या चौथे नंबर की पार्टी थी. समाजवादी पार्टी ने वह चुनाव जीत लिया था, लेकिन 2014 के आम चुनाव में उसका कोई असर नहीं पड़ा. अगर वह सच था तो आप यह क्यों कह रहे हैं कि 2022 में जो होगा, वहीं 2024 में भी होगा? 2024 के पहले कई दूसरे राज्यों में भी चुनाव होने हैं.

चुनाव नतीजे तय करने में जाति आधारित राजनीति कितनी महत्वपूर्ण है?

जाति बहुत महत्वपूर्ण है, पर मतदान के समय जाति को कितनी तवज्जो मिलती है, यह बहस का विषय है. मेरी समझ से, कोई पॉपुलर चेहरा या वैसा कोई मुद्दा या फिर कोई भावनात्मक पहलू न होने की स्थिति में ही जाति भूमिका निभाती है. कथित तौर पर लहर वाले चुनावों में, मसलन 1984 में इंदिराजी की मौत के बाद की परिस्थितियों में, जाति के बंधन टूट गए थे.

2014 में नरेंद्र मोदी ने भारत की सोच को साध लिया और जातिगत बंधन तोड़ दिए थे. इसी तरह से वी.पी. सिंह के समय राजा नहीं फकीर है, देश की तकदीर है या भ्रष्टाचार-विरोधी योद्धा के रूप में नैरेटिव गढ़े जाने पर भी जातिगत कारक बेअसर हो गए थे. किसी लोकप्रिय चेहरे या नैरेटिव या फिर घटना की गैर-मौजूदगी में लोग अपनी पहचान तक सिमट जाते हैं. चलो कुछ नहीं तो अपनी जाति वाले को (वोट) दे देते हैं.

तो क्या सरकार के प्रदर्शन का असर मतदाताओं के फैसले पर नहीं पड़ता? हाल ही में हमने राज्यों में कई सरकारों को फिर से चुने जाते देखा है.

इस सवाल का जवाब मुश्किल है. एक संकेत तो यह है कि जो राज्य सरकार सत्ता में आने के बाद अपने राजनैतिक संगठन में निवेश करती है, उसके दोबारा चुने जाने की संभावना ज्यादा होती है. ओडिशा में नवीन बाबू, पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी, तेलंगाना में केसीआर या फिर भाजपा की सभी सरकारों को देख लें.

अगर सभी सरकारों का प्रदर्शन एक जैसा है, तो उसके फिर से चुने की संभावना ज्यादा है जिसने अपनी पार्टी के बुनियादी ढांचे पर अच्छा-खासा काम किया है. यह किसी पारंपरिक कांग्रेस सरकार से उलट है जो पार्टी के संगठन की उपेक्षा करती है या उसे पीछे की सीट देती है. इसलिए, यह एक महत्वपूर्ण फर्क हो सकता है. अगर आप कांग्रेस सरकार के फिर से चुने जाने की संभावना को ग्राफ पर देखें, तो यह भाजपा की अगुआई वाली सरकार की तुलना में लगभग एक-तिहाई कम है.

भाजपा के खिलाफ ताकतवर चुनौती पेश करने के लिए विपक्ष को क्या करना चाहिए?

चार पहलुओं को ठीक करना होगा: कोई समन्वयकारी चेहरा होना चाहिए, कोई नैरेटिव हो, कोई युन्न्ति होनी चाहिए, जैसा कि एकजुट विपक्ष या कोई भी राजनैतिक दल होता है, और उसके साथ-साथ मशीनरी होनी चाहिए. इसमें आपको एक चीज और जोडऩी होगी, वह यह कि भाजपा का मुकाबला करने के लिए उसे खासा चपल और चुस्त-दुरुस्त होना होगा. चाहे वह जमीनी स्तर पर संदेश फैलाना हो या सियासी दांव-पेच हों. अगर आपने ये पहलू दुरुस्त कर लिए तो आप भाजपा को खिलाफ चुनौती पेश कर सकते हैं.

