हर सुबह 24 वर्षीया बॉबी बैश्य पांच बजे जग जाती हैं. खास ढंग की वर्दी पहन वे डेरगांव स्थित असम पुलिस के बटालियन प्रशिक्षण शिविर में पहुंचती हैं, जहां एक थका देने वाला दिन उनका इंतजार कर रहा होता है. असम के वॉलीबाल और भारत के नेटबॉल टीम में प्रतिनिधित्व करने वाली पांच फुट दस इंच लंबी बॉबी छह किमी दौड़ती हैं, क्लाश्निकोव और दूसरे एसॉल्ट हथियार चलाती हैं, चीनी मार्शल आर्ट वुशु सीखती हैं तथा मोटरसाइकिल पर खतरनाक स्टंट करने का अभ्यास करती हैं.
इसके बाद वे फटाफट नाश्ता करती हैं और भारतीय दंड संहिता यानी आइपीसी पर एक घंटे की कक्षा में बैठती हैं. अगला सत्र 2.30 बजे शुरू होता है जो दो घंटे तक चलता है. शिबसागर के सरकारी कर्मचारी की सबसे छोटी बेटी बॉबी कहती हैं, ‘‘यह सब बहुत मुश्किल है, लेकिन इस मिशन का हिस्सा बनकर मुझे जो गर्व महसूस होता है, उसके कारण मैं शारीरिक और मानसिक पीड़ा भूल जाती हूं.’’ वे अकेली नहीं हैं. पिछले पांच माह से प्रदेश के विभिन्न कोनों से आईं 43 लड़कियां इस कड़ी दिनचर्या का पालन कर रही हैं. वीरांगना की (असमिया में जिसका मतलब महिला योद्धा होता है) ये लड़कियां भारत की पहली पूरी तौर पर स्त्रियों की साइलेंट ड्रिल कमांडो इकाई की सदस्य हैं.
इस विशेष पलटन का गठन असम की सड़कों पर स्त्रियों के प्रति होने वाली हिंसा को रोकने के लिए किया गया है. 26 जनवरी, 2013 से यह बटालियन अपना काम शुरू कर देगा. काली वर्दी और पर्पल कैप लगाए 6 के समूह में बंटी कमांडो शुरू में तीन मोटरसाइकिलों पर सवार होकर प्रदेश की राजधानी गुवाहाटी में चौबीस घंटे गश्त करती रहेंगी.
एक साथी प्रशिक्षु के साथ वुशु द्वंद्व युद्ध का अभ्यास कर रहीं 22 वर्षीया पोम्पी पटगिरी, अभ्यास रोककर कहती हैं, ‘‘हम निश्चित रूप से शारीरिक ताकत पर आधारित पुरुष श्रेष्ठता के मिथक को तोड़ देंगी. चाहे चेन छीनने वाले बाइकर्स का पीछा करना हो, या संभावित बलात्कारियों को रोकना, हम आमने-सामने की लड़ाई का हुनर और माद्दा रखती हैं.’’ 2010 में असम पुलिस में भर्ती होने से पहले पोम्पी वुशु मार्शल आर्ट की राज्यस्तरीय चौंपियन थीं.
विशेष मौकों पर, वीरांगना की कमांडो सादे कपड़ों में ऐसे स्थानों पर घूमती रहेंगी जिन स्थानों का स्त्रियों के प्रति अपराध का इतिहास रहा है. 2010 में असम पुलिस में कांस्टेबल के रूप में भर्ती होने के लिए ग्रेजुएशन की अपनी पढ़ाई बीच में ही छोड़ देने वाली बॉबी कहती हैं, ‘‘मैं औरतों में उनकी क्षमताओं के प्रति भरोसा जगाना चाहती हूं, और ऐसे पुरुषों में भय पैदा करना चाहती हूं जो स्त्रियों का सम्मान नहीं करते.’’ बॉबी के साथ वीरांगना की पहली तीन रंगरूटों में से एक मंदिरा छेत्री बताती हैं, ‘‘वीरांगना में शामिल होने के बाद मुझे अपने अंदर छिपी ताकत का एहसास हुआ है. यह फिर से जन्म लेने जैसा है. अब मैं किसी मर्द की ताकत से डर महसूस नहीं करती.’’
