मुंबई पर 26/11 को हुए आतंकी हमले के चार साल बाद भी इंटेलिजेंस प्रतिष्ठान के भीतर मची रस्साकशी और लचर सुरक्षा व्यवस्था मिलकर ऐसे हमलों के प्रति हमारी तैयारी को मुंह चिढ़ा रही हैं. भारत अब भी ज्वालामुखी के मुहाने पर बैठा है.
लश्करे तैयबा के आतंकी और मुंबई पर 26/11 को हुए हमले के गुनाहगार अबू जंदाल ने इस साल जुलाई में हमारी गुप्तचर एजेंसियों को बता दिया था कि उसका संगठन भारत पर फिर हमले की साजिश रच रहा है. उसके मुताबिक, इस बार इन हमलों की कमान यूसुफ मुजम्मिल के हाथों में है, जिसने लश्कर के कमांडर जकीउर्रहमान लखवी की जगह ली है. लखवी फिलहाल रावलपिंडी की अदियाला जेल में बंद है. मुजम्मिल 2006 में मुंबई की ट्रेनों में हुए धमाकों का आरोपी है जिसमें 202 लोग मारे गए थे. समस्या यह है कि हमारी इंटेलिजेंस एजेंसियों को कोई अंदाजा ही नहीं कि अगला हमला कहां और कब होगा.
मुंबई पर 26/11 को हुए हमले के चार साल बाद दुनिया की दूसरी सबसे तेजी से बढ़ती हुई अर्थव्यवस्था में सुरक्षा की स्थिति खतरनाक हद तक लापरवाही का शिकार हो गई है. इसकी वजह से केंद्रीय गृह मंत्री सुशील कुमार शिंदे को सुरक्षा का मुगालता हो गया है. उन्होंने इंडिया टुडे को बताया, ‘न सिर्फ 26/11 जैसे बल्कि, हम दूसरे बड़े हमले रोकने के लिए भी तैयार हैं. सुरक्षा और इंटेलिजेंस, दोनों के ही लिहाज से हम कहीं ज्यादा सतर्क हैं.’
लेकिन पूर्व गृह राज्यमंत्री जितेंद्र सिंह, गृह मंत्री शिंदे से अलग राय रखते हैं. इस साल मई में उन्होंने संसद में बताया था कि पाकिस्तान के भीतर 42 आतंकवादी प्रशिक्षण शिविर सक्रिय हैं. इंटेलिजेंस ब्यूरो के एक वरिष्ठ अधिकारी बताते हैं, ‘हम कायदे से योजना बनाकर किया गया एक आतंकी हमला तक रोक पाने की स्थिति में नहीं हैं.’ गुप्तचर सूत्रों के मुताबिक, इन शिविरों में कम से कम 750 ऐसे आतंकवादी हैं जो भारत में घुसने और हमला करने का इंतजार कर रहे हैं.
घास में सुई की खोज
गुप्तचर सूचना इकट्ठा करने में गोपनीय जैसी कोई चीज नहीं
26/11 के बाद भारत के इंटेलिजेंस तंत्र में जिस कायापलट की बात हो रही थी, वह नाकाम हो चुका है. दिल्ली स्थित एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी कहते हैं, ‘इस जानकारी के बारे में तो भूल जाइए कि लश्कर पाकिस्तान में क्या कर रहा है, अब हमें यह भी नहीं पता कि हमारी नाक के नीचे वह यहां क्या कर रहा है.’
पिछले साल एक शर्मिंदा करने वाली जानकारी दिल्ली पुलिस के हाथ लगी: इंडियन मुजाहिदीन (आइएम) का सीनियर आतंकी यासीन भटकल अपनी बीवी और बच्चों के साथ पश्चिमी दिल्ली के बाहरी इलाके में छह महीने से रह रहा था और उसने वहीं बैठ कर पुणे, बंगलुरू और दिल्ली में धमाकों की योजना बनाई थी. बता दें कि भटकल आइएम द्वारा 2005 में भारतीय शहरों में धमाके करने के उद्देश्य से शुरू किए गए ‘कराची प्रोजेक्ट’ नामक आतंकी अभियान के मास्टरमाइंड में से एक है और वह सात साल से लगातार अपने काम को आसानी से अंजाम देता आ रहा है.
