अब वह जमाना गया जब कहा जाता था कि पुत्र बिना गति नहीं. कम से कम बिहार के गया में तो कुछ ऐसा ही नजारा देखने को मिल रहा है. यहां महिलाएं अर्थी को कंधा देने से लेकर पिंडदान जैसी क्रियाओं को अंजाम दे रही हैं. इंजीनियरिंग की थर्ड ईयर की छात्रा दीपिका दीक्षित को ही लें. हाल ही में दीपिका अपनी मम्मी के साथ मध्य प्रदेश के रतलाम से गयाधाम अपने पिता का पिंडदान करने पहुंची थी. उसके पिता की अकाल मृत्यु हो गई थी. बेटा न होने के कारण उनकी मां हमेशा पति के पिंडदान को लेकर चिंतित रहा करती थीं. लेकिन जब दीपिका को अपनी मां की परेशानी की वजह पता चली तो उसने उन्हें खुद पिंडदान करने के लिए राजी कर लिया.
हिंदू मान्यताओं के अनुसार शवयात्रा में शामिल होने, अर्थी को कंधा और मुखाग्नि देने जैसे कर्मकांड पुरुष ही करते हैं. महिलाओं की भूमिका घर तक ही सीमित है.
नक्सल प्रभावित बाराचट्टी प्रखंड के बिघी गांव की 86 वर्षीया सुगिया देवी की मौत हुई तो अर्थी को उनकी तीन पोतियों नीलम, तिस्ता और शिप्रा यादव ने कंधा दिया. उन्होंने न सिर्फ अपनी दादी के शव को श्मशान घाट पहुंचाया बल्कि मुखाग्नि भी दी. ऐसा नहीं था कि मौके पर सुगिया की कोई संतान मौजूद नहीं थी. शवयात्रा और दाह संस्कार के समय श्मशान घाट पर उनके पांच बेटे, पोता और अन्य रिश्तेदार मौजूद थे.
इन दिनों गया में ऐसी घटनाएं आम हैं. मध्य प्रदेश के रायसेन की 15 वर्षीया नैनिका यादव अपनी मम्मी ललिता यादव के साथ पिता का पिंडदान करने गया आई थी. खजुराहो के आर्किलॉजी विभाग में कार्यरत नैनिका के पिता प्रताप सिंह यादव का निधन 2002 में हुआ था. ललिता कहती हैं, ''उनका अभाव तो ताउम्र खटकेगा, लेकिन उनकी आत्मा की शांति के लिए सबसे ज्यादा अभाव बेटे का खटक रहा था. ''
उनकी दो बेटियां हैं, नैनिका और आकांक्षा. उनके दाह संस्कार और पिंडदान में पुत्र का न होना परेशानी का कारण बना. जब पति की मौत हुई तो मुखाग्नि रिश्तेदारों ने दी. उनके मोक्ष के लिए गयाधाम में पिंडदान, श्राद्धकर्म और तर्पण करना चाहा तो पुत्र आड़े आ गया. ललिता बताती हैं, ''मैं यह सोचने पर मजबूर हो गई कि पुत्र के बिना धार्मिक कर्मकांड में बाधा ही बाधा है. फिर फैसला लिया कि जब बेटा पिंडदान कर सकता है तो बेटी क्यों नहीं. जब गयाधाम में बड़ी बेटी नैनिका के साथ पिंडदान करने पहुंची तो देखा, मेरी जैसी कई मां हैं जो अपने पति अथवा अन्य परिजनों के मोक्ष के लिए बेटियों से कर्मकांड करवा रही हैं.''