क्या 2024 तक ऐसा करने के लिए विपक्ष के पास पर्याप्त समय है?

दो साल कम वक्त नहीं होता, इसलिए मैं सब कुछ 2024 पर नहीं छोड़ूंगा. लेकिन अगर आपको वाकई भाजपा का मुकाबला करना है, तो आपके पास 7-10 साल का एक दीर्घकालिक नजरिया होना चाहिए. क्योंकि आप उन्हें 2024 में एक साथ आकर भले हरा दें लेकिन उस जमीन पर बने रहने के लिए आपको उन चार चीजों को लगातार मजबूत करना होगा जिन्हें मैंने रेखांकित किया है.

भाजपा की क्या कमजोरियां हैं?

जहां कहीं भी उन्हें कठिन सियासी चुनौती का सामना करना पड़ा, वे विरोधियों को अनिवार्य रूप से रोक पाने में नाकाम रहे हैं, कांग्रेस को भले उन्होंने आसानी से शिकस्त दी है. कांग्रेस के खिलाफ उनकी कामयाबी का दर 95 फीसद है. लेकिन दूसरों के खिलाफ यह बहुत अच्छा नहीं रहा है. पूर्वी और दक्षिणी राज्यों को ही देख लें—बिहार, पश्चिम बंगाल, ओडिशा, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, तमिलनाडु और केरल—जहां लोकसभा की करीब 200 सीटें हैं.

उन सभी जगहों पर भाजपा केवल 54 सीटों तक सिमटी हुई है. इसके पास बिहार में 17 सीटें, पश्चिम बंगाल में 18, ओडिशा में 12, तेलंगाना में चार, तमिलनाडु और आंध्र में में एक भी सीट नहीं है. यह बताता है कि इन क्षेत्रों में मजबूत और एकजुट विपक्ष नहीं होने के बावजूद करीब 40 फीसद लोकसभा सीटों में वह कामयाबी हासिल नहीं कर पाई. पिछले 10 वर्षों में वहां व्यक्तिगत पार्टियां और उनके नेता भाजपा के राजनैतिक हमलों का सामना करने में सक्षम रहे हैं.

पश्चिम और उत्तर भारत में भाजपा एक ताकत है—अगर आप कर्नाटक से कश्मीर तक एक सीधी रेखा खींचते हैं और गुजरात समेत पश्चिम की ओर देखते हैं, तो यह वह क्षेत्र है जहां भाजपा सचमुच सब कुछ जीत रही है. लेकिन इस इलाके में किसी भी वजह से अगर वे 100 सीटें हार गए तो यह उन्हें काफी कमजोर कर देगा, खासकर पूर्व और दक्षिण में उनकी मौजूदा अनुपस्थिति को देखते हुए.

● इसकी खूबियां क्या-क्या हैं?

कई हैं, लेकिन हिंदुत्व इनकी धुरी बनी हुई है. उन्होंने दो अहम चीजें जोड़ी हैं. एक है आक्रामक राष्ट्रवाद. यह उनके जखीरे का नया हथियार है. इसलिए अगर आप उनकी आलोचना करते हैं, तो वे आपको भारत विरोधी बता देंगे. यह भी एक वजह हो सकती है कि आखिर क्यों हमें महंगाई और बेरोजगारी को लेकर व्यापक असंतोष नहीं नजर आ रहा.

नोटबंदी के बाद, हमने टीवी पर देखा कि लोग लंबी कतारों में खड़े हैं, लेकिन यह कहते हुए खुश हैं कि वे मजबूत और नए भारत के निर्माण के लिए ऐसा कर रहे हैं. या फिर महंगाई को ही लें, 50 फीसद ज्यादा कीमत अदा करके भी लोग यह कहते हुए खुश हैं कि ऐसे वे राष्ट्र-निर्माण या राष्ट्र के लिए कर रहे हैं, और इसके लिए कुछ बलिदान तो देना ही होगा. लेकिन हमें उनकी तीसरी ताकत को कमतर नहीं आंकना चाहिए.

