मलिक असगर हाशमी
हरियाणा के कालिदास और शेक्सपियर कहे जाने वाले सूर्य कवि पंडित लखमी चंद की हाल ही पंचकूला में हरियाणा ग्रंथ अकादमी की ओर से एक प्रतिमा लगाई गई. पर जब लोगों ने गौर से देखा तो पता चला कि प्रतिमा की शक्ल तो उनसे मिलती ही नहीं है.
1903 में सोनीपत के अटेरना गांव में जन्मे और 42 वर्ष की उम्र में ही दिवंगत होने से पहले कवि-गायक-अभिनेता लखमी चंद ने न सिर्फ नैतिक मूल्यों की सीख देने वाली बीसियों सांग और रागिनियों की रचनाएं कीं बल्कि चारों ओर घूम-घूमकर गाते-बजाते हुए उनका प्रचार भी किया. हरियाणा की लोक-संस्कृति के वे संदर्भ पुरुष माने गए. लोक में अब भी उनकी गहरी मौजूदगी है लेकिन राज्य के सत्ता प्रतिष्ठानों खासकर सांस्कृतिक प्रशासकों की बेरुखी का यह नतीजा निकला कि उनकी प्रतिमा गढऩे के लिए संदर्भ चित्र तक न मिला.
पंडित लखमी चंद के वंशजों तक इसकी खबर पहुंची. उनकी विरासत संभालने वाले उनके पौत्र विष्णुदत्त कौशिक बताते हैं, ''हमें पता चला तो सचमुच बहुत गुस्सा आया, लेकिन हमने यह सोचकर चुप रहना मुनासिब समझा कि इतने दिनों बाद सरकारी तंत्र में से किसी ने हमारे दादा को कम-से-कम याद तो किया.’’
लखमी चंद के नाम पर सूबे में कोई स्कूल-कॉलेज तक नहीं. खट्टर सरकार ने पैतृक गांव अटेरना में कला-संस्कृति पर आधारित विश्वविद्यालय स्थापित करने का ऐलान तो किया था, इसके लिए 50 एकड़ भूमि भी अधिग्रहीत की गई. लेकिन फिर योजना को ठंडे बस्ते में डाल दिया गया. कलाकारों के दबाव बनाने पर पिछले साल रोहतक की स्टेट यूनिवर्सिटी ऑफ परफॉरर्मिंग ऐंड विजुउल आर्ट्स का नामकरण पंडित लखमी चंद के नाम पर किया गया.
दादा की याद में कौशिक जरूर सोनीपत के ही जाटी गांव में हर साल 17-18 जनवरी को रागिनी और सांग कार्यक्रम आयोजित करते हैं. इसके अलावा हरियाणा सरकार लोक कला और संस्कृति को बढ़ावा देने वालों को हर साल पंडित लखमीचंद अवार्ड से सम्मानित करती है. उनके नाम पर बस यही एक सरकारी आयोजन होता है.
डॉ. पूर्णचंद शर्मा ने लखमी चंद पर पंडित लखमीचंद ग्रंथावली और के.सी. शर्मा ने कवि सूर्य लखमीचंद नाम से किताब लिखी है. उन पर दादा लखमी नाम से फिल्म बनाने वाले अभिनेता यशपाल शर्मा की शिकायत है, ''पंडित जी जैसी अमर शख्सियत पर जितना और जिस स्तर का काम होना चाहिए था, नहीं हुआ. इसके चलते जरूरी संदर्भ आसानी से न मिल पाने से फिल्म बनाने में परेशानी आई.’’
रंगमंच से लंबे समय से जुड़े तथा हरियाणा कला परिषद के क्षेत्रीय निदेशक संजय भसीन भी मानते हैं कि दादा लखमी चंद की कला को सहेजने का अभी तक कोई ठोस प्रयास नहीं हुआ. लेकिन साथ ही वे सरकार के बचाव में भी दलील देते हैं: ''उनके नाम पर अब तक जो कुछ हुआ वह मनोहरलाल खट्टर सरकार की ही देन है. पिछली सरकारों ने कुछ भी नहीं किया.’’ वे बताते हैं, ''भविष्य में स्कूली स्तर पर पंडित लखमी चंद को पाठ्य पुस्तक में शामिल करने के संबंध में सरकार को प्रस्ताव भेजने की योजना है.’’
आज सांगों और रागिनियों में फूहड़ता और अश्लीलता जिस तरह से घुस गई है, उसने हरियाणवी संस्कृति का चेहरा बिगाड़ दिया है. ऐसे में नैतिक मूल्यों को बल देने वाली दादा लखमी चंद की धरोहर को सहेजना-संभालना और भी जरूरी हो गया है. नई नस्ल को उनके बारे में शिक्षित करना की उतना ही जरूरी है. पंडित लखमी चंद यूनिवर्सिटी ऑफ परफॉर्मिंग ऐंड विजुअल आट्र्स के सिनेमैटोग्राफी के तीसरे वर्ष के छात्र सालिक वक़ास के शब्दों में, ''हरियाणा के लोग अपनी संस्कृति से कटे तो पहचान खोते देर नहीं लगेगी.’’
नल-दमयंती, हरिश्चंद्र-तारामती, सत्यवान-सावित्री, शाही लकड़हारा, जानी चोर, भूप पुरंजन जैसी बेहद लोकप्रिय रचनाएं देने वाले लखमी चंद खुद अनपढ़ थे. मगर सांग और रागिनियों में वे जैसी भाषा, शब्द विन्यास, छंद, मुहावरे, समास और अलंकार का प्रयोग करते, उसके सामने बड़े-बड़े साहित्यकारों की रचनाएं फीकी पड़ जाती थीं. एक शादी समारोह में संयोगवश मिले अपने गुरु रागिनी गायक पंडित मान सिंह से उन्होंने रागिनी सीखी और सांग कला सीखने के लिए वे कुंडल के सोहन लाल के संपर्क में आए. बाद में सोहन लाल से विवाद होने पर उन्होंने अलग टोली बनाई.
फिर किसी ने उनके खाने में पारा मिला दिया जिससे वे लंबे समय तक बीमार रहे. ठीक होने पर नई मंडली बनाई और सांग व रागनी को ऐतिहासिक स्तर तक पहुंचाया. कौशिक याद करते हैं कि नारी चरित्र वे बखूबी निभाते थे. मगर शराब के आदी हो जाने के कारण जीवन के आखिरी दिनों वे अपनी ही विरासत से दूर हो गए और संन्यासी जैसे जीए. यशपाल शर्मा ठीक ही कहते हैं, ''किसी अच्छी और कामयाब फिल्म जैसी ही है दादा की जिंदगी की कहानी.’’
—मलिक असगर हाशमी
''पता चला कि दादा की लगाई प्रतिमा की शक्ल उनसे नहीं मिलती तो गुस्सा आया पर यह सोच चुप रह गया कि सालों बाद किसी ने उन्हें याद तो किया’’
विष्णुदत्त कौशिक
दादा लखमी चंद के पौत्र
खट्टर सरकार ने लखमी चंद के नाम पर उनके पैतृक गांव अटेरना में कला-संस्कृति पर आधारित विश्वविद्यालय स्थापित करने का ऐलान किया था लेकिन यह योजना ठंडे बस्ते में चली गई. कलाकारों के दबाव बनाने पर पिछले साल रोहतक की स्टेट यूनिवर्सिटी ऑफ परफॉर्मिंग ऐंड विजुअल आट्र्स का नामकरण उनके नाम पर कर दिया गया.