जब 2009 के आम चुनाव की तैयारी में प्रकाश करात यूपीए के सहयोगी दलों को तोड़ रहे थे और मायावती को प्रधानमंत्री पद की उम्मीदवार के तौर पर सामने रखकर तमाम कांग्रेस विरोधी ताकतों को एक छत के नीचे इकट्ठा कर रहे थे, तभी कांग्रेस के सबसे वफादार सहयोगी शरद पवार ने यह कहकर सनसनी फैला दी थी कि वामपंथियों का साथ दोबारा हासिल किया जा सकता है. तो, क्या वे पाला बदलकर मायावती-करात के साथ जा रहे थे? क्या वे त्रिशंकु जनादेश के अंदेशे में सभी से समान दूरी बनाकर ऐसी जगह अपने पैर जमा रहे थे, जहां से छलांग लगाना आसान हो? या यह उनका महज शरद पवार होना था?
सहयोगी नेताओं के दिमाग को पढऩे में प्रणब मुखर्जी का कोई सानी नहीं. उनसे पूछा गया कि पवार की उलटबांसी के क्या मायने हैं तो जवाब था, “शरद पवार हमेशा मिलेजुले संकेत देते हैं.” पवार के बारे में इससे ज्यादा कुशाग्र बयान दूसरा नहीं हो सकता. वे अपनी पीढ़ी के सबसे दिलचस्प राजनैतिक खिलाड़ी हैं. उनके कटुतम विरोधियों से पूछकर देखिए, वे आपको बताएंगे कि उनके जैसा दोस्त कोई दूसरा नहीं जिस पर वे भरोसा कर सकें, लेकिन सिर्फ निजी तौर पर. असली यारों का यार. राजनीति में, फिर चाहे वह सत्ता की राजनीति हो या क्रिकेट की, वह खुद को किसी का बंधुआ नहीं मानते. अगर भूले-भटके कभी मानना भी पड़ जाए तो किसी जेनेवा समझौते का पालन नहीं करते. जगमोहन डालमिया, ललित मोदी, या सुरेश कलमाडी तक से तस्दीक कर लीजिए. हमारी राजनीति में निजी और राजनैतिक रिश्ते को अलग-अलग रखने की पवार जैसी कूवत मेरे जानते किसी में नहीं है. मानो उनके दिमाग में कोई भीमकाय दीवार है, या कोई सर्किट ब्रेकर जो दोनों के जरा भी करीब आते ही ट्रिप कर जाता है. अगर कोई एक नाम जरा भी उनके करीब पड़ता है तो वह है दिवंगत चंद्रशेखर. उनके पास भी पवार जैसा आकर्षण था लेकिन संसाधन नहीं. पवार ही वह शख्स हैं जिनके पास राजनीति में दोस्तों और एहसानमंदों का विशाल नेटवर्क है.
आज वह हमें क्या बता रहे हैं जब उनका गृह राज्य महाराष्ट्र, दूसरा सबसे महत्वपूर्ण (यूपी की 80 सीटों के बाद लोकसभा की 48 सीटों के साथ) और सबसे अमीर राज्य, अपने सबसे ढुलमुल चुनाव की तरफ बढ़ रहा है? हमें सिर्फ इतना पता है कि वे यूपीए से बाहर आ चुके हैं, हरेक से बात कर रहे हैं, सेक्युलर साख की कसमें खा रहे हैं, और पूरी ताकत से कह रहे हैं कि वे कभी बीजेपी के साथ नहीं जाएंगे. लेकिन फिर उनकी पसंदीदा लाइन को याद कीजिएः कोई भी अछूत नहीं है.
