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दलित उत्पीड़न और प्रतिरोध की प्रयोगशाला

हरियाणा के दलित सिर उठाकर जीना चाहते हैं और उन्हें इसकी कीमत कभी हत्या तो कभी बलात्कार की शक्ल में चुकानी पड़ रही है. वहां जितना दमन है, उतना ही प्रतिरोध भी है. इस संघर्ष में प्रदेश की राजनीति बदल सकती है.

अपडेटेड 6 अक्टूबर , 2012

डाबड़ा गांव के 42 साल के एक दलित ने 18 सितंबर की रात जहर खाकर जान दे दी, क्योंकि उसकी नाबालिग बेटी की इज्जत को जाटों के लड़कों ने तार-तार कर दिया और वह कुछ न कर सका. लड़की का आरोप है कि सात लड़कों ने उसके साथ गांव के ही खेत में बलात्कार किया और पांच लड़के इस बात पर नजर रखे हुए थे कि कोई उन्हें देख न पाए.

आरोप यह भी है कि इस दौरान लड़कों ने मोबाइल से तस्वीरें भी खींची. पिता की मौत भले ही शर्मिंदगी के चलते हुई लेकिन इसे दलित स्वाभिमान की लड़ाई बनने में ज्यादा वक्त नहीं लगा. दलित समुदाय ने तब तक शव का अंतिम संस्कार करने से मना कर दिया, जब तक आरोपी गिरफ्तार नहीं होते.

इसका असर भी हुआ. चंडीगढ़ से लेकर दिल्ली तक सरकारों में हलचल हुई. राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग के उपाध्यक्ष राजकुमार वेरका और राज्य महिला आयोग की अध्यक्ष सुशीला शर्मा 25 सितंबर को पीड़ित के घर पहुंचे. इसी दिन पीड़िता की मां ने इंडिया टुडे से कहा, ‘‘हम गरीब हैं, कमजोर हैं, इसलिए हमारी बेटी को निशाना बनाया गया. अब हमारा सब कुछ बर्बाद हो चुका है. हमारी सिर्फ एक ही मांग है कि हर हाल में उन बदमाशों को गिरफ्तार किया जाए.’’

पीड़िता के ताऊ ने आरोप लगाया, ‘‘जाट समुदाय के एक नेता ने हम से कहा कि मीडिया को गांव में न आने दें. गांव की बात है. आपस में बात करके निबटाते हैं. लेकिन हम उनकी पंचायत में नहीं गए.’’ उनका यहां तक कहना है कि एक आरोपी को एक दिन पहले तक गांव में ही देखा गया, लेकिन पुलिस उसे गिरफ्तार नहीं कर सकी.Haryana

बहरहाल, 26 सितंबर की शाम तक पुलिस ने 12 में से नौ आरोपियों को गिरफ्तार कर लिया. पर पीड़ित पक्ष के आरोपों और 12 में से आठ आरोपियों के जाट समुदाय से होने के बावजूद, मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा ने पूरे मामले पर अब तक एक भी बयान नहीं दिया है. इंडिया टुडे के संपर्क करने पर भी हरियाणा सरकार के जनसंपर्क विभाग ने समय की उपलब्धता न होने का हवाला दिया. हिसार के डिप्टी कमिश्नर (डीसी) अमित कुमार अग्रवाल ने कहा, ‘‘लड़की के साथ अत्याचार हुआ है. जाट बनाम दलित की बात ठीक नहीं है.’’

लेकिन, हरियाणा में डाबड़ा कांड कोई अकेली घटना नहीं है,. राज्य में एक के बाद एक घटनाएं होती रही हैं, जहां दलितों को सिर्फ इसलिए निशाना बनाया गया क्योंकि वे ‘मूक दर्शक नहीं’ बने रहना चाहते (देखें: मेहमान का कॉलम). डीसी दफ्तर के ठीक सामने चार महीने से जिले के ही भगाना गांव के बहुत से दलित परिवार डेरा जमाए हैं.

भगाना गांव में इस साल मई में विवाद तब शुरू हुआ जब दलितों ने ग्राम पंचायत की जमीन पर डॉ. भीमराव आंबेडकर की मूर्ति लगाने और गांव के प्ले ग्रांउड पर दलितों को पट्टे देने की मांग उठाई. जाट समुदाय ने इसका विरोध किया और अदालत में मुकदमा जीतने के बाद उन्होंने ग्राम पंचायत की जमीन को घेरकर इसे ‘अहलान पाना चौक’ का नाम दे दिया.

