कांग्रेस कार्यकारिणी की 10 मई की बैठक में पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी ने घोषणा की कि कांग्रेस की केंद्रीय चुनाव समिति अध्यक्ष के चुनाव की तैयारियां पूरी कर चुकी है. इससे पहले 22 जनवरी को हुई कार्यकारिणी की बैठक में यह लक्ष्य रखा गया था कि जून के अंत तक पार्टी के अगले अध्यक्ष के चुनाव की प्रक्रिया पूरी कर ली जाए. इसी के तहत 23 जून को चुनाव की तिथि निर्धारित की गई थी.
लेकिन कोविड की मौजूदा लहर को देखते हुए, 10 मई की बैठक में कार्यकारिण में सर्वसम्मति से चुनाव की तिथि को आगे बढ़ा दिया गया. कांग्रेस महासचिव (संगठन) के.सी. वेणुगोपाल ने स्पष्ट किया कि चुनाव दो या तीन महीने से अधिक नहीं टाला जाएगा. हैरानी की बात है कि चुनाव स्थगित करने का प्रस्ताव 'जी23' की तरफ से आया. कांग्रेस के 23 नेताओं ने अगस्त 2020 में सोनिया गांधी को पत्र लिखकर कांग्रेस में संगठनात्मक बदलाव और जवाबदेह नेतृत्व की मांग की थी.
इन नेताओं का कहना है कि उनका एकमात्र उद्देश्य पार्टी में जान फूंकना है, लेकिन उनके विरोधियों और गांधी परिवार के वफादारों का मानना है कि वह पत्र इशारे में राहुल गांधी पर हमला था क्योंकि वे महत्वपूर्ण निर्णयों से पहले जी-23 नेताओं से परामर्श नहीं किया करते. अब केरल के वायनाड से लोकसभा सांसद राहुल ने 2019 के लोकसभा चुनाव में पार्टी की हार के बाद अध्यक्ष पद तो छोड़ दिया था लेकिन दो साल बाद भी पार्टी की कमान उनके हाथ बनी हुई है.
हाल के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस को मिली करारी शिकस्त ने राहुल विरोधियों को नेतृत्व पर सवाल उठाने का एक और मौका दिया है क्योंकि राहुल ने केरल, तमिलनाडु और असम में प्रचार अभियान का नेतृत्व किया था. सोनिया को इसका अंदाजा है इसलिए उन्होंने न केवल अध्यक्ष का चुनाव कराने की अपनी प्रतिबद्धता दोहराई, बल्कि चुनावों में पार्टी के खराब प्रदर्शन के कारणों का पता लगाने के लिए पांच सदस्यीय पैनल का भी गठन किया.
जान फूंकने के सपने
जी-23 के नेता अब तक पार्टी मंचों पर चुनावी हार का जिक्र छेडऩे से बचते रहे हैं. कांग्रेस के अंदरूनी सूत्र इसके पीछे दो वजहें मानते हैं—पहली, देश में बदलती सामाजिक-राजनैतिक परिस्थिति और इससे भी महत्वपूर्ण यह है कि अपनी पसंद का अध्यक्ष बनाना जी-23 का असली मकसद नहीं था. वरिष्ठ नेताओं का मानना है कि ऐसे समय में जब कोविड संकट के मामले में केंद्र सरकार के प्रति लोगों में नाराजगी देखी जा रही है, महामारी ने कांग्रेस को लोगों के साथ फिर से जुड़ने और खुद को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तथा भाजपा के विकल्प के रूप में प्रस्तुत करने का अवसर दिया है. लोकसभा में कांग्रेस के नेता अधीर रंजन चौधरी कहते हैं, ''देश गवाह है कि राहुल गांधी कोविड को लेकर सरकार को आगाह करते रहे हैं और प्रधानमंत्री मोदी उनके सुझावों को अनदेखा करते रहे हैं. राहुल की चेतावनियों की अनदेखी करके मोदी ने देश को अभूतपूर्व संकट में झोंक दिया.''
हालांकि चौधरी के कई साथियों को यह नहीं लगता कि राहुल की छवि में कोई ऐसा बड़ा सुधार हुआ है कि वे प्रधानमंत्री मोदी के विकल्प मान लिए जाएं, लेकिन वे इतना जरूर मानते हैं कि कोविड को लेकर मौजूदा सरकार के खिलाफ जनता में गुस्से का कुछ फायदा मिल सकता है. कांग्रेस के एक पूर्व मुख्यमंत्री कहते हैं, ''यह स्वाभाविक परिवर्तन है. राहुल गांधी अभी भी 'पप्पू' (राहुल गांधी के लिए भाजपा द्वारा प्रचारित नाम) हो सकते हैं, लेकिन कोई 'पप्पू' भी ऐसे प्रधानमंत्री से लोगों को पसंद आएगा जो जीवन बचाने में नाकाम रहा है.''
