यह पहली बार नहीं है जब पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह को पार्टी के भीतर से उठे असंतोष का सामना करना पड़ रहा है. मुख्यमंत्री के रूप में अपने पहले कार्यकाल (2002-07) के दौरान, साल 2005 में उनकी डिप्टी राजिंदर कौर भट्टल ने विद्रोह का नेतृत्व किया था. भट्टल ने 25 कांग्रेस विधायकों के साथ नई दिल्ली में डेरा डाल लिया था और कैप्टन को उनके पद से हटाने की मांग पर अड़ गई थीं. बागी खेमे का आरोप था कि अमरिंदर अपने कुछ चहेते अधिकारियों की एक टोली के साथ सरकार चलाते हैं, निर्णय लेते समय पार्टी विधायकों के विचारों की अनदेखी करते हैं और भ्रष्ट मंत्रियों के खिलाफ कार्रवाई की हिम्मत नहीं जुटा पाते. हालांकि कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के समर्थन से कैप्टन उस विद्रोह के बावजूद बच गए, लेकिन कुछ उसी प्रकार के संकट से वे अपने दूसरे कार्यकाल में घिरे दिखते हैं और उनके कैबिनेट के सहयोगी तथा पार्टी के विधायक खुले तौर पर उनके आदेशों की अवहेलना कर रहे हैं.
मई के अंत में, कांग्रेस ने अमरिंदर के खिलाफ शिकायतों की जांच के लिए राज्यसभा सांसद मल्लिकार्जुन खड़गे, (ऑल इंडिया कांग्रेस कमिटी) एआइसीसी महासचिव और पंजाब प्रभारी हरीश रावत और पूर्व सांसद जे.पी. अग्रवाल की तीन सदस्यीय समिति का गठन किया. समिति ने असंतुष्टों से मुलाकात की है, जिनमें कैबिनेट मंत्री चरणजीत सिंह चन्नी और सुखजिंदर सिंह रंधावा, राज्य विधानसभा अध्यक्ष राणा के.पी. सिंह, क्रिकेटर से नेता बने नवजोत सिंह सिद्धू और 23 विधायक शामिल हैं. इस बात की पूरी संभावना है कि पैनल अमरिंदर के करीबी माने जाने वाले अन्य मंत्रियों की राय लेने के साथ-साथ पंजाब कांग्रेस के पूर्व प्रमुख प्रताप सिंह बाजवा, शमशेर सिंह डुल्लो, मोहिंदर सिंह केपी और राजिंदर कौर भट्टल से भी राय-मशविरा करेगा. इनमें से कई नेता अमरिंदर के धुर विरोधी माने जाते हैं.
पंजाब कांग्रेस में पिछले दो वर्षों से जबरदस्त गुटबाजी देखी जा रही है, लेकिन हाल के कुछ घटनाक्रम ने स्थिति को गंभीर बना दिया है. राजनैतिक रूप से महत्वाकांक्षी सिद्धू, कई मुद्दों को लेकर अमरिंदर सिंह सरकार पर हमले करते रहे हैं. इससे बागियों को शह मिली. वे एकजुट होकर मई में लगातार बैठकें करते रहे. सिद्धू का दावा है कि राज्य का सतर्कता विभाग उनके समर्थकों को डरा रहा है, जबकि हॉकी खिलाड़ी से विधायक बने परगट सिंह ने मुख्यमंत्री कार्यालय के एक अधिकारी पर उन्हें धमकाने का आरोप लगाया है. आखिरकार, मई के अंतिम सप्ताह में कांग्रेस महासचिव (संगठन) के.सी. वेणुगोपाल ने चन्नी को सूचित किया कि असंतुष्ट नेताओं की बात सुनने के लिए एक कमेटी गठित कर दी गई है.
