नई दिल्ली में 6 दिसंबर को जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन से मिले तो दोनों की देहभाषाएं गर्माहट भरी और मुस्कान अनौपचारिक थीं. यह दोनों नेताओं के बीच पिछले दो साल में पहली निजी मुलाकात थी. अक्तूबर, 2018 को पुतिन के पिछले दौरे के दौरान, सार्स कोव-2 वायरस का नामकरण भी नहीं हुआ था और वह चीन में चमगादड़ों की गुफा में ही घूम रहा था, तब भारत के सामने विवादित सीमा पर तैनात हो रहे सैन्य ट्रकों से ज्यादा अहम कुछ नहीं था और राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप व्हाइट हाउस में अपनी दूसरी पारी को लेकर आश्वस्त थे.
पिछले दो वर्षों की घटनाओं ने भारत-रूस संबंधों को तनावपूर्ण बना दिया है. क्रीमिया पर कब्जे की घटना के बाद 2015 में अमेरिका ने रूस पर दबाव बढ़ा दिया, जिससे रूस की चीन से नजदीकी बढ़ गई. यह साझेदार नई दिल्ली के लिए रणनीतिक मामलों को जटिल बनाती है, क्योंकि चीन से भारत के संबंध वर्तमान में चार दशकों में अपने सबसे निचले स्तर पर हैं. दोनों पक्षों ने अभी तक उन हजारों सैनिकों, टैंकों और बख्तरबंद वाहनों को वापस नहीं बुलाया है, जिन्हें वे पिछले साल मई में पूर्वी लद्दाख में एलएसी (वास्तविक नियंत्रण रेखा) पर ले गए थे.
भारत और रूस शक्तिशाली राष्ट्रों के इस जटिल चतुर्भुज में अपने संबंधों को आगे बढ़ा रहे हैं. नई दिल्ली मॉस्को और वॉशिंगटन दोनों को रणनीतिक साझेदारों के रूप में देखता है—वे अत्याधुनिक सैन्य उपकरणों के दो सबसे बड़े आपूर्तिकर्ता भी हैं. 2017 के बाद से, अमेरिका की सीएएटीएसए (काउंटरिंग अमेरिकन एडवर्सरीज थ्रू सैंक्शंस ऐक्ट) नीति के तहत अमेरिकी प्रतिबंधों का जोखिम होने के बावजूद रूस से भारत के हथियारों के आयात जारी रहा—भारत ने 2018 में अमेरिकी विरोध के बावजूद पांच एस-400 लंबी दूरी की वायु रक्षा मिसाइल प्रणाली खरीदी. हालांकि, इसकी वजह से अब तक प्रतिबंध लगाए नहीं गए हैं. इस बारे में कारोबारी मामले भी भूमिका निभा रहे हैं—अमेरिका को उम्मीद है कि भारत उससे हेलिकॉप्टर, ड्रोन, मिसाइल और टोही विमान खरीदेगा, जिसकी अनुमानित कीमत 10 अरब डॉलर (करीब 75,500 करोड़ रुपए) है.
राष्ट्रपति पुतिन ने दिल्ली में बिताए समय की तुलना में मॉस्को से नई दिल्ली की हवाई यात्रा में अधिक समय बिताया. यह शिखर सम्मेलन उनकी सबसे छोटी यात्राओं में से एक, पांच घंटे से भी कम समय तक चला. लेकिन दो साल में केवल उनकी दूसरी विदेश यात्रा के हासिल का महीनों तक अध्ययन किया जाएगा, खासकर जब से दोनों देशों के विदेश और रक्षा मंत्रियों के बीच 'टू प्लस टू' संवाद प्रारूप के तहत पहली बैठक भी हुई. पूर्व विदेश सचिव कंवल सिब्बल ने शिखर यात्रा को बेहद प्रतीकात्मक बताया. वे कहते हैं, ''कहना होगा कि अमेरिका से हमारे संबंध किसी भी तरह से रूस के साथ हमारे संबंधों से जुड़े नहीं हैं. यह (नई दिल्ली के) चीन के लिए संकेत है—आखिर इस टू प्लस टू डायलॉग का मकसद क्या है?''
इसका सबसे ठोस परिणाम 2021-31 तक सैन्य तकनीकी सहयोग के लिए एक दशक लंबे कार्यक्रम पर एक समझौता था. इसके साथ, नई दिल्ली ने संकेत दिया है कि मॉस्को के साथ उसके सैन्य संबंध अमेरिकी प्रतिबंधों के अंदेशे के असर से अछूते हैं. अन्य परिणाम कुछ हद तक कम थे. अमेठी में एक आयुध कारखाने में 6,00,000 एके-203 असॉल्ट राइफल बनाने के लिए वास्तव में हस्ताक्षरित एकमात्र सौदा 70 करोड़ डॉलर (करीब 5,200 करोड़ रुपए) का था.
इस अवसर के लिए कई बड़े सौदों पर हस्ताक्षर नहीं किए गए. चार रीफर्बिश्ड किलो-क्लास पनडुब्बियों के लिए रूसी प्रस्ताव अब वार्ता से बाहर है क्योंकि भारतीय नौसेना उन्हें नहीं चाहती है. शिखर वार्ता में 3 अरब डॉलर (करीब 22,600 करोड़ रुपए) से अधिक की दूसरी रूसी नौसेना अकुला-श्रेणी की परमाणु संचालित लड़ाकू पनडुब्बी पर भी चर्चा नहीं हुई. विश्लेषक केवल यह अनुमान लगा सकते हैं कि कोई नई ऊर्जा डील या यहां तक कि डिफेंस लॉजिस्टिक्स शेयरिंग समझौता क्यों नहीं किया गया—क्या यह नौकरशाही या सौदेबाजी में फंसा या भारत, अमेरिका से सीधे उलझने के मूड में नहीं था.
मॉस्को स्थित थिंकटैंक सेंटर फॉर एनालिसिस ऑफ स्ट्रैटजीज ऐंड टेक्नोलॉजीज के निदेशक रुस्लान पुखोव कहते हैं, ''शिखर सम्मेलन भारत के लिए कूटनीतिक जीत है. रूस-चीन तालमेल के संदर्भ में और भारतीय कंपनियों के खिलाफ अमेरिकी प्रतिबंधों को रोकने के लिए मोदी ने पुतिन के साथ अच्छे संबंध बनाए.'' उनका कहना है कि अमेरिकी दबाव ने भारत को ''रूस के लिए दोगुना महत्वपूर्ण'' बना दिया है, यही वजह है कि मॉस्को अब प्रौद्योगिकी हस्तांतरण के लिए पहले से कहीं अधिक तैयार है. यह भारत के रक्षा प्रतिष्ठान के लिए इससे ज्यादा अनुकूल बात कुछ हो नहीं सकती.