वह है घर-घर के स्तर पर उनका डिलिवरी सिस्टम. चाहे वह शौचालय हों, उज्ज्वला (खाना पकाने के लिए सब्सिडी वाली गैस) या फिर हर घर नल का जल योजना. आक्रामक राष्ट्रवाद के साथ कल्याणकारी नीति को मिलाकर भाजपा ने अचूक अस्त्र विकसित किया है. इन तीन कारकों में से दो में जब तक विपक्ष सेंध लगाने में सक्षम नहीं होता तब तक वह राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा को नहीं हरा सकता.

कल्याणकारी नीति के मामले में, भाजपा जो दे रही है, आपकी पेशकश उससे बेहतर होनी चाहिए. वहीं आक्रामक राष्ट्रवाद के मामले में आपके पास भाजपा से ज्यादा भरोसेमंद नैरेटिव होना चाहिए. हिंदुत्व के मोर्चे पर, उग्रपंथी और रुढि़वादी भले भाजपा के साथ हों, उदारवादी आपके साथ हैं. यह सब करके ही विपक्ष भाजपा को चुनौती दे सकता है.

2014 से पहले आपने चुनावी रणनीति पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को सलाह दी थी. आपके अनुसार मोदी की यूएसपी क्या है?

उनकी कई ताकतें हैं. पहली बात यह कि उनके पास अनुभव का अनूठा मिश्रण है. अगर आप पिछले 50 वर्षों की उनकी यात्रा को देखेंगे तो उन्होंने 15 साल आरएसएस प्रचारक के रूप में बिताए, जहां जनता को समझने, बातचीत करने और जुड़ने का बेहतरीन मौका उनके पास था. फिर, उन्होंने 10-15 साल तक भाजपा में राजनैतिक संगठनकर्ता के रूप में काम किया.

वहां उन्होंने राजनैतिक व्यवस्था को उस तरह तैयार करने और उसका प्रबंधन करने का अनुभव हासिल किया जैसा कि उसे होना चाहिए. उसके बाद, 13 वर्षों तक वे मुख्यमंत्री रहे, और आखिरकार सात साल से प्रधानमंत्री हैं. इस 45 साल के उनके अनुभव का मिश्रण देश में अनूठा है.

यह उन्हें यह जानने में सक्षम बनाता है कि आखिर लोग क्या चाहते हैं. वे बड़े धैर्य के साथ सुनते भी हैं. किसी भी मुद्दे पर ज्यादा से ज्यादा लोगों को सुनने का गुण उनमें है. इस वजह से शायद वे हर दृष्टिकोण को जान लेने में कामयाब हो जाते हैं. उन्हें निर्णायक के रूप में देखा जाता है, लेकिन धैर्यवान होने के उनके गुण को मैं उससे ऊपर रखूंगा.

प्रधानमंत्री ने तीनों कृषि कानून वापस क्यों लिए? आपको क्या लगता है?
इस पर मेरी बिल्कुल अलहदा राय है, जो मोदी के इस चरित्र के बारे में बताती है कि आखिर वे राजनैतिक मसलों को कैसे सुलझाते हैं. व्यक्तियों या पार्टियों के साथ उनका बर्ताव काफी सख्त होता है, लेकिन जनता के खिलाफ वे काफी लचीले होते हैं. आप उनके तीन यूटर्न को देखें; अगर आप उन्हें श्रेय देना चाहते हैं, उन मुद्दों पर पीछे हटने के लिए जिन पर उनकी सरकार जनता के खिलाफ नजर आती है, तो वे काफी विनम्र रहते हैं.

लेकिन, ठीक उसी समय वे काफी सावधानी बरतते हैं कि कोई और उसका श्रेय न लूट ले. उन्होंने हर उस चीज को बेअसर कर दिया जो उनके लिए नकारात्मक रूप से बड़ा मसला बन सकता था. साथ ही साथ वे इस बात से भी वाकिफ हैं कि किसी अन्य व्यक्ति या पार्टी को इसका राजनैतिक फायदा नहीं हुआ क्योंकि इन आंदोलनों का नेतृत्व बिखरा हुआ था.

