आप कुछ भी कहें, लेकिन राजनैतिक मौके की अमर सिंह की समझ पर कोई उंगली नहीं उठाई जा सकती. सत्ता के हाशिए पर खड़े समाजवादी पार्टी (सपा) के पूर्व महासचिव अमर सिंह की तेज नजरें यूपीए की ढलती हुई शाम और मुलायम सिंह के चढ़ते सूरज पर बराबर टिकी हुई हैं और मन ही मन उनकी गणना भी पूरी हो चुकी है कि अगर वापस लौटना है तो इससे बेहतर समय फिर नहीं आने वाला. और नई शुरुआत के लिए वाराणसी से शुभ जगह और क्या हो सकती है भला!
22 सितंबर को मंदिरों के इस शहर में कदम रखने के साथ ही उन्होंने तय कर लिया था कि यूपीए को समर्थन देने के मुलायम के फैसले की ‘‘राजनैतिक परिपक्वता’’ की तारीफ करने में वे कोई कसर नहीं छोड़ेंगे क्योंकि इससे दो पुराने दोस्तों के बीच के मनमुटाव को दूर होने का मौका मिलेगा जो समय की भूलभुलैया में विरोधी बन बैठे थे.
इंडिया टुडे ने जब उनसे अचानक बदले रुख के बारे में पूछा तो उन्होंने जवाब दिया, ‘‘हमारे साझ संपर्क सूत्रों से मुझे मालूम हुआ है कि मुलायम और अखिलेश दोनों ही मेरे बारे में हमेशा अच्छी बातें करते रहे हैं. वे उन पुराने दिनों को याद करते हैं जब हम साथ समय बिताते थे. अगर कोई मेरे बारे में अच्छा बोल रहा है तो मैं उसके बारे में बुरा क्यों बोलूं?’’ उन्होंने आगे कहा, ‘‘आज भी अखिलेश कहते हैं कि मैं हमेशा उनका चाचा रहूंगा, तो मैं कैसे उसे अपना भतीजा नहीं मानूं?’’
राजनैतिक रुख जो भी हो, वे इस बात से अच्छी तरह वाकिफ हैं कि अगले आम चुनावों में संसद में कोई एक पार्टी बहुमत लेकर नहीं आने वाली, ऐसे में मुलायम का इक्का सबसे सुरक्षित रहने वाला है. उन्हें उम्मीद है कि उनके पुराने दोस्त को शायद ऐसे नेटवर्कर की जरूरत होगी जो उनके सारे आंकड़ों की बारहखड़ी को सही जगह पर बिठा सके.
उन्होंने बड़े सही ढंग से समझाया, ‘‘आप दो तरीके से प्रधानमंत्री बन सकते हैं: एक, आप आइ.के. गुजराल या एच. डी. देवेगौड़ा की तरह नाम भर के लिए पद पर बैठे हों जिनसे किसी को कोई खतरा न महसूस हो; दूसरा, इंदिरा गांधी या राजीव गांधी की तरह आपके पीछे विशाल जनसमुदाय हो. मुझे नहीं लगता कि मुलायम सिंह कमजोर नेता हैं. हर किसी के मन में उनसे हारने का डर समाया हुआ है, लिहाजा सभी पार्टियां एकमत से उन्हें चुनें, इसकी संभावना कम दिखाई देती है. इसलिए उन्हें संख्या की जरूरत तो पड़ेगी ही.’’
सिर्फ एक ही उलझ्न है. सपा को अब भी बखूबी याद होगा कि महज छह महीने पहले अमर ने पूरे उत्तर प्रदेश में जो चुनाव अभियान चलाया था, उसका एक ही लक्ष्य था-मुलायम और अखिलेश सत्ता में न लौटें. सपा नेताओं के कानों में अब भी अमर के अल्फाज गूंज रहे हैं जो उन्होंने मतदाताओं के कानों में फूंके थे कि मुलायम ने कैसे उनको धोखा दिया और ‘‘भावनाओं और राजनीति, दोनों ही स्तर पर ईमानदारी नहीं निभा सके.’’
चुनाव अभियान के दौरान अपने भाषण के अंत में अमर अकसर एक चेतावनी देते, ‘‘अगर फिर भी यूपी की जनता मुलायम सिंह को अपना बादशाह और उनके बेटे को शाहजादा सलीम बनाती है तो उत्तर प्रदेश इसी के लायक है. ’’ मगर यकायक अमर की बोली, अंदाज, और तराना क्यों बदले-बदले नजर आ रहे हैं. उनका कहना है, ‘‘न तो मेरे पास कोई (सपा में शामिल होने) प्रस्ताव लेकर आया, न ही मैंने अपनी ओर से कदम बढ़ाया है, ’’ लेकिन इसी के साथ वे झट से आगे जोड़ते हैं, ‘‘कड़वाहट धुल चुकी है.’’
इससे पार्टी प्रभावित नहीं दिख रही है. सपा के प्रवक्ता राजेंद्र चौधरी यह कहकर साफ बचते नजर आए, ‘‘उनकी टिप्पणी पर पार्टी कोई ध्यान नहीं देती.’’ सपा सरकार के एक वरिष्ठ कैबिनेट मंत्री ने कहा, ‘‘मुलायम की तारीफ में अमर की कशीदाकारी अपने प्रति सपा के रुख को पढऩे के लिए की जा रही रणनीतिक कोशिश का हिस्सा है.’’ तो सपा के एक सासंद ने बताया, ‘‘अगर अखिलेश उन्हें चाचा बुलाते हैं तो यह बस शिष्टाचार है, न कि स्नेह.’’
सोच-समझकर कही गई बातें राजनैतिक मंच पर खाली बैठे ठाकुर के कानों में मिश्री तो घोलने से रहीं. अमर ही एकमात्र नाम है जिस पर वे नेता भी एकमत दिखाई देते हैं जिनकी आपस में ठनी हुई है. अखिलेश से लेकर आजम खान तक, शिवपाल यादव से लेकर रामगोपाल यादव तककृसब उनके खिलाफ हैं. अगर मुलायम के मन में पुरानी दोस्ती की ओर बढऩे की सुगबुगाहट होती भी है तो भी उन्हें वापस पार्टी में लाकर विरोध को सिर उठाने का मौका देने के लिए वे कतई तैयार नहीं होंगे. शायद यही वजह है कि नवंबर, 2011 में रिपोर्टरों से बात करते समय उस पुरानी दोस्ती के लिए मुलायम सिंह के मुंह से बेसाख्ता अलविदा के शब्द निकल ही पड़े थे, ‘‘अमर सिंह का अध्याय खत्म हो चुका है.’’