पवार करीब-करीब नास्तिक होने की हद तक सेक्युलर हैं. यह बात उस शख्स के बारे बहुत कुछ कहती है जो मुख के कैंसर के इलाज में सर्जरी, कीमो और रेडिएशन के एक से एक विकट दो दौर झेल चुका है. वे वामपंथ तथा डीएमके के अपने दोस्तों और कांग्रेस के चिदंबरम तथा एंटनी की तरह पद की शपथ ईश्वर के नाम पर नहीं, ‘सत्यनिष्ठा से घोषणा’ करते हुए लेते हैं. मुझे उन्हें जानने का पहला अवसर 1990 के दशक के शुरुआती वर्षों में मिला जब वे पी.वी. नरसिंह राव के रक्षा मंत्री थे. उस वक्त जब उन्होंने बेकार पड़ी पुरानी छावनियों को आलीशान बनाने की और उनकी अतिरिक्त जमीन के बेहतर इस्तेमाल की बात की तो फौरन दिमाग में शक के कीड़े रेंगने लगे. अच्छा तो यह वो शख्स है जो बॉम्बे के रियल एस्टेट को इतनी अच्छी तरह जानता है कि जितना आप और मैं अपने लिविंग रूम को भी नहीं जानते और अब इसकी नजर डिफेंस लैंड पर है! खुद मैंने इसे लेकर एक बार मजाक करने की कोशिश की थी. एक रात्रिभोज में मैंने एक पाकिस्तानी राजनयिक को श्चेतावनी्य दी थी कि अब वे भारत से लड़ाई मोल लेने की कल्पना भी न करें. मैंने कहा था, “अभी तक हरेक युद्ध के बाद सीजफायर होने पर आपको हारी हुई जमीन वापस मिल जाती थी. अब ऐसा नहीं होगा. अब आपको और हमें नक्शों की अदला-बदली में जितना वक्त लगेगा उतने वक्त में तो हम आपकी जमीन बिल्डरों को बेच चुके होंगे और वे भी खरीदारों के साथ पाकिस्तान व्यू अपार्टमेंट के सौदे कर चुके होंगे.” यह घटिया लतीफा था.
एक रिपोर्टर की जिंदगी में अपनी बीट पर जूतियां घिसने से बेहतर पाठशाला कोई दूसरी नहीं होती. चूंकि मुझे प्रतिरक्षा पर नजर रखनी होती थी (इंडिया टुडे के लिए), लिहाजा मैं पवार को ज्यादा नजदीक से समझ सका. वे सही, असरदार और विचारशील थे. अपने मार्गदर्शक और गुरु वाई.बी. चव्हाण से वे प्रेरणा हासिल करते थे, जिन्होंने 1962 के बाद हमारी फौजों का पुनर्निर्माण किया था. अपने छोटे-से कार्यकाल में उन्होंने एक युगांतरकारी बदलाव किया. उन्होंने सशस्त्र बलों के दरवाजे महिलाओं के लिए खोल दिए. यह कयास लगाने का दिल करता है कि ऐसा उन्होंने इसलिए किया क्योंकि उनकी एकमात्र संतान बेटी है, लेकिन सच यह है कि स्त्री-पुरुष समानता के मामले में वे हमेशा वक्त से आगे हैं. उन्होंने महाराष्ट्र में महिलाओं को संपत्ति में हक देने का कानून बनाया और स्थानीय निकाय के चुनावों में उन्हें 33 फीसदी आरक्षण दिया.
पवार ने प्रधानमंत्री पद के लिए राव को चुनौती दी और मुंह की खाई. तो भी 1992 के आखिर में बाबरी मस्जिद के ध्वंस के बाद जब बंबई दंगों की आग में सुलग रही थी तो राव ने उन्हीं पर भरोसा किया कि वे महाराष्ट्र लौटें और अमन-चैन कायम करें. इस काम को भी उन्होंने शानदार ढंग से अंजाम दिया. जल्दी ही बंबई पर एक ज्यादा बड़ी आफत आन पड़ी. वह थी 1993 के सिलेसिलेवार धमाके. इस चुनौती पर भी वे खरे उतरे. बाद में 2006 में उन्होंने मेरे साथ एक ऑन-रिकॉर्ड इंटरव्यू में यह रहस्योद्घाटन किया कि उस दोपहर हालात पर काबू पाने के लिए उन्होंने जान-बूझकर एक झूठ बोला था और कहा था कि एक मुस्लिम-बहुल इलाके में भी बम फूटे हैं. ऐसा कहकर वे नाराज हिंदुओं और शिवसैनिकों को शांत भले न कर पाए हों, भ्रम में डालने में तो कामयाब हो ही गए, ताकि उनकी पुलिस को हालात पर काबू पाने के लिए समय मिल जाए. हमने उन्हें खासकर कांग्रेस से नाता तोड़कर अपनी अलग राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी बनाने के बाद ऊपर चढ़ते और नीचे गिरते देखा है. लेकिन दस वर्ष तक लगातार एक मंत्रालय की जिम्मेदारी संभालने वाले यूपीए के दुर्लभ मंत्री के तौर पर वे कहीं बेहतर कृषि मंत्री साबित हुए. गरीबी हटाने की कांग्रेसी बहसों से न तो किसानों की तकलीफ कम हुई और न ही उनकी खुदकुशी-गाथा समाप्त हुई, अलबत्ता यही वह दौर था जब कृषि क्षेत्र में उल्लेखनीय बढ़ोतरी देखी गई. अगर मनमोहन सिंह ने सच्चा संस्मरण लिखा तो वे भी बताएंगे कि मंत्रिमंडल में पवार उनके सबसे निष्ठावान और सुधार-समर्थक सहयोगी थे, जो कांग्रेस के हाथों बारंबर के अपमान को बर्दाश्त करते रहते थे.
