"या तो जाओ पाकिस्तान, या फिर जाओ कब्रिस्तान.’’ 8 सितंबर के उस मनहूस दिन के बाद से शायद ही कोई ऐसी घड़ी आई हो जब 21 साल के मोहम्मद आबिद के कानों में दंगाइयों का यह नारा गूंजता न रहा हो. 26 दिसंबर को वे अर्से बाद इस संवाददाता के साथ कुछ देर के लिए अपने गांव फुगाना लौटने की हिम्मत जुटा सके. गांव के प्रवेश द्वार पर श्नई सोच, नई उम्मीद्य के स्लोगन के साथ नए वर्ष की शुभकामनाएं देता बीजेपी नेता नरेंद्र मोदी का बैनर अपना रौब गालिब कर रहा है. आगे बढ़े तो सड़क के दोनों ओर जाटों की बुलंद इमारतें नजर आने लगीं. भैंसा बुग्गी पर खेतों से गन्ना काटकर लाती कुछ महिलाएं और पुरुष आबिद को कनखियों से देखकर मजाक-सा उड़ाते निकल गए. उसके बाद मुसलमानों के घर शुरू हो गए. ये घर कम और अधजले भुतहा खंडहर ज्यादा नजर आए. आबिद का दिल बैठ गया. दंगे शुरू होने से पहले आखिरी बार उसने अपने जिस घर को गुलजार देखा था, आज वहां न दरवाजा है और न छत. वहां मलबा है, जली हुई खिड़कियां हैं और ढहाई गई दीवार की ईंटों का ढेर है. ऊपर के कमरे में उनका आसमानी रंग का गोदरेज का फ्रिज टूटा पड़ा है और उसके पास ही टीवी सेट के अस्थि पंजर बिखरे “ए हैं. दूसरे कमरे में शराब की आधी भरी बोतल रखी है, जिसे शायद किसी ने रात में पिया था और अगली रात फिर इत्मिनान से पीने के लिए यहां छोड़ गया है. उसे भरोसा है कि मुसलमान अब गांव में वापस नहीं आएंगे.
(बुरी तरह तबाह की गई फुगाना गांव की बड़ी मस्जिद)
नया बसेरा बनाने की धुन
नशे में चूर उस शख्स का भरोसा बहुत गलत भी नहीं है. फुगाना के 3,000 से ज्यादा मुसलमान अब बमुश्किल एक किलोमीटर दूर मुस्लिम बहुल लोई गांव में बने राहत शिविर में रह रहे हैं. प्रशासन की शुरुआती मान-मनौव्वल और बाद की धौंस-पट्टी के बावजूद ये यहां से टस से मस होने को राजी नहीं हैं. सरकार ने इनमें से बहुत से परिवारों को पांच-पांच लाख रु. मुआवजा दिया कि वे यहां से चले जाएं, लेकिन शरणार्थियों ने मुआवजे का क्या किया? अपने डेढ़ साल के पोते को गोद में बिठाए 55 साल के जुबैर अहमद ने तपाक से कहा, ‘‘जिन-जिन लोगों को पैसा मिला है, उन्होंने आपस में मिलकर अब तक कैंप के सामने ही 20 बीघा जमीन खरीद ली है. और मुआवजा मिलेगा तो और जमीन खरीदेंगे.’’ शरणार्थी अब इस जमीन पर अपनी नई रिहाइश बनाने की तैयारी में हैं. इस शिविर में अब तक 76 बच्चों का जन्म हो चुका है और 17 लोग बीमारी या दवा न मिलने से मर चुके हैं. राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने प्रदेश के मुख्य सचिव और मुजफ्फरनगर और शामली के डीएम से शिविरों में 40 से ज्यादा बच्चों की मौत की खबरों पर जवाब देने के लिए कहा है. इतनी मौतों के कारण पास ही कब्रिस्तान भी बन गया है. यहीं जिंदगी भी पल रही है. महिलाएं तड़के आस-पास के खेतों से गन्ने के पत्ते बीन लाती हैं, इसी से चूल्हा जलता है. स्कूल तो अब मयस्सर नहीं रहा लेकिन आंगनबाड़ी कार्यकर्ता खुर्शीदा बच्चों को दो दूनी चार जरूर पढ़ा देती हैं. गुनगुनी धूप के सहारे दिन किसी तरह हिमालय की तराई की शीत लहर को झेल लेता है, लेकिन ओस टपकते तंबू में रात दोजख हो जाती है. अमीना अपना दर्द बयान करती हैं, ‘‘पांच बच्चों और शौहर के साथ इस छोटे-से तंबू में जिंदगी गुजारना बहुत मुश्किल है, लेकिन गांव में देखे मौत के मंजर से तो यह बेहतर ही है.’’