दूसरी ओर, हर साल सरकार देश के करदाताओं की 15,000 करोड़ रु. से ज्यादा रकम सात प्रमुख गुप्तचर एजेंसियों पर खर्च कर रही है. ये एजेंसियां हैं: इंटेलिजेंस ब्यूरो (आइबी), रिसर्च ऐंड एनालिसिस विंग (रॉ), नेशनल टेक्निकल रिसर्च ऑर्गेनाइजेशन (एनटीआरओ), डिफेंस इंटेलिजेंस एजेंसी (डीआइए), मिलिटरी इंटेलिजेंस (एमआइ), डायरेक्टरेट ऑफ रेवेन्यू इंटेलिजेंस (डीआरआइ) और सेंट्रल इकोनॉमिक इंटेलिजेंस ब्यूरो (सीईआइबी).
किसी को, यहां तक कि संसद को भी खबर नहीं कि यह पैसा किस तरह खर्च किया जाता है और ‘गोपनीय सूचना’ के नाम पर क्या हासिल होता है. अमेरिका में ऐसी सूचनाओं की निगरानी के लिए सीनेट की एक सब-कमेटी होती है, जबकि यहां ऐसा कुछ भी नहीं है. अमेरिकी सबकमेटी ने 2 अक्टूबर को अपनी रिपोर्ट में डिपार्टमेंट ऑफ होमलैंड सिक्योरिटी द्वारा जुटाई गई गुप्तचर सूचना को श्रद्धीय करार दिया था. जाहिर है, फिर भारतीय गृह मंत्रालय के एक अधिकारी का यह बयान विनम्र ही माना जाएगा, ‘एजेंसियों द्वारा दी जा रही गुप्तचर सूचनाओं के बारे में गोपनीय जैसा कुछ भी नहीं है.’
इंटेलिजेंस एजेंसियों की सबसे ज्यादा निर्भरता इंटरनेट या टेलीफोन संवाद को टैप करने पर होती है. अब ये स्रोत पुराने पड़ रहे हैं. पाकिस्तान के आतंकी तेज हो चले हैं. वे अब ईमेल और टेलीफोन संवाद को गुप्त रखते हैं. सीमापार सैटेलाइट फोन पर होने वाली बातचीत को हमारी इंटेलिजेंस एजेंसियां इंटरसेप्ट करती रहती हैं, लेकिन उनके कूट संवाद को समझ नहीं पाती. एक इंटेलिजेंस अधिकारी ने बताया, ‘समझ में ही नहीं आता कि वे क्या कह रहे हैं. इससे बड़ी हताशा होती है.’
एक सेवानिवृत्त आइबी अधिकारी कहते हैं, ‘बुनियादी ह्यूमन इंटेलिजेंस का अभाव है. वास्तविक, ठोस और ऐसा इंटेलिजेंस जिस पर कार्रवाई की जा सके, पूरी तरह नदारद है. एजेंसियों ने दबे पांव जाने और आहट को सुनने जैसे पुराने तरीके ही भुला दिए हैं.’
26/11 के बाद इकलौता बदलाव यह आया है कि सभी 25 इंटेलिजेंस एजेंसियां हर दोपहर दिल्ली के सरदार पटेल मार्ग स्थित आइबी के मुख्यालय के भीतर मल्टी एजेंसी सेंटर (एमएसी) में बैठक करती हैं. हमले के बाद 1 जनवरी, 2009 को तत्कालीन गृह मंत्री पी. चिदंबरम ने यह बैठक शुरू करवाई थी. तब से लेकर अब तक इसमें हजार से ज्यादा बैठकें हो चुकी हैं, हालांकि अब तक एक भी ऐसी गुप्तचर सूचना वहां से नहीं पैदा हुई जिसके आधार पर किसी आतंकी हमले को होने से रोका जा सका.