राष्ट्रभक्त, सेक्युलर और कुशाग्र राजनेता के तौर पर उनके इस बखान और उनकी छवि के ज्यादा कुख्यात पहलुओं के बीच क्या कोई मेल है? कोई उन्हें बेईमान बताएगा, भारत, एशिया या दुनिया भर में सबसे अमीर नेता, तो दूसरी तरफ उन्हें कुलक या प्रच्छन्न समाजवादी बताने वाले भी हैं. क्या इतनी जटिल छवि महज कपोल-कल्पना हो सकती है? उनके करीबी दोस्त और वरिष्ठ पार्टी नेता डी.पी. त्रिपाठी मानते हैं कि पवार को अपने उदार स्वभाव और जीवनशैली की कीमत चुकानी पड़ रही है और यह उनके साथ बड़ा अन्याय है. अनगिनत कहानियां कही जाती हैं कि किस तरह उन्होंने अपने राजनैतिक विरोधियों की मदद की और फिर कथित रूप से शामिल धनराशियों को उसी हिसाब से बराबर या बढ़ाकर बता दिया जाता है. यह भी सच है कि आम तौर पर हमारे पाखंडी राजनैतिक तबके के विपरीत पवार खास तौर पर सादगीपसंद नहीं हैं. वे ठाटदार मेजबान हैं और खुशमिजाज मेहमान भी. बारामती में उनका फार्महाउस सचमुच भव्य है. लेकिन अपने इस गणराज्य में भगवान भी हैं. पवारलैंड से गुजरते हुए नाई और चाय की दुकानों में आपको गणेश तथा अन्य देवताओं के साथ उनकी भी तस्वीरें मिलेंगी.
2009 में (जब प्रणब मुखर्जी ने ‘मिले-जुले संकेतों’ वाली बात कही थी) तब पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य ने त्रिपाठी से पूछा था कि वे पवार का वर्णन किस रूप में करेंगे. त्रिपाठी बताते हैं, “मैंने उनसे कहा कि वह हिंदुस्तान के एकमात्र सच्चे बुर्जुआ नेता हैं.” बाद में जब उन्होंने यह किस्सा पवार को सुनाया तो “उन्होंने कहा, अरे, तुमने मुझे बुर्जुआ कहा?” त्रिपाठी ने कहा कि यह उनकी तारीफ ही थी क्योंकि देश की सामंती राजनीति को खत्म करने के लिए इसी की जरूरत है. वे यह भी बताते हैं कि हाल ही में संसद में एक समारोह के दौरान नरेंद्र मोदी खुद चलकर पवार का अभिवादन करने आए और शिकायत की कि वे अपने इस पुराने दोस्त से मिलने क्यों नहीं आए. त्रिपाठी कहते हैं, “बुर्जुआ नेता से मेरा मतलब यह है, यानी असल में जमीन से जुड़ा हुआ नेता. सोनिया और राहुल ऐसा कभी नहीं करेंगे.”
इससे हम किस नतीजे पर पहुंचे? मैं जानता हूं कि बरसों से भीतर ही भीतर खौल रहे हैं, कांग्रेस के खिलाफ, जो राज्य में बेहिसाब भ्रष्टाचार के लिए अकेले उनकी पार्टी को दोषी ठहराती है. वे कोई फरिश्ते नहीं हैं, लेकिन उनकी बात में दम है, जब वे कहते हैं कि महाराष्ट्र में शहरी विकास मंत्रालय महज एटीएम नहीं बल्कि टकसाल है और मुख्यमंत्री पद के साथ-साथ यह मंत्रालय भी हमेशा कांग्रेस के पास रहा है. उनकी ताजातरीन चालों पर मेरे भीतर का राजनैतिक रिपोर्टर मुग्ध है. मैं खालिस विश्लेषक होता तो कहता कि इस बार उनके संकेत उतने मिले-जुले नहीं हैं. वह सेक्युलर बने रहेंगे, लेकिन उन्हें खुशी होगी यदि सबसे बड़ी पार्टी या समूह को समर्थन के लिए उनकी जरूरत पड़े. वह अपने टिकाऊ सिद्धांत का साथ नहीं छोड़ेंगेः कोई भी अछूत नहीं है.
