प्रणब मुखर्जी के कार्यकाल में राष्ट्रपति भवन फिर से अपनी राजनैतिक हैसियत हासिल कर चुका है. सरकार में वे यूपीए के मुख्य संकटमोचन थे. अब वे राष्ट्र के विवेक को बुलंद करने वाले बन गए हैं.
स्वतंत्रता दिवस के मौके पर राष्ट्रपति के रूप में अपने दूसरे भाषण में, उन्होंने चेताया, ‘‘जब सत्ता एकाधिकारवादी हो जाती है तो लोकतंत्र को नुकसान उठाना पड़ता है, लेकिन जब विरोध प्रदर्शन स्थायी बीमारी बन जाते हैं तो हम अराजकता को न्योता देते हैं.”
साल का अंत उनकी इस चेतावनी को गंभीरतापूर्वक याद दिलाने वाला रहा. उन्होंने हर शनिवार को 200 लोगों को चेंज ऑफ गार्ड समारोह देखने की इजाजत देकर राष्ट्रपति भवन को ज्यादा सुगम बना दिया. मुखर्जी अपनी भूमिका सिर्फ समारोहों तक सीमित नहीं रख रहे हैं. अक्तूबर में दिल्ली में पेट्रोटेक तेल एवं गैस कॉन्फ्रेंस का उद्घाटन करते हुए उन्होंने डीजल कीमत बढ़ाने और एलपीजी (रसोई गैस) सब्सिडी को सीमित करने का बचाव किया.
उन्होंने कहा कि घरेलू कीमतों को वैश्विक कीमतों के अनुरूप करना उपभोक्ताओं के हित में है. पाकिस्तानी आतंकवादी अजमल कसाब की दया याचिका को खारिज करने में भी मुखर्जी ने कोई देरी नहीं की. अगले आम चुनाव में त्रिशंकु संसद की आशंका को देखते हुए राष्ट्रपति की भूमिका ज्यादा राजनैतिक हो सकती है.