(अपने घर को चौपाल घर तथा बारात घर घोषित किए जाने को मन मसोसकर बर्दाश्त करते गुलफाम)
साजिश कहीं गहरी थी
जो हाल लोई कैंप का है, वही हाल जोला गांव के कैंप का है. इन कैंपों में फुगाना, इटावा, नाला, खरड़, एल्लम, हसनपुर, बावड़ी, हड़ल्ली, रिनपुड़ा, दहा, भड़ल, कुटमल्ली, लिसाड़- हसनपुर, कुटवा, कुटवी और काकड़ा गांवों से विस्थापित रह रहे हैं. इन सबकी कहानी एक-दूसरे से मिलती है. मुजफ्फरनगर से बुढ़ाना होकर शामली तक जाने वाले रास्ते पर ऐसे कई कैंप आपको नजर आ जाएंगे. दिल में घर कर गई इस दहशत के पन्ने इटावा के 30 साल के मोहम्मद नाजिम ने कुछ इस तरह पलटे, ‘‘8 सितंबर को हमें तबाह करने से तीन दिन पहले भी हमारे घर पर जमकर पत्थरबाजी हुई. और सुबह वही लोग आकर पूछने लगे कि भई क्या हुआ? 7 सितंबर तक गांव के भरोसेमंद लोग हमसे कहते रहे कि कुछ नहीं होगा, आप भरोसा रखो. और 8 तारीख को उन्हीं के बच्चों ने जिनके साथ हमारा बचपन का उठना-बैठना था, हम पर हमला बोल दिया.’’ नाजिम के चाचा का सिर फट गया. किसी तरह जान छुड़ाकर वे भाग पाए. बाकी गांवों के लोग भी उस रोज की कहानी कुछ इसी तरह बयान करते हैं. ये पूछने पर कि देश में पहले भी दंगे हुए हैं, लेकिन उबाल ठंडा होने पर लोग अपने घर लौटते रहे हैं, तो ऐसे में आप लोग क्यों बच्चों को ठंड में मार रहे हो? कहीं ये पांच लाख रु. मुआवजे का लालच तो नहीं? इस सवाल पर 65 साल के मेदू भड़क गए. फिर वे फट पड़े, ‘‘जिन्होंने दिन दहाड़े हमें मारा. कत्लो गारत मचाई. वे आज तक खुले घूम रहे हैं. जब कानून नाम की कोई चीज नहीं है तो हम वहां मरने के लिए क्यों जाएं. कत्ल होने से अच्छा है, हम यहीं ठंड से मर जाएं.’’ आंकड़े भी मेदू की बात की तस्दीक करते हैं. पश्चिमी उत्तर प्रदेश के पांच जिलों में हुए दंगों में 6,000 से ज्यादा लोगों को नामजद किया गया, अकेले मुजफ्फरनगर जिले में 566 एफआइआर हुईं लेकिन गिरफ्तार हुए महज 76 लोग.राहुल, मुलायम और मोदी
इतना बड़ा फसाद हुआ तो नेता लोग भी यहां पहुंचे. सोनिया गांधी आईं, मनमोहन सिंह आए, मुलायम सिंह आए औैर अखिलेश भी आए. बाद में राहुल गांधी भी पहुंचे. लेकिन हालात का कोई हल इन बेबस लोगों तक नहीं पहुंचा. उलटे नेताओं की हमदर्दी उनका मजाक उड़ा गई. राहुल गांधी ने चुनावी भाषण में कह दिया, ‘‘मुजफ्फरनगर के कई लड़के आतंकवादी संगठनों के संपर्क में हैं.’’ तो मुलायम सिंह यादव ने गुस्से में कह दिया, ‘‘राहत शिविरों में शरणार्थी नहीं, बीजेपी और कांग्रेस के एजेंट बसे हुए हैं.’’ उनके बयान से न केवल पीड़ित फिर आहत हुए बल्कि कई लोगों ने यह चेता दिया कि सत्ताधारी समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष की ऐसी बयानबाजी उनका दिल दुखा रही है.