आपने कई राजनेताओं को सलाह दी है. कामयाब नेताओं की आखिर क्या विशेषताएं होती हैं?

आपको बुद्धिमान होना चाहिए, आप चरित्रवान हों और आपमें साहस होना चाहिए. मैं इसे और विस्तार से समझाता हूं. आप कम बुद्धिमान हो सकते हैं, लेकिन आपके पास बुद्धिमान सलाहकार होने चाहिए ताकि आप उस कमी को पूरी कर सकें. राजनीति में चरित्र काफी महत्वपूर्ण होता है. साहस के बगैर आप कुछ भी नहीं कर सकते, इसका कोई विकल्प नहीं है. आपमें परखे जाने, टिप्पणी और तारीफ के साथ-साथ आलोचना सुनने का साहस होना चाहिए—साहस एक अनोखी चीज है जो नेता को तैयार करती है.

और आखिर में रणनीतिकार के रूप में आपकी कामयाबी का क्या मंत्र है?

एक बात तो यह कि हमें बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया गया है. आप चाहे कितने भी होशियार क्यों न हों, आप किसी को हार या जीत नहीं दिला सकते. पार्टियां या नेता अपने प्रदर्शन, अपने पिछले कामकाज और जनता को की गई पेशकश के अलावा इस आधार पर जीतती-हारती हैं कि लोग उनमें क्या देखते हैं. हाशिये पर मौजूद हम जैसे लोग बस आपको खुद को व्यवस्थित करने और आपकी चीजों को बेहतर बनाने में मदद कर सकते हैं.

इन सीमाओं के साथ, संक्षेप में कहें तो हमारा काम अधिक से अधिक लोगों को सुनना, उसके इर्द-गिर्द तर्कसंगत नैरेटिव गढऩा और नेता को उसे अपने नैरेटिव या प्राथमिकता के आधार पर स्वीकार करने देना है. हम लोग इस कहावत को सुनते हुए बड़े हुए हैं कि राजा भेष बदलकर निकले तो उन्हें पता चला.

इसका लब्बोलुबाब सदियों से चली आ रही यह धारणा है कि राजा के लिए सबसे कठिन काम यह जानना है कि आखिर जमीनी स्तर पर जनता क्या कह रही है. हम बस बढ़ा-चढ़ा कर पेश किए गए कुशल श्रोता हैं, हम जो सुनते हैं उसका तर्कसंगत अर्थ निकाल सकते हैं और सुसंगत रणनीतियां बना सकते हैं.

कांग्रेस को पार्टी के रूप में अपने मौजूदा ढांचे, कार्यशैली और फैसले लेने के तौर-तरीके में बदलाव लाने की जरूरत है. इतने लंबे-चौड़े फैलाव वाली और इतनी पुरानी विरासत वाली सियासी पार्टी तीन साल तक अंतरिम अध्यक्ष या अस्थायी इंतजाम के साथ भला कैसे चलती रह सकती है!

2019 में भाजपा से सीधी लड़ाई वाली हर सौ सीटों में से चार पर ही जीत हासिल कर पाई थी कांग्रेस

भारत के मतदाताओं में 40 % भाजपा की हद में हैं न्न्योंकि 35-37 % तो उसका वोट शेयर है ही; बाकी में 20 फीसद दूसरे चैलेंजर्स को जाता है. भाजपा को चैलेंज करने के लिए कांग्रेस को बाकी के 60 % में से 40 % अपने पास लाने होंगे. अभी हैं सिर्फ 19 %

सोनिया और राहुल गांधी के कांग्रेस अध्यक्ष रहते उनका स्ट्राइक रेट 31 से 35 % के बीच था. पर 2019 से, जब से मुखिया का किसी को पता नहीं, यह दर 10 % से नीचे आ गई है.

