यह कहानी रंजिश की तो थी ही नहीं.'' यह कहना है वासेपुर के 24 वर्षीय इकबाल खान का, जो हाल ही में जमानत पर छूटकर जेल से बाहर आए हैं. वे उसी फहीम खान के बेटे हैं, जो अनुराग की फिल्म में फैसल खान के नाम से नवा.जुद्दीन सिद्दीकी की भूमिका में हमारे सामने आता है.
फिल्म में मनोज वाजपेयी के निभाए गए किरदार सरदार खान यानी असल में शफीक खान के पोते इकबाल का कहना है, ''मेरे दादा को उनके भाई हनीफ ने मरवाया था. मेरे वालिद ने कातिल को खत्म कर दिया. इसी इल्जाम में वे जेल में हैं. ये सब बातें फिल्म में कहीं नहीं हैं.'' इकबाल बताते हैं कि फिल्म के पहले हिस्से में अगवा की गई एक औरत के मामले में सरदार का रामाधीर सिंह (सूरजदेव सिंह के असल किरदार से प्रेरित और तिग्मांशु धूलिया अभिनीत) को धमकाने का दृश्य मनगढ़ंत है.
उनकी ठीक यही राय शेक्सपियर की शैली वाले मॉन्टेग्यू-कैप्यूलेट रोमांस या फिर परपेंडिकुलर और डेफिनट जैसे नामों के बारे में भी है. वे कहते हैं, ''यहां तो आपको प्रिंस और गुडविन खान जैसे परिवार मिलेंगे.'' दूसरी ओर, वासेपुर का एक बाशिंदा अपना नाम न बताने की शर्त पर कहता है, ''जैसा हुआ था बिलकुल वैसा ही दिखाया गया है.'' उसका इशारा फिल्म के पहले हिस्से में सरदार खान की मौत की ओर है जहां फिल्म खत्म होती है.
अब झारखंड का हिस्सा बन चुके धनबाद रेलवे स्टेशन से सिर्फ दो किलोमीटर दूर बसे इस इलाके के माफिया की जंग लोगों की जुबान पर लोककथा की तरह चढ़ी हुई है. इसी आदमी के मुताबिक, ''गैंगस्टर शफीक खान को सही में तोपचाची पेट्रोल पंप पर ही मारा गया था. धनबाद में ऐसा ही होता है.''
यहां के स्थानीय लोग आम तौर पर उस खून-खराबे के जिक्र से बचते हैं जो आज तक उनकी जिंदगियों पर राज करता आया है. हालांकि थोड़ा-सा उकसाने भर की देर होती है, पलक झपकते ही आप पाएंगे कि खूनी रंजिश के इस अंतहीन सिलसिले की जिसे जितनी भी जानकारी है, वह उतने पर ही खुद को चौड़ा महसूस करने लगता है. ऐसा लगता है कि किसने, किसको, कब मारा, इसकी जानकारी रखना यहां जैसे गौरव का विषय हो.
फिल्म तीन परिवारों की तीन पीढ़ियों की कहानी बयान करती है-कसाई सुल्तान कुरैशी (फिल्म में पंकज त्रिपाठी), माफिया डॉन से नेता बने रामाधीर सिंह और पठान शाहिद खान (फिल्म में जयदीप अहलावत). खूनी खेल की शुरुआत रामाधीर के हाथों शाहिद की हत्या से होती है और शाहिद के बेटे सरदार से होते हुए यह सिलसिला सरदार के बेटे फैसल तक चला जाता है. असल जिंदगी में शाहिद खान की हत्या दरअसल हत्या की लंबी फेहरिस्त के सबसे पुराने पन्नों में एक है.
फॉरवर्ड ब्लॉक के संतोष सेनगुप्ता, आरजेडी के मुकुल देव, मजदूर नेता एस.के. राय इसी वासेपुर की धूल भरी गलियों में मृत पाए गए थे. गैंगस्टर समीन खान को धनबाद अदालत की देहरी पर गोली मार दी गई थी तो यहां के बड़े गुंडे सकल देव सिंह को बाइपास रोड पर मारा गया था जबकि उसके भाई की हत्या शक्ति चौक पर हुई थी. रेलवे ठेकव्दार इरफान और वार्ड कमिशनर नजीर अहमद भी इस खूनी खेल की भेंट चढ़े.