एजेंसियों द्वारा संयुक्त रूप से जुटाई गई सूचनाओं को एक अधिकारी ‘आप्रासंगिक और कार्रवाई के लिए बेकार’ बताते हैं. ऐसा इसलिए होता है क्योंकि एजेंसियां अपने सूत्र उजागर नहीं करती हैं और निर्णायक सूचनाओं को अपने पास ही दबाकर रखती हैं ताकि उसका श्रेय खुद ले सकें. दो सबसे बड़ी एजेंसियों आइबी और रॉ के बीच एक-दूसरे से बड़ा बनने की होड़ आज भी जारी है. रॉ को आइबी ओपन सोर्स यानी जाहिर सूत्रों से इंटेलिजेंस लेने वाली एजेंसी मानती है. आइबी के एक अधिकारी का कहना है, ‘अगर गूगल क्रैश हो गया तो रॉ की सूचनाओं का उत्पादन काफी तेजी से गिरेगा.’ दूसरी ओर, रॉ के अधिकारी आइबी की ‘पुलिसिया मानसिकता’ से परेशान रहते हैं.
इस क्रम में सोशल मीडिया से पैदा हुए नए खतरे उपेक्षा के शिकार हो गए हैं. यह इस तथ्य के बावजूद जारी है कि इस साल 11 अगस्त को मुंबई में हुई हिंसा सोशल मीडिया पर उड़ी अफवाहों की देन थी जिसमें दो लोग मारे गए और 50 से ज्यादा पुलिसवाले घायल हुए थे.
एमएसी की एक हालिया बैठक में सीमा सुरक्षा बल के एक अधिकारी ने ‘पाकिस्तान से आने वाले चिंताजनक ट्विटर ट्रेंड’ पर टिप्पणी की, तो यह बात अधिकतर इंटेंलिजेंस अधिकारियों को समझ में ही नहीं आई. अधिकारी संयुक्त सचिव और उससे ऊपर के पदों के थे, लेकिन किसी को ट्विटर के विभिन्न उपयोग नहीं मालूम थे.
एजेंसियों द्वारा जारी की जाने वाली आतंकी हमलों की चेतावनी आज मजाक का विषय बन चुकी है. रॉ ने पिछले साल 17 नवंबर और इस साल 14 नवंबर को दिल्ली में एक समान आतंकी हमलों की चेतावनियां जारी कीं. दोनों गलत चेतावनियां थीं, लेकिन दिल्ली पुलिस इनमें उलझ गई. आइबी के एक अधिकारी का कहना है, ‘हमारे पास असली खतरे और अफवाह के बीच अंतर करने की क्षमता नहीं है.’ हमारा सुरक्षा तंत्र अफवाह उड़ाने के उद्देश्य से किए गए एक फोन कॉल और वास्तविक चेतावनी, दोनों को समान उत्साह से लेता है.
पहले आपस में लड़ लें
अपने अधिकारों को लेकर एनआइए, आइबी और राज्य एटीएस इकाइयों में छिड़ी जंग
सिर्फ गुप्तचर सूचनाएं इकट्ठा करना ही समाधान नहीं है. आतंकवाद से निपटने के लिए कोई राष्ट्रीय सुरक्षा नीति या रणनीति भी मौजूद नहीं. एक पुलिस अधिकारी के मुताबिक, ‘सिर्फ इंटेलिजेंस इकट्ठा करने से रणनीति नहीं बन जाती.’
आतंक से जुड़े मामलों में 2005 के बाद से पड़ताल और दंडित किए जाने का रिकॉर्ड भी बदतर रहा है. ऐसे अधिकतर मामले सुनवाई तक पहुंचने से पहले ही बिखर जाते हैं. 26/11 हमले के दोषी अजमल आमिर कसाब को मई 2010 में सुनाई गई फांसी की सजा के अलावा सिर्फ एक मामला सुनवाई तक पहुंचा है और वह है 7 सितंबर, 2011 को दिल्ली हाइकोर्ट में धमाका.