कई पार्टियों के साथ आ जाने भर को आज की भाजपा के खिलाफ सफलता का सूत्र मान लेना बड़ी भूल होगी. इसके लिए आपको चार चीजें चाहिए: एक समन्वयकारी चेहरा, एक नैरेटिव, फिर समीकरण, और साथ में चुनावी मशीनरी

राष्ट्रीय स्तर पर कोई तीसरी पार्टी सही मायने में भाजपा को चैलेंज नहीं कर सकती, जब तक कि वह आज की कांग्रेस वाली जगह न ले ले. एक ऐसे मुल्क में जहां 60 % से ज्यादा आबादी रोज सौ रु. से भी कम कमाती हो, लेफ्ट-ऑफ-सेंटर विचारधारा के लिए एक बड़ी जगह है

एक अदद नेता खोजने की कोशिश फालतू की कवायद है. क्या हम में से कोई भी 1972 में ही अनुमान लगा पाया था कि जेपी (जयप्रकाश नारायण) विपक्ष को जोड़ेंगे और उसका चेहरा बन जाएंगे? 1986 में किसने सोचा था कि वी.पी. सिंह पीएम बनेंगे? 2010 में कौन कहता था कि नरेंद्र मोदी भाजपा का चेहरा बनेंगे? आपके पास सही मुद्दे हों, उसके आसपास नैरेटिव गढ़ें तो नेतृत्व उभर आएगा.

अहम मुद्दों के बारे में

हिदुत्व पॉलिटिक्स की सीमाएं हैं. किसी भी समाज को आप 50-55 % से ज्यादा पोलराइज नहीं कर सकते. आंकड़े बताते हैं कि एक हिंदू भाजपा को तो एक खिलाफ वोट डाल रहा है

सत्ता में आने पर पार्टी के ढांचे पर निवेश करने वाली राज्य सरकारों के दोबारा चुनकर आने की संभावना ज्यादा है

वंशवादी राजनीति एक सचाई है. आजकल तो वंशवादी कनेक्शन के बगैर राजनीति में घुस पाना ही मुश्किल है. कांग्रेस ही नहीं, दूसरी पार्टियों में भी यह उतना ही है.

जाति तभी निर्णायक रोल में आती है जब कोई लोकप्रिय चेहरा, दमदार नैरेटिव या फिर कोई जज्बाती घटना मौजूद न हो

भाजपा के बारे में

भाजपा ने लोक कल्याण और चरम राष्ट्रवाद के मेल से एक अचूक अस्त्र गढ़ लिया है

भाजपा कम से कम अगले 30-40 साल तक भारतीय राजनीति के केंद्र में रहेगी. चुनाव भले ही वह जीते या हारे, जैसा कि कांग्रेस के साथ हो रहा है


यूपी के चुनाव में 2024 के आम चुनावों का कोई अनुमान निकले, जरूरी नहीं. इसे सेमी-फाइनल न माने. उससे पहले तो और भी कई राज्यों के चुनाव होने हैं              

अनुभव का अनूठा मेल है उनके पास: 15 साल की आरएसएस प्रचारकी, 10-15 साल पार्टी संगठनकर्ता, 13 साल बतौर मुख्यमंत्री और अब 7 साल से पीएम

जिन मुद्दों पर सरकार जन-विरोधी दिखे, वे कदम पीछे खींचने जैसा लचीला रवैया रखते हैं. साथ ही वे पक्का कर लेते हैं कि कोई दूसरा उसका फायदा न उठा पाए

वे बहुत धैर्य से सुनते हैं. किसी मुद्दे पर वे ज्यादा से ज्यादा लोगों की बात सुनते हैं, जिससे वे मामले के सारे पहलुओं से वाकिफ रहते हैं

सफल नेता को बुद्धिमान होना ही चाहिए. उसमें चरित्र और साहस हो—खुद पर टीका, आलोचना, प्रशंसा सभी को समान भाव से वह ले सके.