भारत में माल व सेवा कर (जीएसटी) के रूप में 1 जुलाई 2017 को एक नई व साहसिक—भले ही अब तक अधपकी—व्यवस्था संकट में पड़ गई है. इसके लागू होने के तीन साल बाद, बदलाव की शर्तों पर केंद्र व राज्यों के बीच बड़ी मुश्किल से कायम की गई सहमति की इस समय गंभीर परीक्षा हो रही है. ताजा विवाद केंद्र सरकार के इस वादे से साफ मुकर जाने से है कि राज्यों को जीएसटी लागू करने की वजह से कर राजस्व में जो नुक्सान होगा, वह उसकी भरपाई करेगा.
लॉकडाउन के कारण अर्थव्यवस्था के तकरीबन पूरी तरह ठहर जाने से जीएसटी संग्रह पर काफी प्रतिकूल असर पड़ा था. कुछ दिनों तक अपने कदम खींचते रहने के बाद केंद्र सरकार ने आखिकार 27 अगस्त को जीएसटी काउंसिल की बैठक में राज्यों को यह बुरी खबर सुना ही दी. केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने यह घोषणा की कि केंद्र सरकार को मजबूर होकर उस मुआवजे को रोकना पड़ेगा जिसका उसने वादा किया था. कई लोगों को इस बात का अंदेशा हो चुका था जब निर्मला सीतारमण ने एक तरह का नोटिस देते हुए 27 अगस्त को एक बयान में कोविड-19 महामारी को 'ऐक्ट ऑफ गॉड' (ईश्वर का काम) कहा था.
इसके बाद राज्यों के पास संकट से उबरने और राजस्व में कमी की भरपाई के वैकल्पिक रास्तों के तौर पर सीतारमण ने जीएसटी काउंसिल की मीटिंग में दो बातें सुझाईं—पहली तो यह कि राज्य जीएसटी लागू करने से अनुमानित नुक्सान की 97,000 करोड़ रुपए की राशि उधार ले लें और इसके लिए भारतीय रिजर्व बैंक की ओर से तैयार किए गए विशेष प्रावधान का इस्तेमाल करें, या फिर वित्तीय वर्ष के लिए अनुमानित समूचे 2.35 लाख करोड़ रुपए के नुक्सान की पूरी राशि कर्ज बाजार से उधार ले लें. साल 2020-21 के लिए कुल मुआवजा राशि 3 लाख करोड़ रुपए अनुमानित थी जिसमें से केवल 65,000 करोड़ रुपए ही केंद्र सरकार के लगाए कर में से अदा किए जाएंगे. इस तरह बची हुई 2.35 लाख करोड़ रुपए की राशि के लिए केंद्र सरकार ने खुद को ही 'ऐक्ट ऑफ गॉड' की छूट प्रदान कर दी है!
इस दो टूक बयान ने स्वाभाविक तौर पर राज्यों को बेतरह क्षोभ व गुस्से से भर दिया है. राज्य अपने पूंजी खर्च और कल्याणकारी कदमों, दोनों ही के लिए राजस्व की गंभीर कमी से जूझ रहे हैं—और अब तो उनके पास कोई अतिरिक्त कर का जरिया भी नहीं बचा. (स्टांप ड्यूटी के अलावा कर राजस्व के जीएसटी-मुक्त स्रोत राज्यों के पास केवल दो ही बचे हैं—पेट्रोल व शराब.) दरअसल जीएसटी से पहले की तमाम चर्चाओं में राज्यों को अलग-अलग तरह के अप्रत्यक्ष करों को तजने की सर्वसम्मति इसी वादे पर हासिल की गई थी कि उनको राजस्व में होने वाली कमी की भरपाई कर दी जाएगी.
कमी का आकलन यह मानते हुए किया जाना था कि जीएसटी के राजस्व में 14 फीसद की दर से वृद्धि होगी. इस 14 फीसद की वृद्धि दर का अनुमान भी जीएसटी में तेजी और नॉमिनल जीडीपी विकास दर की उम्मीद में लगाया गया था. लेकिन जीएसटी के लागू होने के तीन साल बीत जाने के बाद भी कर राजस्व कम से कम तेज तो नहीं ही रहे हैं. राज्यों को क्षतिपूर्ति भुगतान के वित्तपोषण के लिए जो जीएसटी सेस लाया गया था उसमें तो महामारी का हमला होने से पहले ही पर्याप्त मात्रा में फंड नहीं जुट पा रहे थे.
महामारी आने से पहले ही जड़ें जमा चुकी आर्थिक सुस्ती से स्वाभाविक तौर पर कर राजस्व पर भी असर पड़ा ही था. अप्रत्यक्ष करों में केंद्रीय उत्पाद शुल्क, सेवा कर, सीमा शुल्क, सेंट्रल जीएसटी, केंद्र शासित क्षेत्र जीएसटी, एकीकृत जीएसटी और जीएसटी मुआवजा सेस शामिल हैं. इनमें वित्तीय वर्ष 2020-21 की अप्रैल जून-तिमाही में 52.5 फीसद का जबरदस्त संकुचन देखने को मिला जबकि साल 2019-20 की इसी तिमाही में 4 फीसद का संकुचन देखने को मिला था.