सुप्रीम कोर्ट द्वारा कानूनी अंजाम तक पहुंचाए गए कसाब के मामले में भी गारंटी नहीं कि वह अपनी निर्णायक परिणति तक पहुंच पाएगा. उसकी दया याचिका को गृह मंत्रालय ठुकरा चुका है और अब वह राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी के पास लंबित है. राष्ट्रपति के पास किसी फाइल को निपटाने की कोई समय सीमा नहीं होती. उनके प्रेस सचिव वेणु राजमणि ने बताया कि कसाब की फाइल राष्ट्रपति के पास ही है, लेकिन उसके आगे उन्होंने कोई टिप्पणी नहीं की.
मुंबई हमले की जांच करने वाली और आतंक से जुड़े मामलों की जांच करने के लिए 2009 में बनाई गई राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआइए) राज्यों के आतंक निरोधी दस्तों (एटीएस) और आइबी के साथ दोहरे मोर्चे पर उलझी हुई है. गौरतलब है कि महाराष्ट्र एटीएस ने 13 फरवरी, 2010 को हुए जर्मन बेकरी ब्लास्ट की जांच एनआइए को सौंपने से इनकार कर दिया था. जंदाल तब दिल्ली पुलिस की हिरासत में था.
सरकार ने 2008 में गैर-कानूनी गतिविधि (निरोधक) कानून (यूएपीए) बनाया था और एनआइए जैसी एजेंसी को आतंक से जुड़ी गतिविधियां रोकने का काम दिया गया था. एजेंसियां इसलिए आतंकी हमले नहीं रोक पाती हैं क्योंकि उन्हें एफबीआइ की शैली में आतंकियों को धर दबोचने की छूट नहीं दी जाती. एनआइए के एक अधिकारी बताते हैं, ‘आतंकियों की संपत्ति राजसात करने या उनकी फंडिंग रोकने की बात तो भूल ही जाइए, हमारे पास तो भारतीय आतंकियों की कोई सूची तक नहीं है.’
अंधेरे में तीर
मुंबई पुलिस को अब भी 6,000 सीसीटीवी और बुनियादी उपकरणों का इंतजार है
अमेरिकी पुलिस ने 2010 में मल्टिपल असॉल्ट काउंटर टेररिज़्म ऐक्शन कैपेबिलिटी विकसित की थी. यह पूरी तरह से मुंबई हमले के अध्ययन पर आधारित था. अमेरिका, यूरोप और एशिया में कई देशों की पुलिस ने मुंबई जैसे हमले की प्रतिक्रिया में अभ्यास किए हैं. बांग्लादेश ने पिछले साल अपने पुलिस कमांडो के लिए दो हेलिकॉप्टर खरीदे थे ताकि ढाका में किसी भी संभावित हमले का जवाब दिया जा सके. गौरतलब है कि बांग्लादेश का सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) भारत के जीडीपी का मात्र 20 फीसदी है.
इसके उलट अब भी सड़क पर रेंगने वाली मुंबई पुलिस के पास बुनियादी उपकरण तक नहीं हैं. उसने शहर में अहम जगहों पर 6,000 क्लोज सर्किट टीवी कैमरे लगवाने का आग्रह किया था लेकिन वे अब तक इंस्टॉल नहीं किए जा सके हैं. महाराष्ट्र के गृह मंत्री आर.आर. पाटील पिछले साल सितंबर में छह वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों के साथ वहां के सीसीटीवी नेटवर्क का ‘अध्ययन’ करने लंदन गए थे. राज्य ने कैमरों की खरीद के लिए अप्रैल में टेंडर निकाले लेकिन ठेका अब तक नहीं दिया गया है. राज्य के गृह विभाग के एक अधिकारी के मुताबिक, इन टेंडरों की अब भी जांच की जा रही है.
इस साल 1 अगस्त को पुणे के पुलिसवालों ने बुलेटप्रूफ जैकेट पहनकर दो बमों को निष्क्रिय किया क्योंकि उनके पास विशिष्ट बम सूट नहीं थे. यह जानलेवा हो सकता था. जर्मन बेकरी में 13 फरवरी, 2010 को हुए बड़े आतंकी हमले और सरकार को भेजे गए कई संदेशों के बावजूद पुलिस को बम निरोधी सूट नहीं मिले हैं.