तेजपुर की 24 वर्षीया मंदिरा मार्च में अपनी शादी के एक माह बाद इस विशिष्ट बल में शामिल हुई थीं. मंदिरा, जिनकी सौम्य मुस्कराहट और बच्चों-सा उत्साह एक फौलादी संकल्प को छिपाए हुए है, कहती हैं, ‘‘मुझे अपने पति की याद तो आती है, लेकिन अपने फैसले का कोई पछतावा नहीं है.’’ डेरगांव बटालियन प्रशिक्षण शिविर के कमांडिंग ऑफिसर सत्यकाम हजारिका कहते हैं, ‘‘वे सिर्फ अविवाहित महिलाओं को ही भर्ती करने के हमारे फैसले के पहले ही हमसे जुड़ चुकी थी.’’
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार 2011 में औरतों के प्रति अपराध की दर के मामले में असम भारत में दूसरे स्थान पर था. असम के पुलिस अधिकारियों का मानना है कि वीरांगना से प्रदेश को इस कलंक से निजात पाने में मदद मिलेगी. इस विशिष्ट बल के सूत्रधार, असम पुलिस के महानिरीक्षक (प्रशिक्षण एवं सशस्त्र पुलिस) भास्कर ज्योति महंत कहते हैं, ‘‘छेड़छाड़ की कोई पीड़िता पुरुष पुलिसकर्मियों के बीच सहज महसूस नहीं करती.
वीरांगना की कमांडो न सिर्फ अपराधियों के खिलाफ त्वरित कार्यवाही करने के लिए प्रशिक्षित हैं, बल्कि वे किसी महिला को अपनी लैंगिक अस्मिता के बारे में सुरक्षित और आश्वस्त महसूस कराने के लिए भी प्रशिक्षित हैं. पुरुषों से महफूज महसूस करने के लिए उसे पुरुषों की दया की मोहताज हरगिज नहीं रहना चाहिए.’’
देश को हिलाकर रख देने वाले 9 जुलाई के जी.एस. रोड छेड़छाड़ मामले-जिसमें एक पब के बाहर एक 21 वर्षीया लड़की के साथ गुंडों का एक गिरोह 40 मिनट तक क्रूरतापूर्वक छेड़छाड़ करता रहा-चार महीने पहले ही महंत ने असम में औरतों के प्रति बढ़ते अपराधों से निपटने के लिए एक विशेष बल के गठन का प्रस्ताव रखा था.
प्रदेश के पुलिस महानिदेशक जयंतो नारायण चौधरी ने उनके प्रस्ताव को तुरंत मंजूरी दे दी गई. 18 अप्रैल को असम पुलिस की तीन महिला रंगरूटों को साइलेंट ड्रिल में 15 दिनों के विशेष प्रशिक्षण के लिए तमिलनाडु भेजा गया.
हजारिका बताते हैं, ‘‘सबसे कठिन था अगला कदम यानी ऐसी लड़कियों को चुनना जो खासतौर पर वीरांगना के लिए बनाए गए कठोर प्रशिक्षण मापदंड का सामना कर सकें.’’ एक चयन परीक्षा के बाद, जिसमें पांच किलोमीटर की दौड़, सौ पुश अप, बाधा दौड़, रस्सी के सहारे चढ़ाई और सामान्य आईक्यू टेस्ट शामिल थे, 51 लड़कियों को भर्ती किया गया.
हजारिका बताते हैं, ‘‘हमने सिर्फ उन्हीं को चुना जिनका एप्टीट्यूड ठीक था. नतीजन, हमारे यहां नौकरी छोडऩे की दर कम है. सिर्फ आठ लड़कियां ही इकाई को छोड़कर गई हैं, और वह भी निजी कारणों से.’’ 9 नवंबर को गुवाहाटी में मुख्यमंत्री तरुण गगोई ने आधिकारिक तौर पर वीरांगना का सृजन किया.
असर अभी से महसूस किया जाने लगा है. हालांकि अभी वीरांगनाओं का सड़क पर उतरना बाकी है, गुवाहाटी के पार्क, पब और महिलाओं पर हमले के लिए कुख्यात अन्य इलाके अंधेरा होने के बाद वीरान दिखने लगे हैं.
हजारिका कहते हैं, ‘‘स्थानीय मीडिया वीरांगना को काफी बढ़ा-चढ़ाकर पेश कर चुका है और सामान्य धारणा यही है कि कमांडो काम पर लग चुकी हैं और वे वेश बदलकर गतिविधियों की निगरानी कर रही होंगी. इस तरह बदमाश या तो सतर्क हो गए हैं या अपने तौर तरीके सुधार रहे हैं.’’