चौक की चारदीवारी ने दलित बस्ती की ओर जाने वाली संकरी गली को बंद कर दिया हालांकि बगल में ही मौजूद मुख्य रास्ता पूरी तरह खुला रहा. लेकिन 550 जाट और 350 दलित घरों की मौजूदगी वाले गांव में तनाव फैलते देर नहीं लगी. ‘‘जाटों ने हमारा हुक्का-पानी बंद कर दिया. 21 मई को 70 दलित परिवारों ने गांव छोड़कर कचहरी में शरण ले ली. और हम आज तक यहीं डटे हैं.’’ यह कहना है यहां धरना दे रहे 30 वर्षीय जगदीश गाजला का. दलित महिलाएं कचहरी की सीढिय़ों के सामने ही चूल्हा-चौका कर रही हैं. बुजुर्ग टूटी खटिया पर पड़े हैं औैर बच्चों के लिए कचहरी में चलने वाली सरकार जिज्ञासा का विषय है.

अपनी इस जंग में उनका सबसे बड़ा सहारा है, बाबा साहेब की तस्वीर जो बड़ी श्रद्धा के साथ वहां विराजमान है. आन की इस लड़ाई के बारे में गाजला ने कहा, ‘‘जब तक चौक पर बाबा साहेब की मूर्ति नहीं लगेगी और प्ले ग्राउंड दलितों को नहीं दिया जाएगा, हम वापस नहीं लौटेंगे.’’Haryana dalit

उधर, गांव में तस्वीर का दूसरा पहलू नजर आता है. जाट समुदाय के नरेंद्र सिंह ने कुछ दलितों की मौजूदगी में ‘अहलान पाना चौक’ पर इंडिया टुडे को बताया कि यहां आज भी दलित और अन्य समुदाय के लोगों की गायें बंध रही हैं. नरेंद्र सिंह ने कहा, ‘‘जो भाई गांव छोड़कर गए हैं वे वापस आ जाएं तो हमें क्या विरोध है.’’ उन्होंने कहा कि जो लोग कचहरी में धरना दे रहे हैं, उन लोगों को कुछ संगठनों की शह मिल रही है. धरना दे रहे दलित गांव के दलितों पर भी उनके साथ शामिल होने का दबाव बना रहे हैं.

दलित समुदाय के मंजीत नाम के लड़के की 13 सितंबर को दलित समुदाय के ही लोगों ने पिटाई कर दी. इस मामले में 19 दलितों को गिरफ्तार किया गया. मंजीत ने कहा कि धरने को समर्थन देने के मुद्दे पर झगड़ा शुरू हुआ था. लेकिन जाट समुदाय के लोगों से जब इंडिया टुडे ने पूछा, ‘‘जब इतना ही भाईचारा है तो क्यों नहीं आप बड़प्पन दिखाते हुए बाबा साहेब की मूर्ति लग जाने देते.’’ इस पर कूटनीतिक जवाब था, ‘‘अभी चौक पर झगड़ा हो रहा है. कल को कोई मूर्ति को नुकसान पहुंचा दे तो नया बखेड़ा खड़ा हो जाएगा. हम मूर्ति नहीं लगने देंगे.’’

भगाना से 50 किमी दूर स्थित मिर्चपुर के बहुचर्चित कांड में यही बात सामने आई थी. 19 अप्रैल, 2010 को एक कुत्ते के भौंकने जैसी मामूली घटना ने गांव में ऐसा भयंकर रूप लिया कि दो दिन बाद यहां दलितों के 18 घरों में आग लगा दी गई. उस दिन को याद करते हुए 70 साल के चंद्र सिंह चौहान बताते हैं, ‘‘ताराचंद वाल्मीकि और उनकी अपाहिज बेटी सुमन को घर में ही जिंदा जला दिया. हम भी आग में फंस गए थे. अगर दमकल की गाड़ी वक्त रहते आग न बुझती तो मरना तय था.’’

सुमन के कमरे से मिली पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन की किताबें इस बात का प्रमाण मानी जा सकती हैं कि हरियाणा के दलित अपनी जिंदगी बदलने को बेताब हैं. फिर 24 अप्रैल को यहां से भी वाल्मीकि समुदाय के लोगों ने पलायन किया और 27 अप्रैल को राहुल गांधी भी अपने अंदाज में यहां पहुंचे.