1991 में एक बैंक डकैती को रोकने के चक्कर में पुलिस अधीक्षक रणधीर प्रसाद वर्मा मारे गए. इसके बाद 14 अप्रैल, 2000 को एमसीसी के विधायक गुरुदास चटर्जी को देवली के पास मार दिया गया. और अगर आपको अब भी यह लगता है कि ये सब इतिहास की बातें हैं, तो बता दें कि फहीम खान हाल ही में जेल से छूटे हैं और 30 जुलाई की रात अपने साथी शाहिद के साथ बड़ी मुश्किल से एक हमले में अपनी जान बचाकर भागे. इस हमले में उनका बॉडीगार्ड मारा गया और उनका साला सिराज जिंदगी और मौत के बीच झूल रहा है. फहीम खान अब इंटक के नेता हैं.
फिल्म के रिलीज होने के बाद यहां के लोग विभिन्न गिरोहों और उनके बीच हुई हिंसा के जिक्र से भले कुछ ज्यादा ही बच रहे हों, लेकिन इस इलाके के सिर पर हमेशा से एक अनदेखा डर मंडराता रहा है. यहां की फिजाओं में कोयले का धुआं और खून की गंध एक साथ तैरती है. इकबाल खान सीधे तौर पर इस सब को कबूल करते हैं, ''धनबाद में दो ही कानून हैं-एक फहीम खान के परिवार की गिरफ्तारी का, दूसरा सिंह मैंशन में रहने वालों की जांच-पड़ताल का.'' सिंह मैंशन यानी सूरजदेव सिंह की विशाल हवेली!
दरअसल धनबाद इंडिया शाइनिंग से काफी दूर एक काल्पनिक दुनिया की ऐसी तस्वीर पेश करता है जहां की इकलौती सड़क के दोनों ओर बेहद गरीब आबादी बसती है, जहां मजदूर संगठनों का बड़ा चमकीला इतिहास रहा है और आज जहां मध्यवर्ग काफी तेजी से उभर रहा है. धनबाद के रास्ते में वासेपुर के पास कम-से-कम एक घंटा आपको लंबे ट्रैफिक जाम में फंसा रहना पड़ सकता है. राह में जला हुआ कोई ट्रक दिख सकता है या फिर किसी मामूली-से होटल में किसी लावारिस लाश से भी आपका साबका पड़ सकता है.
मिथकों के इस शहर में कोयले की कालिख के बीच झ्क सफव्द झूठ की परत दर परत तारी है. पेड़ों के पत्तों और लोगों की गरदन पर कोयले की कालिख को यहां साफ पहचाना- जा सकता है. माइनिंग जब से बड़े स्तर पर घाटे का सौदा बनी है, तब से कई खदानों को खुला छोड़ दिया गया है लेकिन कई में अब भी पुलिस-प्रशासन की नाक के नीचे गैरकानूनी धंधा होता है. बाकी की खदानें ओपन कास्ट हैं, जहां शोषण-उत्पीड़न की हद बाहर से नहीं समझ आ सकती.
यही वह इलाका है जहां दिसंबर 1975 में हुए चासनाला हादसे में 380 लोगों की जान गई थी जब एक खदान में झील का पानी घुस आया था. अमिताभ बच्चन और शत्रुघ्न सिन्हा की 1979 में बनी काला पत्थर इस हादसे पर बॉलीवुड की इकलौती फिल्म है जो आज भी यहां के लोगों को याद है.
गैर कानूनी खदानों की छत ढहने से मरने वाले मजदूरों के हादसे राष्ट्रीय अखबारों के संस्करणों के भीतर के पन्नों पर भी जगह नहीं पाते. इसके बावजूद यहां की तबाही उतनी प्राकृतिक नहीं, जितनी माफिया की पैदा की हुई है, जिसका साया आज भी धनबाद के सिर पर मंडराता है.