बंटी हुई कांग्रेस
अमरिंदर को सोनिया गांधी का करीबी माना जाता है, जबकि सिद्धू और चन्नी जैसे उनके विरोधी राहुल गांधी और प्रियंका गांधी-वाड्रा का वरदहस्त प्राप्त है. दोनों भाई-बहन सिद्धू को ऐसे करिश्माई नेता के रूप में देखते हैं जो पंजाब के युवाओं के बीच अच्छी पकड़ रखते हैं. लेकिन हाल के विधानसभा चुनावों में राहुल और प्रियंका गांधी की विफलता को देखते हुए, यह कहना मुश्किल है कि पंजाब में, पार्टी के मामलों में राहुल और प्रियंका की कितनी चलेगी. पंजाब में 10 महीने में चुनाव होने वाले हैं.
पंजाब एकमात्र कांग्रेस शासित राज्य है जिसने 2014 के बाद से नरेंद्र मोदी की लहर को लगातार बेअसर किया है. पार्टी के राज्य से आठ लोकसभा सांसद (कुल 13 में से 8) और 117 सदस्यीय विधानसभा में 80 विधायक हैं. पार्टी के रणनीतिकारों का एक भी गलत कदम भाजपा को चुनावी लाभ दे सकता है, जो लंबे समय से चल रहे किसानों के आंदोलन और अपने पुराने सहयोगी शिरोमणि अकाली दल के राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन से अलग होने के कारण पंजाब में बैकफुट पर है. भाजपा नेता कांग्रेस के असंतुष्टों की पीठ ठोक रहे हैं तो सिद्धू पर आप (आम आदमी पार्टी) डोरे डाल रही है.
वहीं, दिल्ली में कांग्रेस के शीर्ष नेताओं ने इंडिया टुडे को बताया कि पंजाब में एक नए मुख्यमंत्री को गद्दी देने का कोई सवाल ही नहीं पैदा होता है. उन्होंने कहा कि आगामी विधानसभा चुनावों के लिए सारे प्रयास अमरिंदर के समर्थकों तथा उनके विरोधी खेमे को एक साथ लाने के लिए होंगे. लेकिन यह कहना जितना आसान है, करना उतना ही मुश्किल. असंतुष्टों के मन में अमरिंदर के खिलाफ कई शिकायतें हैं. वे विभिन्न बोर्डों और राज्य निकायों में राजनैतिक नियुक्तियों को लेकर बुरी तरह चिढ़े हुए हैं. अपने निर्वाचन क्षेत्रों के लिए विकास निधि जारी करने में 'जानबूझकर विलंब', अमरिंदर के विधायकों के लिए उपलब्ध नहीं होने और सरकार चलाने के लिए नौकरशाहों पर उनकी अत्यधिक निर्भरता से पार्टी के विधायक नाराज हैं. वहीं, वे मुख्यमंत्री के करीबी मंत्रियों और अधिकारियों पर भी भ्रष्टाचार के आरोप लगा रहे हैं.
इन सबसे बढ़कर, 2015 में पंजाब में गुरु ग्रंथ साहिब की बेअदबी की घटना अमरिंदर के लिए एक नए विवाद के रूप में सामने आई है. इस साल अप्रैल में, पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय ने 2015 में फरीदकोट जिले में बेअदबी की उस घटना के विरोध में हुए प्रदर्शन के दौरान हुई पुलिस फायरिंग की एसआइटी (विशेष जांच दल) की जांच पर प्रतिकूल टिप्पणी की और इसकी रिपोर्ट को खारिज कर दिया. इस भावनात्मक मुद्दे पर सबसे पहले सिद्धू ने अमरिंदर को घेरा और बहुत आक्रामक रुख अपनाया था. लेकिन जेल में बंद डेरा सच्चा सौदा के प्रमुख गुरमीत राम रहीम के साथ अपनी तस्वीरें सामने आने के बाद सिद्धू नरम पड़ गए.
पंजाब में विभिन्न सिख समूहों का आरोप है कि उन बेअदबी की घटनाओं के पीछे डेरा के शीर्ष पदाधिकारियों का हाथ है. डेरा सच्चा सौदा पर लगे आरोप अमरिंदर के लिए शर्मिंदगी की वजह बन रहे हैं, क्योंकि अतीत में उन्होंने गुरमीत राम रहीम का खुलकर समर्थन किया था.