पार्टी के असंतुष्टों को भी लगता है कि महामारी पार्टी में जान फूंकने का मौका बन सकती है. महत्वपूर्ण संगठनात्मक सुधारों के साथ इसका लाभ लिया जा सकता है. एक जी-23 नेता कहते हैं, ''देश के लोग अमूमन किसी को सत्ता से बाहर करने के लिए वोट देते हैं. जब वे गुस्से में होते हैं, तो यह नहीं देखते कि किसे वोट दे रहे हैं. इसलिए, किसी भी गैर-भाजपा ताकत की किस्मत खुल सकती है.'' जी-23 इस बात को लेकर भी आश्वस्त है कि राहुल अध्यक्ष का चुनाव लड़ेंगे. राहुल के एक करीबी कार्यकारिणी सदस्य कहते हैं, ''राहुल कहते रहे हैं कि पार्टी उनसे जो कहेगी, वे करेंगे. यह स्पष्ट संकेत है कि वे चुनाव लड़ेंगे.'' इसलिए उन्हें चुनौती देने के बजाए, जी-23 राहुल के साथ तालमेल बनाकर अपनी जगह तलाश रहा है.
इससे पहले, अफवाहें थीं कि गांधी परिवार अपने किसी वफादार को कांग्रेस अध्यक्ष बना सकता है. शायद मल्लिकार्जुन खडग़े, रणदीप सिंह सुरजेवाला या मुकुल वासनिक में से किसी को मौका मिल सकता है. राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ को राजी करने की कोशिश हुई, लेकिन दोनों ने मना कर दिया.
कांग्रेस में कुछ लोग प्रियंका गांधी-वाड्रा को अध्यक्ष के तौर पर पेश करना चाहते हैं. वे कहते हैं कि ऐसे नेता (पढ़ें—राहुल) को प्रोजेक्ट नहीं करना चाहिए जो चुनावी सफलता दिलाने में नाकाम रहे हैं. कार्यकारिणी के एक सदस्य याद दिलाते हैं कि असम और पश्चिम बंगाल के कांग्रेस नेताओं ने राहुल की तुलना में प्रियंका से अधिक चुनावी रैलियों का अनुरोध किया था. हालांकि, परिवार के वफादारों का कहना है कि प्रियंका असंभावित उम्मीदवार हैं क्योंकि एक, उनकी सफलता से राहुल का राजनैतिक करियर समाप्त हो सकता है और दूसरे, अगर वे भी नाकाम रहती हैं तो गांधी परिवार का एक अन्य विकल्प समय से पहले समाप्त हो सकता है. इसके अलावा, अगर उत्तर प्रदेश में 2022 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस का प्रदर्शन खराब रहा, तो यह दांव उलटा पड़ सकता है.
गांधी फैक्टर
इन हालात में राहुल की शीर्ष पद पर वापसी में बहुत कुछ 'सही समय' पर निर्भर करेगा. कार्यकारिणी के एक सदस्य आगाह करते हैं, ''कांग्रेस को किसी गांधी को नेता के रूप में रखने की आदत है, क्योंकि दूसरे आपस में ही लड़ते रहते हैं. कोई गैर-गांधी अध्यक्ष का मतलब होगा पार्टी में आंतरिक विस्फोट की स्थिति.'' हालांकि कांग्रेस के सफल गैर-गांधी अध्यक्ष भी हुए हैं, जिनमें पी.वी. नरसिंह राव चर्चित हैं लेकिन अधिकांश जानकार इस बात से सहमत हैं कि वे पार्टी को एकजुट इसलिए रख सके थे क्योंकि वे प्रधानमंत्री थे. कांग्रेस के एक राज्यसभा सांसद कहते हैं, ''सत्ता से बाहर होने के बाद, राव ने पार्टी पर अपनी पकड़ खो दी. सोनिया के सत्ता संभालने के बाद ही कांग्रेस फिर संगठित हुई.''
असंतुष्ट भी इस बात को समझते हैं कि कांग्रेस को एकजुट रखने के लिए किसी गांधी की जरूरत है, इसलिए उनकी नजर कभी भी अध्यक्ष पद पर नहीं थी. बल्कि, वे चुनावी रास्ते से पार्टी की निर्णय प्रक्रिया में अधिक भागीदारी की इच्छा रखते थे. जी-23 नेताओं ने नेतृत्व के मुद्दे पर व्याप्त 'अनिश्तिता' को लेकर चिंता व्यक्त की थी. उनके पांच पन्नों के पत्र में नए अध्यक्ष के चुनाव की मांग नहीं थी. उनकी सबसे महत्वपूर्ण मांगें थीं कि कार्यकारिणी सदस्यों का चुनाव हो, पार्टी के केंद्रीय संसदीय बोर्ड (सीपीबी) का पुनरुद्धार हो और केंद्रीय चुनाव समिति का पुनर्गठन किया जाए.