सिख धर्म में पिंडदान का विधान नहीं है. लेकिन पंजाब के पटियाला की योगेंद्र कौर, लक्ष्मी, रामप्यारी, कमला और मंजीत कौर के पति इस दुनिया में नहीं रहे तो ये सभी महिलाएं गयाधाम में पिंडदान करने आईं. वे बताती हैं, ''मेरा पिंडदान होगा या नहीं, यह बाद की बात है, लेकिन मैं तो अपने पति की आत्मा को मोक्ष दिलाने की खातिर यहां आई. '' इन सब ने विष्णुपद मंदिर से सटे और फल्गु नदी के तट पर स्थित देवघाट पर सामूहिक रूप से पिंडदान किया.
अर्जक संघ भी परंपराओं को ध्वस्त करने का बड़ा काम कर रहा है. संघ के तहत प्रसारित परंपरा में श्राद्धकर्म, ब्रह्मभोज और मुंडन का विधान नहीं है. सिर्फ शोकसभा आयोजित कर हिंदू आदर्शों पर चलने का संकल्प लिया जाता है. अर्जक संघ के राज्य कार्यकारिणी सदस्य उपेंद्र कुमार पथिक का कहना है कि पौराणिक परंपरा को छोड़कर अर्जक संघ के परंपरा से हटकर काम करने को बढ़ावा देने के कई फायदे हैं.
पहला तो कम पुरुष वाले परिवार में अर्थी ले जाने के लिए दूसरों के भरोसे नहीं रहना पड़ेगा, बेटे-बेटियों के बीच की असमानताएं दूर होंगी, बेटे के प्रति मोह कम होगा और बेटे को अर्थी उठाने, मुखाग्नि देने और पिंडदान करने से स्वर्ग मिलने जैसे अंधविश्वासों से छुटकारा पाया जा सकेगा.
नवादा जिले के गांधी नगर टोला मिर्यापुर की महिलाओं ने भी अर्थी को कंधा और मुखाग्नि देकर इस परंपरा को तोडऩे का काम किया है. इसी जिले के रोह प्रखंड के 70 वषीय बुद्धदेव महतो के निधन के बाद महिलाएं न सिर्फ शवयात्रा में शामिल हुईं बल्कि अर्थी को कंधा भी दिया. लोगों ने राम नाम सत्य है की बजाय जीना मरना सत्य है बोलते हुए जौ, अक्षत, तिल और पैसे के बदले शवयात्रा में फूल फेंके.
मृतक के अभियंता भाई ब्रह्मदेव प्रसाद ने इस परंपरा को सही ठहराते हुए बताया, ''मेरे बड़े भैया बुद्धदेव महतो समाज में फैले अंधविश्वास, रूढिय़ों और दकियानूसी परंपरा के घोर विरोधी थे. उन्होंने अपने जीवन में बेटे और बेटियों को एक नजर से देखा. अर्जक संघ की नीति और सिद्धांतों से प्रेरित होकर यह कदम उठाया गया. ''
उधर, पंडा समाज में इसे लेकर कोई विपरीत प्रतिक्रिया नजर नहीं आती. गयावाल पंडा महेश लाल गुप्त का कहना है, ''हिंदू धर्म में कर्मकांड दो भागों में बंटा हुआ है. एक दया भाग और दूसरा मिताक्षरा. दया भाग में महिलाओं के पहले से ही पिंडदान का विधान है. '' उनका कहना है कि इधर परिस्थिति विशेष और भावनाओं के कारण भी काफी संख्या में युवतियां और महिलाएं खुद को पिंडदान और अन्य कर्मकांड का अधिकारी मानती हैं. वे बताते हैं, ''यही कारण है कि इधर कुछ साल से गयाधाम में युवतियों और महिलाओं की पिंडदान करने में संख्या बढ़ गई है.''
सनतनी परंपरा में बेटे का महत्व सिर्फ वंश परंपरा को आगे बढ़ाने से ही नहीं है. हिंदू धर्म की मान्यताओं के मुताबिक, पुत्र के हाथों ही नरक से मुक्ति मिलती है. अगर इस तरह महिलाएं आगे आती रहीं तो शायद भविष्य में यह महत्व कुछ कम हो जाए. बेटियों का जमाना सचमुच आ रहा है.