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कश्मीर में जमीन का नया झमेला

गुपकार गठबंधन इन बातों को नामंजूर करता है. उनका कहना है कि इन कानूनों का वास्तविक उद्देश्य 'जनसांख्यिकीय परिवर्तन लाना और स्थानीय आबादी को कमजोर करना' है

एका में दम 24 अक्तूबर को श्रीनगर में गुपकार बैठक के दौरान नेशनल कॉन्फ्रेंस के फारूक अब्दुल्ला, पीडीपी की महबूबा मुफ्ती और अन्य नेता
एका में दम 24 अक्तूबर को श्रीनगर में गुपकार बैठक के दौरान नेशनल कॉन्फ्रेंस के फारूक अब्दुल्ला, पीडीपी की महबूबा मुफ्ती और अन्य नेता
अपडेटेड 18 नवंबर , 2020

मुअज्जम मोहम्मद, श्रीनगर में

जम्मू-कश्मीर में मुख्यधारा के सात राजनैतिक दलों के संगठन पीपल्स एलायंस फॉर गुपकार (गुपकार जन संगठन) ने 7 नवंबर को घोषणा की कि 28 नवंबर से होने जा रहे जिला विकास परिषद (डीडीसी) चुनाव वे एक साथ लड़ेंगे. प्रतिद्वंद्वी राजनैतिक दलों के इस निर्णय का एकमात्र उद्देश्य केंद्र की कश्मीर योजना को नाक के बल गिरा देना है.

5 अगस्त, 2019 को संविधान के अनुच्छेद 370 को बेमानी करने तथा जम्मू-कश्मीर राज्य को दो संघशासित क्षेत्रों में विभाजित करने के 15 महीने बाद ये डीडीसी चुनाव होने हैं. राज्य में पिछले चुनाव 2018 में पंचायत और नगर निकाय चुनाव थे, जिसमें राज्य के प्रमुख राजनैतिक दलों, नेशनल कॉन्फ्रेंस (एनसी) और पीपल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) के बहिष्कार की घोषणा के कारण भाजपा को वॉकओवर जैसा मिल गया था. इससे घाटी में कभी कोई महत्वपूर्ण चुनाव न जीतने वाली भाजपा को वहां के स्थानीय शासन तंत्र का नियंत्रण हासिल करने में मदद मिली थी.

गठबंधन के नेता सुनिश्चित करना चाहते हैं कि फिर से वही गलती दोहराई न जाए. सभी 20 जिला विकास परिषदों (डीडीसी) का नेतृत्व अध्यक्ष के हाथ में होगा (जिसे कनिष्ठ मंत्री का दर्जा मिल सकता है), जिनका कार्यकाल पांच वर्ष का होगा. सूत्रों की मानें तो इस योजना का उद्देश्य भविष्य में जम्मू-कश्मीर विधानसभा के निर्वाचित प्रतिनिधियों की शक्तियों पर अंकुश लगाना है.

गुपकार गठबंधन में दस्तखत करने वाले वरिष्ठ माकपा नेता मोहम्मद यूसुफ तरीगामी कहते हैं, ''चुनावों की अचानक घोषणा होने से ही उनकी मंशा का पता चला. वे हमें लोगों से दूर करना चाहते हैं, लेकिन हम ऐसा होने नहीं देंगे.'' उन्होंने यह भी कहा कि ''हमारा एजेंडा 4 अगस्त, 2019 की संवैधानिक स्थिति की बहाली है, लेकिन यह बात हमें लोकहित का कोई काम करने से नहीं रोकती.''

यह फैसला आसान नहीं था. इसमें कई चिंताएं शामिल थीं, खासकर यह कि कश्मीर में इसकी क्या प्रतिक्रिया होगी. लेकिन इस बारे में जिन लोगों से भी बात की गई, सभी की राय थी कि उन्हें भाजपा के लिए जगह खाली नहीं छोड़नी चाहिए. दूसरे मुद्दे भी थे. नेशनल कॉन्फ्रेंस अध्यक्ष तथा गुपकार गठबंधन के मुखिया फारूक अब्दुल्ला का कहना है कि जल्दबाजी में की गई चुनाव प्रक्रिया की घोषणा के कारण उन्हें साझा चुनाव चिन्ह नहीं मिल सकता. जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री रहे इस 84-वर्षीय सांसद का कहना है, ''हम संयुक्त उम्मीदवारों को मैदान में उतारेंगे और वे अपनी-अपनी पार्टी के चुनाव चिन्हों का इस्तेमाल करेंगे.''