पंजाब के मालवा क्षेत्र के दलित सिखों के बीच डेरा का अच्छा-खासा प्रभाव है. दलित सिखों का उच्च जाति के सिखों, विशेष रूप से जमींदार जाट सिख समुदाय, के साथ तनावपूर्ण समीकरण है जो पिछले सितंबर में केंद्र की ओर से लाए गए विवादास्पद कृषि कानूनों के खिलाफ आंदोलन में सबसे आगे रहा है. राज्य कांग्रेस को चिंता है कि मालवा का उसका पारंपरिक वोट बैंक कहीं छिटककर शिरोमणि अकाली दल और भाजपा जैसे विपक्षी दलों के हाथों में न चला जाए.
सिद्धू का भले ही कांग्रेस विधायकों या जमीनी कार्यकर्ताओं पर ज्यादा प्रभाव न हो, लेकिन अमरिंदर के खिलाफ उनके हमले ने असंतुष्टों को बगावत का बल तो दिया ही है. अमरिंदर ने अमृतसर पूर्व से विधायक सिद्धू पर पलटवार करते हुए दावा किया कि वे केवल कांग्रेस छोड़ने का कोई बहाना तलाश रहे थे, हालांकि उनके पास कांग्रेस के बाहर वास्तव में बहुत कम विकल्प हैं. उन्होंने सिद्धू को उपमुख्यमंत्री या प्रदेश कांग्रेस कमेटी (पीसीसी) अध्यक्ष जैसे किसी आकर्षक पद का प्रस्ताव देकर उन्हें शांत करने से भी साफ इनकार कर दिया है.
संकट प्रबंधन
कैप्टन के लिए थोड़ी राहत की बात यह है कि असंतुष्टों ने भले ही उनके खिलाफ झंडा उठा लिया हो, लेकिन एक नेता के नाम पर उनके बीच भी आम सहमति नहीं है. हालांकि, राजनैतिक टकराव के थमने के कोई संकेत नहीं दिख रहे, ऐसे में मुख्यमंत्री के लिए अपने विश्वासपात्र सुनील जाखड़ को पीसीसी अध्यक्ष बनाए रखते हुए सरकार को आसानी से चलाना मुश्किल हो सकता है.
बगावत को शांत कराने का प्रयास कर रहे कांग्रेस नेताओं की ओर से जिन समाधान पर विचार किया जा रहा है उनमें कैबिनेट में फेरबदल का विकल्प भी है. कुछ विवादास्पद मंत्रियों को हटाया जा सकता है और कुछ अन्य दलित चेहरे लाए जा सकते हैं. इसके अलावा जिन विकल्पों की चर्चा है उनमें अमरिंदर के कुछ भरोसेमंद नौकरशाहों को किनारे लगाना; और एक नई चुनाव प्रचार समिति का गठन करना शामिल है जो उम्मीदवारों के चयन में मुख्यमंत्री को पूरी छूट से वंचित करती है.
साल 2005 में, अमरिंदर को सोनिया गांधी, उनके राजनैतिक सलाहकार अहमद पटेल और तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने बागी संकट से उबारा था. लेकिन वे इस बात को बखूबी समझते हैं कि इस बार उतना मजबूत समर्थन उन्हें शायद ही मिल पाए. बाजवा जैसे विद्रोहियों के खिलाफ उनकी शिकायतों को केंद्रीय नेतृत्व ने अक्सर अनसुना ही किया है.
असंतुष्टों ने इस बार सरकार के साथ तगड़ी सौदेबाजी के मंसूबे बांध रखे हैं और आलाकमान उन पर लगाम लगाने में अनिच्छुक दिखता है. कहा जा सकता है कि यह कैप्टन के लिए चिंताओं से भरा चुनावी साल है. क्या वे अपने जहाज को इस तूफान से सुरक्षित बाहर निकाल पाएंगे?