सरकार पीड़ितों के प्रति अपनी असंवेदनशीलता से लगातार अपनी किरकिरी करा रही है. पहले उसने यह मानने से इनकार कर दिया कि राहत शिविरों में ठंड और बीमारी से बच्चों की मौत हुई है, लेकिन एक जांच समिति ने पाया कि 34 बच्चों की मौत हो चुकी है. इसी तरह उसे अभी तक एक दर्जन लोगों की गुमशुदगी के बारे में कुछ नहीं पता.
ऐसे में इन मुसलमानों को भी अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी में उम्मीद की किरण दिखने लगी है क्योंकि उत्तर प्रदेश में मुसलमानों के सबसे बड़े नेता आजम खान तो यहां आज तक पहुंचे ही नहीं. उलटे आजम पर दंगा भड़काने के आरोप लग गए. फेरी वाले से शरणार्थी बन गए बहाउल हसन से पूछा कि क्या वाकई दंगों के पीछे आजम खान हैं, तो उनका हाजिर जवाब था, ‘‘उन पर तो इसी लिए इलजाम लगा दिया कि वे हमारी मदद को आगे न आ पाएं. सारे फसाद की जड़ तो (नरेंद्र) मोदी है. आप देखते नहीं कि हर दंगा पीड़ित गांव के बाहर साहेब का मुस्कुराता हुआ बैनर टंगा है.’’ बहाउल ने संगत अच्छी बिठाई. ज्यादातर दंगा पीड़ित गांवों के बाहर मोदी के उसी तरह के पोस्टर लगे हैं, जैसा पोस्टर फुगाना गांव के बाहर लगा था. बहाउल की तरह बहुत से पीड़ितों को लग रहा है कि उत्तर प्रदेश में अमित शाह की मौजूदगी, उनके लिए शुभ संकेत नहीं है. लेकिन बीजेपी ऐसा नहीं मानती. पार्टी के नेता हुकुम सिंह और संगीत सोम पर दंगों से जुड़े आरोपों को पार्टी खारिज कर चुकी है. प्रशासन भी अब तक यह नहीं बता पाया है कि ये दंगे सोची-समझी साजिश थे या अचानक फूट पड़ा दो समुदायों का गुस्सा.
(मुजफ्फरनगर के एक राहत शिविर में नारकीय जीवन)
मस्जिद बोल रही है
लेकिन फुगाना की बड़ी मस्जिद बहुत कुछ बताती है. मस्जिद की गुंबद तो साबुत है, लेकिन मीनारों पर चोट की गई है. नीचे का पूरा फर्श उखड़ा हुआ है. दीवारों पर सांप्रदायिक गालियां खरोंच दी गईं हैं. जहां पवित्र ग्रंथ रखे होते थे वह रैक जला दिया गया. गुंबद के नीचे के इबादत वाले स्थान पर गड्ढा खोदा गया है. आस-पास अधजली लकडिय़ां औैर राख पड़ी है. आबिद के साथ गांव तक आए उनके ताऊ के बेटे गुलफाम कहते हैं, ‘‘ये गड्ढा हवन करने के लिए बनाया गया था.’’ उनका इशारा यज्ञ वेदी की तरफ था. जो नारा आबिद को चैन से सोने नहीं देता उसका जिक्र बहुत से औैर भी शरणार्थियों ने किया. ज्यादातर गांवों में पंचायत के पहले मुसलमानों को एक-सी दिलासा दी गई. इतनी सारी समानताएं क्या स्वतः स्फूर्त हो सकती हैं? गुलफाम कहते हैं, ‘‘आज कोई मुफ्त में अपने बाप का हाथ तो पकड़ता नहीं है, घरों में आग लगाने के लिए लोग क्या ऐसे ही निकल आए थे? इसके लिए पैसा बांटा गया था.’’ उनका इशारा गहरी साजिश की तरफ है. लेकिन इसी बीच वहां से गुजरे एक जाट लड़के ने इस संवाददाता से कहा, ‘‘कहां चक्कर में पड़े हो. यह सब इनका नाटक है. खुद ही घर में आग लगा दी और खुद ही दरवाजे उखाड़ लिए. अब मुआवजे के लिए रिश्तेदारों के साथ कैंप में पड़े हैं.’’ यानी साजिश की बात दूसरे पक्ष के मन में भी उतनी ही गहरी पैठ बना चुकी है.