भाजपा ने इन चुनावों के लिए उम्मीदवारों की घोषणा की है, लेकिन पार्टी में कई लोग अब अपनी संभावनाओं को लेकर संशय में हैं. राज्य इकाई के एक नेता का कहना है कि नेशनल कॉन्फ्रेंस, पीडीपी और अन्य दलों की गैर-मौजूदगी में भी नए भूमि कानूनों जैसी हालिया नीतियों पर लोगों की नकारात्मक प्रतिक्रिया को देखते हुए मतदान में बाधा पड़ने की संभावनाएं होगी. नाम जाहिर न करने की शर्त पर भाजपा के एक पदाधिकारी ने कहा, ''इससे तो मेरे बच्चे भी प्रभावित होंगे. समझ नहीं आ रहा है कि नेतृत्व क्या कर रहा है.''

पिछले 26 अक्तूबर को गृह मंत्रालय ने केंद्रशासित क्षेत्र जम्मू-कश्मीर पुनर्गठन तीसरा आदेश, 2020 जारी करके 12 भूमि कानूनों को निरस्त कर दिया था, जिससे जम्मू-कश्मीर व्यावहारिक रूप से सभी भारतीय नागरिकों के लिए खुल गया. अब तक केवल 1927 में डोगरा राजा महाराजा हरि सिंह के लागू किए गए कानून में परिभाषित 'स्थायी निवासी' प्रमाणपत्र धारक या राज्य की प्रजा ही यहां चल और अचल संपत्ति खरीदने और रखने का अधिकारी थी. उसी राज्य नागरिकता कानून को 1954 में राष्ट्रपति के एक आदेश के माध्यम से संविधान (अनुच्छेद 35 ए) में दोहराया गया था, जिसके मुताबिक जम्मू-कश्मीर विधायिका को 'स्थायी निवासी' को परिभाषित करने की अनुमति दी गई थी (अनुच्छेद 370 के निरस्त होने के साथ यह प्रावधान खुद समाप्त हो गया).

नए भूमि कानूनों की वजह से न केवल घाटी में, बल्कि जम्मू में भी बेचैनी है. इन कानूनों के लागू होने के तुरंत बाद जम्मू में विरोध प्रदर्शन शुरू हो गए, जबकि हुर्रियत कॉन्फ्रेंस के आह्वान पर घाटी में 31 अक्तूबर को बंदी रहा. अभी भी घर में नजरबंद हुर्रियत नेता मीरवाइज उमर फारूक ने 5 अगस्त, 2019 से पहली बार अपनी चुप्पी तोड़ते हुए इन 'जन-विरोधी' आदेशों के खिलाफ हड़ताल का आह्वान किया था.

शुरू में, जब संसद ने पिछले साल जम्मू-कश्मीर को पूरी तरह से एकीकृत किया था तो उस निर्णय को वैध बनाने की प्रक्रिया में जम्मू ने बड़ी भूमिका निभाई थी. इसे प्रशासन में घाटी के 'प्रभुत्व' का समापन माना गया. लेकिन धीरे-धीरे उन्हें यह एहसास होने लगा कि नई स्थिति उनकी डोगरा पहचान को कमजोर कर रही है. जम्मू निवासी और 'मिशन स्टेटहुड' के अध्यक्ष सुनील डिंपल कहते हैं, ''हमारा इतिहास खत्म कर दिया, हमारा दिल रो रहा है.'' वे इसे फिर से राज्य बनाए जाने और इसकी विशेष स्थिति की बहाली के लिए समर्थन जुटा रहे हैं.