कांग्रेस के संविधान के अनुसार, कार्यकारिणी पार्टी का सर्वोच्च निर्णयकारी संस्था है. 25 सदस्यीय कार्यकारिणी में पार्टी अध्यक्ष, संसद में पार्टी के नेता और 23 अन्य सदस्य होते हैं जिनमें 12 का चुनाव अखिल भारतीय कांग्रेस समिति करती है और बाकी की नियुक्ति पार्टी अध्यक्ष करता है. अध्यक्ष निर्वाचित सदस्यों को बर्खास्त नहीं कर सकता है, जिसका अर्थ है कि उन्हें कांग्रेस अध्यक्ष की जी हुजूरी करने की दरकार नहीं है. कार्यकारिणी का चुनाव उन लोगों के लिए मौके की तरह है, जिन्होंने कांग्रेस में राहुल की सरपरस्ती खो दी है. जी-23 नेताओं में एक, गुलाम नबी आजाद ने पिछले सितंबर में इंडिया टुडे से कहा था, ''कार्यकारिणी के सभी सदस्य मनोनीत होते हैं, तो वे अध्यक्ष की दया पर होते हैं. इसका मतलब है कि वे पार्टी के विचार-विमर्श में अपने मन की बात नहीं कह सकते हैं.''
फूट डालो और राज करो
कार्यकारिणी का पिछला चुनाव 1997 में कोलकाता अधिवेशन में हुआ था, जिसमें अहमद पटेल, प्रणब मुखर्जी और आजाद जैसे दिग्गज चुने गए थे. 1998 में कार्यभार संभालने के बाद, सोनिया ने सभी कार्यकारिणी सदस्यों को नामजद करने की प्रथा जारी रखा. राव ने 1992 में एक खास रणनीति के तहत यह प्रथा शुरू की थी. राव के तीन धुर विरोधी-अर्जुन सिंह, शरद पवार और राजेश पायलट-कार्यकारिणी के लिए चुन लिए गए, तो राव ने इस आधार पर पूरी कार्यकारिणी से इस्तीफा ले लिया कि महिला या अनुसूचित जाति/जनजाति का कोई सदस्य निर्वाचित नहीं हुआ. नई कार्यकारिणी में अर्जुन सिंह और पवार को मनोनीत सदस्य बनाए गए. कार्यकारिणी सदस्य अजय माकन कहते हैं, ''दोनों सदस्यों को मनोनित करने के पीछे तर्क यह था कि चुनाव प्रक्रिया में ज्यादा आबादी वाले उत्तर भारतीय राज्यों को कुछ लाभ मिल गया.''
राव ने केंद्रीय संसदीय बोर्ड को भी भंग कर दिया था. कांग्रेस के संविधान में संसदीय बोर्ड का प्रावधान पार्टी की संसदीय गतिविधियों के नियमन और समन्वय के लिए किया गया था. इसमें 10 सदस्य होने चाहिए, जिसमें कांग्रेस अध्यक्ष, संसद में कांग्रेस पार्टी के नेता और अध्यक्ष के नामजद आठ अन्य सदस्य होंगे. संसदीय बोर्ड सदस्य और एआइसीसी के चुने अन्य नौ सदस्यों को मिलाकर केंद्रीय चुनाव समिति (सीईसी) का गठन होता है, जो विधानसभा और लोकसभा चुनावों के लिए पार्टी के उम्मीदवारों का फैसला करती है. संसदीय बोर्ड की मांग करके, जी-23 केंद्रीय चुनाव समिति में प्रवेश की संभावना तलाश रहा है. पी. चिदंबरम जैसे दिग्गज ने भी संसदीय बोर्ड की जरूरत बताई है, जो जी-23 में नहीं हैं.
सोनिया ने फूट डालो और राज करो जैसी नीति अपनाकर राहुल को चुनौती देने वालों की हवा निकालने की कोशिश की है. पिछले साल जी-23 के पत्र के बाद, उन्होंने कार्यकारिणी का पुनर्गठन किया और चिट्ठी लिखने वाले नेताओं में चार को सदस्य बना दिया. आजाद, वासनिक और शर्मा को नई कार्यकारिणी में बनाए रखा गया था, जितिन प्रसाद को बंगाल का प्रभार भी दिया गया. पृथ्वीराज चव्हाण को असम चुनाव की स्क्रीनिंग कमेटी का प्रमुख बनाया गया था. मनीष तिवारी को अब विधानसभा चुनावों की समीक्षा के लिए बनाई गई पांच सदस्यीय चुनाव समिति में शामिल किया गया है. दूसरी ओर, शशि थरूर और कपिल सिब्बल को पूरी तरह दरकिनार कर दिया गया है.