यहां की सारी लड़ाई शहरीकरण की जूठन बटोरने के लिए है. फहीम खान और एक दूसरे गैंगस्टर बाबला के बीच शुरुआती संघर्ष की असली वजह निजी ट्रांसपोर्टरों से वसूली थी, जिसे यहां की शब्दावली में 'एजेंटी' कहते हैं. खान का परिवार इस बात से इनकार करता है. इस दौरान फहीम की वसूली को नुकसान पहुंचाने का काम एक कारोबारी शब्बीर ने किया था, जिससे बाद में उनकी दुश्मनी हो गई. इसके बाद शब्बीर और बाबला 'दुश्मन का दुश्मन दोस्त' की तर्ज पर मिल गए.
पहला तीर फहीम ने चलाया और शब्बीर के भाई वाहिद को कथित तौर पर उस वक्त मार डाला जब वाहिद ने फहीम के घर पर हमला किया, जिसमें एक की जान चली गई. फहीम खान की मां नज्मा खातून (फिल्म में किरदार का नाम नगमा है जिसे ऋचा चड्ढा ने निभाया है) की हत्या के लिए भी शबीर कथित तौर पर जिम्मेदार था. शफीक की हत्या के बाद गैंग को न.ज्मा ही चलाती थी. शब्बीर न.ज्मा की हत्या के आरोप में जेल गया था, फिलहाल वह जमानत पर बाहर है.
यहां के पुलिस अधीक्षक आर.के. धान कहते हैं, ''एक तरफ शफीक और फहीम और दूसरी तरफ 'सिंह मैंशन' के परिवार को रखकर बुनी गई रंजिश की कहानी असली नहीं है. दरअसल, सारा मामला मुस्लिम माफिया की आपसी लड़ाई का है.'' और किसी एक समुदाय के भीतर की लड़ाई के रूप में यहां के संघर्ष को दिखाने की कोशिश इसे सांप्रदायिक रंग देने से बचने की कवायद है.
सिंह परिवार माफिया डॉन सूरज देव सिंह का रिश्तेदार है जिसने जयप्रकाश नारायण से अपने करीबी होने का इस्तेमाल राजनीति में आने के लिए किया था. सूरज देव के बाद भी उसके परिवार से कई लोग जन प्रतिनिधि रहे हैं, खासकर हाल के वर्षों में बीजेपी के टिकट से चुने जाते रहे हैं. इनमें बच्चा सिंह, रामाधीन, शशि और कुंती सिंह हैं. सूरज देव पर 1978 में बी.पी. सिन्हा की हत्या का आरोप था जो सबसे बड़े खदान मालिकों में से एक थे. सिंह परिवार चाहता था कि इस फिल्म को प्रतिबंधित कर दिया जाए क्योंकि उसे डर था कि इसमें परिवार की नकारात्मक छवि पेश की गई है.
इसके बावजूद यह बात यहां का हर आदमी जानता है कि सिंह परिवार की खानदानी रंजिश सुरेश सिंह के साथ थी, जिसे पिछले साल दिसंबर में मार दिया गया. यहां लोग इस बात को भी मानते हैं कि शफीक खान और उनके बेटों का कभी भी खदानों से कोई सरोकार नहीं रहा. आर.के. धान कहते हैं, ''गवाहों के बयानात के मुताबिक, सिंह मैंशन के शशि सिंह ने सुरेश सिंह की हत्या करवाई थी.'' वासेपुर के मुस्लिम खानदानों की ही तरह धनबाद के सिंह खानदान के भीतर की रंजिशों का पता लगा पाना और उन्हें पुष्ट कर पाना बहुत ही मुश्किल काम है.
गैंगवार के भय के बीच यहां लुप्त होते ट्रेड यूनियनों और पतन की ओर जाते कोयला उद्योग की समानांतर कहानी भी छुपी है. धनबाद सेंट्रल हॉस्पिटल के आइसीयू में आपको चश्मा लगाए एक बुजुर्ग बैठे मिल जाएंगे. वे बोल नहीं पाते. एक वक्त था जब उनका नाम धनबाद का पर्याय था. ये हैं ए.के. रॉय, जो कभी कव्मिकल इंजीनियर थे, बाद में ट्रेड यूनियन की राजनीति करने लगे और साठ के दशक में जिन्हें सीपीएम ने पार्टी से निकाल दिया.