डिंपल को अब पछतावा है कि जम्मू क्षेत्र ने भाजपा का साथ देकर उसे 2014 के विधानसभा चुनाव (25 सीटों) और 2019 के लोकसभा चुनाव में सत्ता में पहुंचाया था. वे कहते हैं, ''नया कानून एक तरह से बाहर के लोगों को यहां लाने का विज्ञापन जैसा है. जैसे ईस्ट इंडिया कंपनी ने भारत को लूटा था, वैसे ही उन्होंने (भाजपा) ने जम्मू-कश्मीर में बड़े व्यापारिक घरानों के लिए रास्ते खोले हैं. उन्हें यहां के लोग नहीं, यहां की जमीने चाहिए.''

लेकिन, जम्मू-कश्मीर सरकार का नजरिया अलग है. सरकार के प्रवक्ता रोहित कंसल ने कहा, ''नए भूमि कानून न केवल जम्मू-कश्मीर में 90 प्रतिशत से अधिक भूमि का संरक्षण करेंगे, कृषि क्षेत्र में सुधार लाएंगे, औद्योगिकीकरण को बढ़ावा देंगे.'' कंसल का कहना है कि पुराने कानूनों में मनमानी व्याख्या और लगान की मांग की गुंजाइश थी. जम्मू-कश्मीर के लेफ्टिनेंट गवर्नर मनोज सिन्हा ने भी स्पष्ट किया कि कृषि भूमि किसानों के लिए आरक्षित की गई है. वे कहते हैं, ''कोई भी बाहरी व्यक्ति उन जमीनों पर नहीं आएगा. लेकिन, हमने औद्योगिक क्षेत्रों को भी परिभाषित किया है ... हम चाहते हैं कि जम्मू-कश्मीर में उद्योग आएं ताकि विकास हो और रोजगार पैदा हों.''

गुपकार गठबंधन इन बातों को नामंजूर करता है. उनका कहना है कि इन कानूनों का वास्तविक उद्देश्य 'जनसांख्यिकीय परिवर्तन लाना और स्थानीय आबादी को कमजोर करना' है. तरीगामी कहते हैं कि भाजपा के निशाने पर केवल जम्मू-कश्मीर है जबकि हिमाचल प्रदेश और पूर्वोत्तर मंर भी विशेष भूमि कानून हैं. उनका कहना है, ''हम केंद्र के बदलाव को उलटने के लिए अदालतों और दूसरे मंचों का इस्तेमाल करेंगे.''

नए भूमि कानूनों के अस्तित्व में आने से पहले 9 अक्तूबर को जम्मू-कश्मीर हाइकोर्ट ने आमतौर पर रोशनी अधिनियम कहे जाने वाले जम्मू-कश्मीर राज्य भूमि अधिनियम, 2001 पर रोक लगा दी थी. इस अधिनियम को 'असंवैधानिक' घोषित करते हुए अदालत ने सीबीआइ को इसके कार्यान्वयन में हुई गड़बडिय़ों की जांच का आदेश दिया था. उसने सभी भूमि आवंटनों को 'शुरू से ही अमान्य' घोषित कर दिया था (देखें बॉक्स).

भाजपा ने इस मामले को सांप्रदायिक रंग भी दिया है कि 'भूमि जेहाद' का उद्देश्य जम्मू की जनसांख्यिकी बदलना था. भाजपा के वरिष्ठ नेता और पूर्व उप-मुख्यमंत्री कविंदर गुप्ता को तो इसमें पाकिस्तान का हाथ भी दिख रहा था. लेकिन, हाइकोर्ट में मूल याचिका दायर करने वाले जम्मू के वकील शेख शकील अहमद इसे झूठी कहानी बताते हैं. उन्होंने बताया कि रोशनी योजना के तहत जम्मू जिले में 44,000 कनाल भूमि में सिर्फ 1,180 कनाल भूमि गैर-हिंदुओं के बीच बांटी गई थी. शेख कहते हैं, ''यह झूठी कहानी है. ये सब सिर्फ चुनावी बातें हैं.''