इस बीच, क्योंकि एनआरआइ भी इस कदर सितारे बन गए हैं न्यूयॉर्क में: आप्रवासी भारतीयों या एनआरआइ में कुछ-न-कुछ बात तो जरूर है जो हमारे नेताओं और क्रिकेटरों को विदेश यात्राओं के दौरान इस कदर लुभाती है. मोदी और एनआरआइ का प्रेम संबंध अलबत्ता अब एक नए स्तर पर पहुंच चुका है जहां हम समुंदर पार से नए सितारों के अभ्युदय की उम्मीद कर सकते हैं.
मेरी यह स्टोरी होटेलियर और धन इकट्ठा करने तथा बांटने वाले संत सिंह चटवाल के बारे में है. 23 अक्तूबर को चुनाव अभियान के लिए धन उगाहने में धोखाधड़ी के लिए वे कम से कम पांच साल की सजा का इंतजार कर रहे हैं. हमेशा से कांग्रेस के कृपापात्र रहे चटवाल को 2010 में पद्मभूषण तक से नवाजा गया था. इसके बावजूद उस वक्त मैं जिस अखबार का संपादन कर रहा था, वह लगातार उनके मामले के पीछे लगा रहा. एक तरफ तो उन्होंने कानूनी नोटिसों की झ्ड़ी लगा दी. दूसरी तरफ सामाजिक अवसरों पर उतनी ही गर्मजोशी से मिलना जारी रखा.
एक दफे जब मैं न्यूयॉर्क की यात्रा पर था और गर्मी की एक दोपहर में यूं ही भटक रहा था, तो एक दोस्त मुझे घसीटकर एक नए देसी हॉटस्पॉट ‘के’ (काम सूत्र) लाउंज में फिफ्थ एवेन्यू के बाहर फिफ्टी सेकंड स्ट्रीट पर ले गए. इस हॉटस्पॉट के मालिक थे चटवाल. वहां लाल मखमली सोफे और कुशन थे. वेट्रेस खूबसूरत, लंबी और छोटे से छोटे शाटड्ढ्र्स पहने हुए थीं.
हम अभी कुशनों में मुश्किल से धंसे ही थे कि अचानक गर्मजोशी से भरी एक आवाज आई. “ओ माइ फ्रेंड शेखरभाई, व्हाइ डिडंट यू टेल मी यू वर इन न्यूयॉर्क.” और जो भी कहा जाए, चटवाल की एक बात बिल्कुल खरी है और वह है उनकी पंजाबी लहजे में बोली गई अंग्रेजी. उन्होंने माइ फ्रेंड को नहीं बताने के लिए भी फटकार लगाई क्योंकि अब उन्हें क्लिंटन दंपती के स्वागत के लिए जाना पड़ रहा था और वह निजी तौर पर मेरा ख्याल नहीं रख सकेंगे. यह तब जब हम उनके ताजा मानहानि नोटिस का जवाब तैयार कर रहे थे. फिर उन्होंने एक वेट्रेस, संभवतः सबसे लंबी वेट्रेस, को बुलाया.
“हियर इज माइ फ्रेंड, सो ऐंड सो, यू हैव टु लुक आफ्टर हिम रियली वेल, वेरी, वेरी, वेरी वेल, देयर शुड बी नो कंप्लेंट, ओल्गा, डू यू अंडरस्टैंड, माइ फ्रेंड, वेरी इंपोरटेंट मैन फ्रॉम इंडिया...” वे कहे जा रहे थे जबकि मेरे कान शर्म से शायद लाल हो चुके थे. ओल्गा कुशनों के ढेर की बगल में निर्लिप्त-सी खड़ी रही. उसके शॉटड्ढ्र्स की किनारी अब भी मेरी नजरों से ऊपर थी. मुझसे माफी और उसे हिदायतों के एक और दौर के बाद संत जी चले गए.
ओल्गा हमें आश्वस्त करने के भाव से मुस्कराई. उसने पीछे मुड़कर जाते हुए अपने मालिक को देखा और कहा, “परेशान मत होइए, सर, वे ऐसे... हैं. अब बताइए आप क्या पीना पसंद करेंगे?”
राष्ट्र हित: शरद पवार होने के मायने
महाराष्ट्र 2014 के चुनाव में शरद पवार का करतब अब तक का सबसे अनूठा हो सकता है.

अपडेटेड 7 अक्टूबर , 2014
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