इसके बाद उन्होंने निजी खदानों के ठेका मजदूरों को संगठित कर बिहार कोलियरी कामगार यूनियन बनाई, जो यहां के मजदूरों की सबसे सशक्त आवाज बनकर उभरी. आपातकाल के बाद यही एमसीसी (मार्क्सवादी को-ऑडिनेशन कमेटी) में तब्दील हो गई. रॉय कई बार सांसद बने और खुले तौर पर प्रशासन, माफिया और उन खदान मालिकों से लोहा लेते रहे जो मजदूर संगठनों और हड़तालों से निपटने के लिए गुंडों का सहारा लेते थे.
कभी खदानकर्मी रहे और अब मजदूर संगठनकर्मी कॉमरेड रामलाल धनबाद में माइनिंग के इतिहास को याद करते हुए बताते हैं, ''सत्तर के दशक में हमने करीब 25-30 कॉमरेडों को खो दिया.'' यह इतिहास राष्ट्रीयकरण, उदारीकरण और खूंरेजी के अंतहीन सिलसिले के शुरू होने से बहुत पहले का है, ''1962 से पहले केंद्र सरकार की सिर्फ दो कोलियरी थीं, जिनमें वेतन का एक ढांचा था जबकि 60-65 निजी खदानें थीं जिनमें कोई न्यूनतम वेतन ढांचा नहीं था.''
उस वक्त रॉय कोलियरी में नौकरी करने आए. दिन में वे वहां काम करते, रात में स्कूल में पढ़ाते और खदानकर्मियों को संगठित करते. हड़ताल-दर-हड़ताल और लगातार पड़ रही मार से स्थिति ऐसी बन गई कि मजदूर और माफिया एक-दूसरे के दुश्मन हो गए. इसी वक्त रॉय को मजदूरों ने चुनाव लड़ने को राजी कर लिया. वे 1967 में पहली बार विधायक और फिर सांसद बने और 1991 तक लगातार चुनाव जीतते रहे. मगर एक बात जो लगातार बनी रही वह यह कि तीन बार सांसद बनने के बाद भी रॉय की हैसियत में कोई बदलाव नहीं आया. स्थानीय लोग गर्व से याद करते हैं कि उन्होंने रॉय को अपने बिल जमा कराने के लिए लाइन में खड़े या ट्रेन में यात्रा करते हुए जनरल डिब्बे के कोने में खड़े देखा था.
उनके एक साथी कॉमरेड दीवान कहते हैं, ''ए.के. रॉय शायद भारत के इकलौते सांसद थे जिन्होंने कहा था कि सांसदों को पेंशन नहीं मिलनी चाहिए.'' आज मजदूर संगठनकर्मियों की पुरानी पीढ़ी के बचे-खुचे लोग याद करते हैं और स्वीकार करते हैं कि कैसे यहां मजदूर आंदोलन विफल हो गया और वे उदारीकरण के साथ आई संस्कृति से लड़ पाने में नाकाम रहे. यही लोग रॉय के वोट बैंक थे, लेकिन 1991 में मार दिए गए पुलिस अधीक्षक आर.पी. वर्मा की पत्नी रीता वर्मा के पक्ष में उमड़ी सहानुभूति की लहर में रॉय चुनाव हार गए. जब से यहां मजदूर संगठनों की ताकत घटी है, चुनाव नतीजों पर मध्यवर्ग का कब्जा हो गया है.
गैंगवार जारी है. जमानत पर जेल से छूटा शब्बीर फहीम को मारने की कसम खाए बैठा है. स्थानीय अखबारों की मानें तो इकबाल, जिसके स्कूल में रहते हुए उसकी सुपारी दी गई थी, आज भी बदला लेने को तड़प रहा है. कभी यहां की धरती को झ्कझेर देने वाला एक बूढ़ा शख्स इस दौरान धनबाद सेंट्रल अस्पताल के आइसीयू में लाचार और बेबस पड़ा है जबकि चासनाला खदान हादसे में मारे गए मजदूरों के नाम उनके लिए बनाए गए स्मारक से भी मिट चुके हैं.
लेखक फोटो पत्रकार हैं.