एक बड़ी समस्या यह भी है कि पुलिस की तैयारी को भ्रष्टाचार की घुन लग चुकी है.
इसी साल 13 अगस्त को आर्थिक अपराध शाखा ने बम निरोधी सूटों के एक सप्लायर को धोखाधड़ी के आरोप में गिरफ्तार किया था. पुलिस विभाग ने टेक्नो ट्रेड इम्पेक्स नाम की कंपनी के निदेशक बिमल अग्रवाल को 80 बम निरोधी सूटों के बदले 6 करोड़ रु. दिए थे. उसने दक्षिण अफ्रीका से अच्छी गुणवत्ता वाले 36 सूट खरीदे लेकिन उनके बीच में चीन में बने खराब गुणवत्ता वाले 44 सूट सरका दिए. यदि बम निरोधक दस्ते के लोगों ने वह सूट पहना होता और कोई बम फटता तो वे निश्चित तौर पर मारे जाते. मामला यहीं तक सीमित होता तो भी ठीक था, लेकिन अग्रवाल ने खुलासा किया कि उसने मिलावट के एवज में छह आला पुलिस अफसरों को रिश्वत खिलाई थी. अब तक उन अफसरों के नाम सामने नहीं आए हैं.
नियुक्ति के तौर पर अब भी इंटेलिजेंस के काम को आकर्षक नहीं माना जाता. पिछले साल महाराष्ट्र में भारत की पहली इंटेलिजेंस अकादमी के 150 प्रशिक्षुओं में से 10 अफसर राज्य की पुलिस सेवा में भेजे गए थे. इन अफसरों को अपने सहकर्मी पुलिसवालों के मुकाबले 50 फीसदी ज्यादा वेतन मिल रहा था, लेकिन इन्होंने गुप्तचर सूचनाएं इकट्ठा करने की अपनी नौकरी सिर्फ इसलिए छोड़ दी क्योंकि यह काम ‘आकर्षक’ नहीं था.
राज्य की 732 कर्मचारियों वाली एटीएस में करीब 250 पद रिक्त पड़े हैं. मुंबई में 26/11 के बाद बनाई गई ‘फोर्स वन्य कमांडो की टीम को अब भी प्रशिक्षण और गोलीबारी का अभ्यास नहीं कराया जा सका है. उनकी विशेषज्ञता धमाकों में भी नहीं है जिसके चलते वे किसी भी आतंकी हमले की सूरत में किसी इमारत के भीतर नहीं घुस सकते और दरवाजों को नहीं तोड़ सकते.
फैलते एनएसजी केंद्र
गृह मंत्रालय को गुणवत्ता की परवाह नहीं, सिर्फ संख्या चाहिए
भारत की सबसे अहम आतंकवाद निरोधक एजेंसी राष्ट्रीय सुरक्षा गार्ड (एनएसजी) को किसी सैनिक को कमांडो बनाने के लिए अपने बेस में छह महीने की कड़ी ट्रेनिंग देनी पड़ती है. 26/11 के बाद गठित चार एनएसजी केंद्रों में तैनात कर्मियों को निरंतर प्रशिक्षण नहीं मिलता. उन्हें मानेसर के एनएसजी बेस में तीन महीने का संक्षिप्त प्रशिक्षण दिया जाता है, उसके बाद मुंबई, कोलकाता, चेन्नै और हैदराबाद के चार क्षेत्रीय केंद्रों में भेज दिया जाता है. इन केंद्रों में सैन्य और अर्धसैन्य कर्मी एक साथ तैनात होते हैं. उन्होंने कभी मिलकर काम नहीं किया होता. मुंबई केंद्र में तैनात कर्मियों के पास फायरिंग रेंज तक नहीं है.