जीएसटी के मुआवजे में भुगतान में देरी तो एक साल पहले से ही दिख गई थी—जब अगस्त-सितंबर 2019 के लिए मुआवजों में देरी हो गई थी. केंद्र सरकार ने पिछले साल सितंबर में गोवा में हुई जीएसटी काउंसिल की 37वीं बैठक में माना कि उसके सामने दिक्कत है. फिर 27 नवंबर 2019 को उसने राज्यों को लिखा कि पिछले कुछ महीनों में जीएसटी व मुआवजा सेस का संग्रह ''चिंता का सबब'' बन गया है और मुआवजे की जरूरतों को ''पूरा करना मुश्किल'' होगा. लिहाजा अगस्त-सितंबर 2019 के लिए 35,298 करोड़ रुपए के मुआवजे का जो भुगतान अक्तूबर में किया जाना था, वह दिसंबर में किया गया और अक्तूबर व नवंबर 2019 में किए जाने वाले भुगतान फरवरी व अप्रैल 2020 में किए गए.
भाजपा-शासित 13 राज्य तो खामोशी से केंद्र की इस चूक की योजना को मान गए हैं और उन्होंने कर्ज की अपनी पसंद जाहिर कर दी है. बारह राज्यों ने पहला विकल्प चुना है और केवल मेघालय ने दूसरा विकल्प चुनते हुए कहा है कि वह बाजार से कर्ज लेगा. लेकिन गैर-भाजपा शासित राज्यों ने विरोध में स्वर उठा रखे हैं और उनका कहना है कि यह उस समझौते की मूल भावना का उल्लंघन है जिस पर जीएसटी के क्रियान्वयन की बुनियाद टिकी हुई थी.
पश्चिम बंगाल, तेलंगाना, केरल, दिल्ली, छत्तीसगढ़ व तमिलनाडु ने केंद्र को इस बारे में लिखा है और उन्होंने कमी को पूरा करने के लिए राज्यों की ओर से कर्ज लिए जाने के प्रस्ताव का विरोध किया है.
केरल का कहना है कि मुआवजे में जबरन कटौती करना और राजस्व में जीएसटी—व कोविड—संबंधित नुक्सान में अंतर करना दरअसल असंवैधानिक है. उसने यह भी दलील दी है कि अगर 2.35 लाख करोड़ रुपए की राशि बाजार से उधार पर लेनी ही है तो फिर राजकोषीय घाटे वाले राज्यों पर से एफआरबीएम (राजकोषीय उत्तरदायित्व व बजट प्रबंधन) की सीमा कम से कम 1.5 फीसद अंक बढ़ाई जानी चाहिए. दिल्ली ने यह सवाल उठाया है कि राष्ट्रीय राजधानी की केंद्र शासित क्षेत्र की हैसियत उसकी रिजर्व बैंक से कर्ज लेने की क्षमता (पहले विकल्प के तौर पर) को नुक्सान पहुंचा सकती है.
पश्चिम बंगाल ने दलील दी है कि जीएसटी को अमल में लाने वाले संविधान अधिनियम 2016 के—मुआवजे से संबंधित—अनुच्छेद 18 की और कोई भी व्याख्या कारगर नहीं होगी (अधिनियम का अनुच्छेद 18 कहता है कि जीएसटी काउंसिल की सिफारिश पर संसद जीएसटी लागू करने से होने वाले राजस्व के नुक्सान की भरपाई पांच साल तक राज्यों को करेगी). पहले विकल्प मे राशि का पुनर्भुगतान जीएसटी के पांच साल बाद यानी जून 2022 के बाद हो सकता है; फिर एफआरबीएम अधिनियम के तहत उधार की सीमा में भी 0.5 फीसद की रियायत है. लेकिन बाजार से उधार लेने वाले दूसरे विकल्प के लिए फिलहाल किसी किस्म की एफआरबीएम रियायत का ऐलान नहीं किया गया है.
अर्थशास्त्रियों ने चेताया है कि जीएसटी के समझौते पर अपने वादे को पूरा नहीं करने और उसके लिए उलटे राज्यों को अनुशासित करने के सख्त कदम उठाने की केंद्र सरकार की यह हरकत भारत की आर्थिक स्थिति सुधारने की कवायद पर प्रतिकूल असर डालेगी. इनमें से कई की दलील यह भी है कि राज्यों की तुलना में केंद्र सरकार फंड जुटाने के लिए बेहतर स्थिति में है. नाम जाहिर न करने की शर्त पर एक अर्थशास्त्री ने कहा, ''यह कोई राज्यों को अनुशासित करने का वक्त नहीं है. मजबूर होकर राज्यों को पूंजीगत खर्च रोकने पड़ेंगे और वे ऊंची ब्याज दरों पर कर्ज लेंगे.''
राज्यों के कुल राजस्व में 45 फीसद हिस्सा कर राजस्व का होता है. रिजर्व बैंक के राज्यों के वित्त पर एक अध्ययन के अनुसार केंद्र सरकार राज्यों के राजस्व के 47.5 फीसद के बराबर राशि हस्तांतरित करती है. राज्यों के कर राजस्व का करीब 90 फीसद शराब व पेट्रोल उत्पादों पर कर, स्टांप ड्यूटी और वाहनों के पंजीकरण से आता है. लेकिन आर्थिक बदहाली का असर इन सब मदों में भी होने वाले कर राजस्व पर भी खासा पड़ा है. उक्त अर्थशास्त्री का कहना था कि राज्यों की माली हालत पहले ही इतनी खराब है और उसमें, ''उन्हें धन उपलब्ध कराने की बजाए उनसे उधार लेने के लिए कहना दरअसल स्थिति को और भी गंभीर बनाएगा.'' जाहिर है कि केंद्र सरकार को अपने विकल्पों पर पुनर्विचार करना पड़ सकता है.