राहुल के आने के बाद हरियाणा सरकार अचानक हरकत में आई. तब से गांव में सीआरपीएफ की कंपनी तैनात है. अग्निकांड में मारे गए ताराचंद वाल्मीकि के तीनों बेटों को सरकार ने नौकरी और सुरक्षा गार्ड मुहैया कराए. परिवार को 30 लाख रु. मुआवजा भी मिला. आग में जले सारे घरों को पक्का बनवा दिया गया. लेकिन वाल्मीकि बस्ती की गलियों में भरा रहने वाला कीचड़ और दिलों में जमी नफरत की कालिख अभी खत्म नहीं हुई.

20 साल के अमन चौहान कहते हैं, ‘‘हम इस गांव में रहना नहीं चाहते. अब न तो हम जाटों के खेत में काम करना चाहते हैं और न वे हमसे काम कराना चाहते हैं. गुस्सा दोनों तरफ है. जब काम नहीं है तो हम यहां खाएंगे क्या. सरकार हमें हिसार में मकान दे.’’

मिर्चपुर की व्यथा का दूसरा सिरा हिसार में दलितों की लड़ाई लड़ रहे सामाजिक कार्यकर्ता वेदपाल तंवर के फार्म हाउस में खुलता है. यहां दो साल से रह रहे दलित परिवारों की नुमाइंदगी कर रहे सत्यवान वाल्मीकि कहते हैं, ‘‘गांव में रह रहे लोग आपको सच नहीं बता पाएंगे. जिन लोगों ने अदालत में जाटों के खिलाफ गवाही दी वे सब के सब गांव से बाहर हैं. गांव में कौन ऐसा है जिसने जाटों के थप्पड़ न खाए हों.’’ उनकी सीधी मांग है कि सरकार उन्हें हिसार में प्लॉट दे.

दलित और उनके शुभचिंतकों के बारे में सरकार की क्या राय है, इसकी बानगी पिछले महीने हुई एक घटना से मिली. तंवर के फार्म हाउस पर सांप के काटने से सुमन नाम की महिला की मौत हो गई. इस मामले में पुलिस ने फार्म हाउस के मालिक वेदपाल तंवर को ही गैर-इरादतन हत्या की धारा में जेल में बंद कर दिया.

ज्यादातर वाल्मीकि परिवारों ने इसे तंवर के खिलाफ सरकार की साजिश बताया. तंवर ने कहा, ‘‘मुझे एक महीने तक जेल में बंद रखा. मृतका के परिजनों के बयान के बाद मुझे छोड़ा गया.’’ तंवर का कहना है कि प्रदेश के दोनों प्रमुख राजनैतिक दलों का नेतृत्व जाट समुदाय के हाथ में है.

हरियाणा में दलित उत्पीडऩ की कहानी पुरानी है. हुड्डा से पहले इंडियन नेशनल लोकदल (आइएनएलडी) के मुख्यमंत्री ओम प्रकाश चौटाला के शासन में दुलीना कांड में पांच दलितों को पीटकर मारा डाला गया, क्योंकि उनका यह कसूर था कि वे गाय का चमड़ा निकाल रहे थे. वह बहुत पुरानी बात नहीं है जब हरियाणा में दलितों के वोट दबंग जातियों के लोग डाला करते थे. लेकिन अब वक्त बदल रहा है.

हिसार में इस साल हुए लोकसभा उपचुनाव के नतीजे में इस सफर की हलकी झलक दिखी है. उपचुनाव में  कुलदीप बिश्नोई ने ओम प्रकाश चौटाला के बेटे अजय चौटाला को 23,000 से अधिक वोटों से मात दी. लेकिन गैर-जाट राजनीति की जड़ें जमना इतना आसान भी नहीं है. उत्तर प्रदेश में पांव जमाने से कहीं पहले बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी) ने खुद को हरियाणा में स्थापित करने की कोशिश की थी. लेकिन यहां की सियासी आबोहवा में उसका हाथी सेहतमंद नहीं हो सका. हरियाणा में दलित जिस तरह से खुद को अभिव्यक्त करने की लड़ाई लड़ रहे हैं, ऐसे में बहुत लंबे समय तक उन्हें सियासत के हाशिये पर रखना मुमकिन नहीं होगा.

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