गनीमत है कि उनके सिर पर छत है. करीब दो साल तक यहां के 24 कमांडो को जोगेश्वरी-विक्रोली लिंक रोड पर मौजूद कम रोशनी वाली 19 इमारतों में रखा गया. शुरू में उन्हें 225 वर्ग फुट के फ्लैटों में रखा गया था, जिन्हें झुग्गीवासियों के लिए बनाया गया था. आखिरकार जब वे सितंबर में अंधेरी ईस्ट में बने नए एनएसजी केंद्र में पहुंचे, तो दीवारों में दरार देखकर सहम गए. इमारतों को दुरुस्त किए जाने तक वे दोबारा अपने अस्थायी कमरों में लौट गए.
छह हजार कमांडो की फौज को बेहतर उपकरणों से लैस करने की बजाए गृह मंत्रालय उनकी संख्या बढ़ाने में लगा है. इस वक्त दस हजार से ज्यादा एनएसजी के कमांडो हैं जिनका प्रशिक्षण और बदतर है. इस साल अक्टूबर में एनएसजी के स्थापना दिवस समारोह में पूर्व राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार एम.के. नारायणन ने कहा था, ‘ऐसे क्षेत्रीय केंद्र बनाना बड़ी गलती है.’
बेलगाम आतंक
चिदंबरम के जाने के असर से नहीं उबर पाए एनसीटीसी और नैटग्रिड
ये एनएसजी केंर्द्र एक बड़ी योजना का छोटा-सा हिस्सा हैं. दिसंबर 2008 में गृह मंत्री बनने के बाद चिदंबरम ने समूचे सुरक्षा तंत्र के कायापलट की योजना बना डाली थी. चार साल बाद एक राष्ट्रीय आतंकवाद निरोधक केंद्र (एनसीटीसी) बनाने की गृह मंत्रालय की योजना खटाई में पड़ गई है. बिहार, गुजरात, तमिलनाडु, ओडिसा और पश्चिम बंगाल के विरोध के बाद मंत्रालय ने 31 मार्च को इस संबंध में जारी अपना आदेश रोक लिया है. शिंदे ने साफ कर दिया है कि वे एनसीटीसी को तब तक मंजूरी नहीं देंगे जब तक सारे राज्य इससे सहमत न हो जाएं.
इतना ही नहीं, चिदंबरम को नेशनल इंटेलिजेंस ग्रिड का विचार सामने रखे हुए चार बरस हो गए. कैबिनेट से इसे मंजूरी मिले भी डेढ़ साल हो गए, लेकिन अब तक गृह मंत्रालय इस संगठन की जरूरत को सही ठहराने में जुटा है. गृह मंत्रालय 21 संवेदनशील डेटाबेस को आपस में जोडऩे की महत्वाकांक्षी इंटेलिजेंस नेटवर्क परियोजना पर अब तक 1,500 करोड़ रु. खर्च कर चुका है, लेकिन इसके शुरू होने में अभी एक साल का वक्त बाकी है.
मंत्रालय अब तक सरकार के भीतर ही लोगों को नागरिकों की प्राइवेसी की रक्षा के सवाल पर एकमत नहीं कर सका है. एक बड़े अधिकारी ने बताया, ‘इसकी कोई गारंटी नहीं है कि विभिन्न स्रोतों जैसे सेलफोन रिकॉर्ड, इंटरनेट, क्रेडिट कार्ड, बैंक विवरण, वाहन की जानकारी, रेलवे, एयरपोर्ट, आव्रजन, आयकर रिटर्न आदि से इकट्ठा किए गए आंकड़ों की सुरक्षा हो पाएगी और इनका गलत इस्तेमाल नहीं होगा. यह तंत्र काफी खुला है, तकरीबन नैटग्रिड के दफ्तर की तरह.’
नैटग्रिड किसी अन्य सरकारी दफ्तर से बिलकुल अलग है. दिल्ली के बाराखंबा रोड पर एक इमारत के दूसरे तल पर स्थित यह 15,000 वर्ग फुट में फैला है. इसके मुखिया हैं रघु रमन और दफ्तर देखने में किसी कॉर्पोरेट प्रतिष्ठान जैसा दिखता है. चिदंबरम ने 26/11 हमले के बाद सुरक्षा तंत्र के कायापलट के एक उपाय के तौर पर नैटग्रिड के गठन का सुझाव रखा था.