उस इलाके में जहां बाबरी मस्जिद ढहाए जाने के समय भी दंगे नहीं हुए थे, इस बार बहुत तेज जहर उतरा है. ज्यादातर मुसलमान भूमिहीन थे औैर दंगों ने उन्हें बेघर भी कर दिया. जाट-मुस्लिम संघर्ष ने जाटों के खेतों में काम कर रोजी-रोटी कमाने की उनकी रही सही गुंजाइश भी खत्म कर दी है. ऐसे में वे किसी ऐसी सुरक्षित जगह पर रहना चाहते हैं, जहां वे एक साथ रहें. सरकार पसोपेश में है-न तो वह बलपूर्वक इन शरणार्थियों को हटा सकती है और न उन्हें ठंड में मरने दे सकती है. सरकार बहुसंख्यक जाटों पर भी सख्ती नहीं कर सकती और आरोपियों को जबरन गिरफ्तार भी नहीं कर सकती, क्योंकि जब कभी पुलिस ने ऐसी कोशिश की तो गांववालों ने उसका जमकर विरोध किया. कई मामलों में तो आरोपियों के बचाव में बड़ी संख्या में महिलाएं आगे आ गईं. इसके अलावा बीजेपी के स्थानीय नेता भी इसे बेगुनाहों का उत्पीडऩ कहकर पुलिस पर जबरन गांव में न घुसने का दबाव बनाते रहे हैं.
(दंगे में तबाह हुए फुगाना गांव के बाहर लगा नरेंद्र मोदी और अमित शाह का बैनर)
घर वापसी की आखिरी किरण
इन सारी परिस्थितियों में लगता है शरणार्थी और सरकार एक-दूसरे के जब्त का इम्तहान ले रहे हैं. तो क्या उस शराबी का नशा उतारने का कोई इंतजाम नहीं है जो आबिद के जले घर में शराब की आधी बोतल छोड़ गया था? बहुत कुरेदने पर कुछ उम्रदराज शरणार्थियों ने गांव वापसी का चार सूत्रीय फॉमूला सुझाया (फॉर्मूले के लिए देखें बॉक्स). वैसे सरकार के लिए इस फॉर्मूले पर अमल करना नामुमकिन नहीं है, क्योंकि यह फॉर्मूला हरियाणा के मिर्चपुर में 2010 में दलित-जाट संघर्ष के बाद उठाए गए कदमों से बहुत कुछ मिलता-जुलता है.
अब सारा दारोमदार उत्तर प्रदेश के युवा मुख्यमंत्री अखिलेश यादव पर है. वे शायद ही कभी इस बात को भूलते हों कि यही समुदाय उनकी राजनैतिक संजीवनी है. इसे सताने से वे कहीं खुद पीड़ित न बन जाएं?
तबाह हो चुके घरों और खुले घूम रहे आरोपियों के बीच कैसे लौट जाएं पीड़ित मुसलमान
मुजफ्फरनगर के दंगा पीड़ितों को समझ नहीं आ रहा है कि वे उसी गांव में कैसे लौट जाएं जहां उन्हें तबाह करने वाले आरोपी खुले घूम रहे हैं, पहले ही धोखा दे चुके प्रशासन पर वे क्यों ऐतबार करें. मुजफ्फरनगर और शामली में 17 राहत कैंप हैं. इन शिविरों में 10,000 शरणार्थी रह रहे हैं. दंगों के सिलसिले में पांच जिलों में 6,000 लोगों पर मामले दर्ज, लेकिन 76 आरोपी ही गिरफ्तार.

अपडेटेड 30 दिसंबर , 2013
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