लेकिन मंत्रालय सुरक्षा प्रतिष्ठान को इसके कारगर होने के बारे में सहमत कर पाने में नाकाम रहा है. जिन 21 डेटाबेस को जोड़ा जा रहा है, उन्हें 10 एजेंसियों को मुहैया कराया जाएगा. यह कैसे आतंकवाद के खिलाफ उपायों में मदद देगा, यह अब भी एक रहस्य बना हुआ है. उच्च तकनीकी उपकरणों की खरीद के लिए नैटग्रिड को सुरक्षा पर कैबिनेट समिति द्वारा 1,100 करोड़ रु. मंजूर किए जाने से पहले जून 2012 में गृह सचिव आर.के. सिंह को अगला 26/11 रोकने में उसकी प्रभावकारिता पर एक प्रेजेंटेशन देना पड़ा था.
उनकी दलील यह थी कि भारतीय एजेंसियां लश्कर के आतंकी अमेरिकी मूल के डेविड हेडली की असामान्य यात्राओं के रुझान को पकड़ पाने में नाकाम रही थीं, जिसने पहले ही मुंबई में हमले की जगहों का मुआयना कर डाला था. हेडली मुंबई से अकसर अपने आकाओं से मिलने पाकिस्तान जाया करता था. गृह सचिव की दलील थी कि यदि नैटग्रिड होता तो हेडली को हमले से पहले ही दबोच लिया गया होता.
बहरहाल, इंटेलिजेंस जगत की भीतरी लड़ाई नैटग्रिड तक भी पहुंच चुकी है. नैटग्रिड के विरोधी एक आइबी अधिकारी कहते हैं कि आतंकी हमले रोकने में इसकी क्षमता संदिग्ध है क्योंकि किसी भी सरकारी एजेंसी या पुलिस की पहुंच इसके डेटाबेस तक नहीं होगी. इससे तत्काल और प्रभावी कार्रवाई के मौके कम हो जाएंगे.
सूत्रों ने दावा किया कि आइबी के मुखिया नेहचल संधू को भी नैटग्रिड से दिक्कतें हैं क्योंकि उसके चलते संवेदनशील डेटा और पारंपरिक कामों में आइबी का प्रभुत्व जाता रहेगा. यह दरअसल वही पुरानी लड़ाई है जो सुरक्षा तंत्र को खाए जा रही है. शिंदे नैटग्रिड को शुरू करने में कोई हिचक नहीं दिखाना चाहते. वे नहीं चाहते कि उन्हें एक ऐसे गृह मंत्री के रूप में देखा जाए जिसने अपने पूर्व मंत्री द्वारा किए गए आतंक निरोधक उपायों को कामयाब नहीं होने दिया.
लगातार तीन साल तक चिदंबरम ने अपनी सोच को लागू करने के लिए लड़ाई लड़ी है. वे याद करते हैं कि कैसे उन्होंने 150 सेट स्लाइड शो की प्रस्तुति देखी थी और फॉलोअप बैठकों में अधिकारियों से उसके बारे में पूछते भी थे. इसके अलावा हथियारों के बारे में कमांडो से वे सवाल किया करते थे और नैटग्रिड के काम में तेजी न लाने के लिए अफसरों को झिड़कते भी थे. 26/11 के बाद चिदंबरम ने पाकिस्तान के संबंध में बहुत कड़ा रुख अपनाया था.
वे लगातार यह कहते रहे थे कि पाकिस्तान लश्कर सुप्रीमो हाफिज सईद समेत उसके षड्यंत्रकारियों की आवाज के नमूने भारत को सौंपे. इस कड़ाई के बावजूद 2011 में दिल्ली और मुंबई के बम हमलों को नहीं रोका जा सका, जिन्हें चिदंबरम ने अपने रिकॉर्ड पर दाग करार दिया था.
चूंकि उनके उत्तराधिकारी शिंदे काम में उतनी दिलचस्पी नहीं दिखा रहे, लिहाजा गृह मंत्रालय 26/11 से पहले वाले हालात में लौट रहा है. क्या उसे नींद से जगाने के लिए बस एक और आतंकी हमला चाहिए?