निखिल धनराज वाठ
हर साल की तरह इस साल भी असम बाढ़ की चपेट में है. बारिश के मौसम में कहीं पानी भर जाए, और वह भी पूर्वोत्तर में, तो लोगों को लगता है कि एक घिस चुकी कैसेट फिर से बजाई जा रही है. बाढ़ के मौसम में कुछ शब्द और जुमले होते हैं, जो जगह बदल-बदल कर वाक्यों का हिस्सा बनते रहते हैं— तटबंध, खतरे के निशान से ऊपर, राहत सामग्री, हेलिकॉप्टर, मुख्यमंत्री, पीड़ित, मृतक और मुआवजा. ये सारे शब्द असम के अखबारों में रोज छप रहे हैं. बस इतनी राहत है कि जो बाढ़ 33 जिलों में थी, वह अब 20 के करीब जिलों में ही है.
पानी का स्तर धीरे-धीरे कम होने लगा है. लेकिन बीते दो हफ्तों में असम ने जो देखा है, उसकी मिसाल बीते कई सालों में नहीं मिली थी. ब्रह्मपुत्र घाटी में पड़ने वाला बारपेटा जिला करीब-करीब पूरी तरह पानी में डूब गया था, राहत शिविर तक बनाने की जगह नहीं थी. और बराक घाटी के सबसे बड़े शहर सिलचर में दो हफ्तों तक सिर्फ नाव चली, पीने का पानी तक ड्रोन और हेलिकॉप्टर से गिराया गया. इंडिया टुडे ने इन दोनों जिलों का दौरा किया.
गुवाहाटी से पश्चिम की तरफ तकरीबन 100 किलोमीटर दूर से बारपेटा जिले की सीमा शुरू होती है. यहां के कायाकुची गांव में हमें सलाह दी जाती है कि छाता खरीद लीजिए. क्योंकि बारिश कभी भी आ सकती है. हमारे ड्राइवर अली भाई दुकानदार को बताते हैं कि खरीददार 'संगबादी’ है. माने असमिया में पत्रकार. तो दुकानदार टूटी फूटी हिंदी में बताने की कोशिश करते हैं, ''55 मेरा उम्र हुआ. लेकिन इतना पानी नहीं देखा. दुकान के अंदर तक पानी था. दो हफ्ता बंद रखा.’’ असम में करीब 24 लाख लोग बाढ़ प्रभावित हैं. इनमें से 7 लाख अकेले बारपेटा में हैं.
कायाकुची से आगे बढ़ते हुए हमें लगातार सड़क के दोनों किनारों पर दूर-दूर तक बाढ़ का पानी नजर आता है. जमीन में ढलान न के बराबर है, तो पानी निस्तब्ध खड़ा है. मानो कोई झील हो. बाढ़ की विभीषिका न हो, तो इससे सुंदर दृश्य की कल्पना करना मुश्किल होगा. लेकिन तभी हमारी नजर सड़क पर बने कैंप पर जाती है. ये सरकारी राहत शिविर नहीं हैं. ये गांववालों के टेंट हैं, जो सड़क पर इसीलिए लगे हैं, क्योंकि बस वही पानी के बाहर है. कम से कम अब तक.
कुछ देर चलने पर हमें एक कॉलेज नजर आता है. बच्चों से खचाखच भरा. कोई बताता है कि असम में हायर सेकंडरी का नतीजा आया है. बच्चे खुशी के मारे शोर मचा रहे हैं. लेकिन कॉलेज में घुसते ही हम देखते हैं कि किताबें बेंच के ऊपर रखी हुई हैं. स्टाफ रूम में पार्टिशन वॉल की लकड़ी नीचे से सड़ रही है.
आगे के कमरों में बेंच जोड़कर पलंग बना दिए गए हैं. मच्छरदानियां लगी हैं. लोग घर डूबने से पहले जितना सामान लेकर निकल सकते थे, वह नजर आ रहा है—कपड़े, कुछ बर्तन. एक चूल्हा.
कैंप में अपना दूसरा हफ्ता बिता रहे साहिब अली शिकायत करते हैं, ''सरकार ने कैंप तो बना दिया, लेकिन हम यहां खाएं क्या? 10 दिन से ऊपर हो गया, लेकिन सरकार की तरफ से हमें एक व्यक्ति पर 800 ग्राम चावल और मुट्ठी भर दाल के अलावा कुछ नहीं मिला. साथ में थोड़ा-सा नमक. पानी में चलते-चलते पैरों में खुजली और घाव हो रहे हैं. कैंप में जो डॉक्टर आए, उन्होंने सिर्फ बुखार के बारे में पूछा. खुजली की दवा उनके पास नहीं थी.’’
इसके बाद हमने कायाकुची में प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र का दौरा किया. यहां दो ड्यूटी डॉक्टर इलाज करते मिले. डॉक्टर नीलोफर ने बताया कि वे कैंप में भी गई थीं. लेकिन रास्ता बहुत खराब है. कभी नाव, तो कभी पैदल गईं. डॉ. नीलोफर जोर देकर कहती हैं कि सर्दी, बुखार, पेट खराब होने और पैरों में इन्फेक्शन के मामले आ रहे हैं. लेकिन महामारी जैसी स्थिति नहीं है.
इंडिया टुडे ने राहत शिविरों के मामले पर असम आपदा प्रबंधन प्राधिकरण के मुख्य कार्यकारी अधिकारी (सीईओ) ज्ञानेंद्र देव त्रिपाठी से बात की. उन्होंने राहत सामग्री की मात्रा को लेकर कहा कि यह सामान्य दिनों की खुराक से कम तो है लेकिन यह सिर्फ आपातकालीन व्यवस्था है और इसमें सुधार किया जाएगा.
असम में बार-बार बाढ़ क्यों आती है?
बाढ़ सिर्फ बारिश के चलते नहीं आती. उसके अलावा भी कई कारण होते हैं. भारतीय उष्णदेशीय मौसम विज्ञान संस्थान (आइआइटीएम), नई दिल्ली के निदेशक रहे डॉ भूपेंद्र नाथ गोस्वामी बताते हैं कि पूर्वोत्तर का अलहदा भूगोल और मौसम है. यहां हर साल आने वाली बाढ़ में इनका सबसे अहम योगदान है.
पहला कारण तो मॉनसून ही है. मध्य भारत के इलाकों में जितनी बारिश जून के अंत से होनी शुरू होती है, उतनी बारिश पूर्वोत्तर में अप्रैल के आखिर से ही होने लगती है. इन इलाकों में बारिश का मौसम भी लंबा होता है और अपेक्षाकृत ज्यादा बारिश देकर जाता है. दूसरा कारण है भूगोल. असम के चारों तरफ ऊंचे-ऊंचे पहाड़ हैं. तीखी ढलान के चलते सारा पानी असम की तरफ आता है. यहां आकर ढलान कम हो जाती है, तो पानी चहुंओर फैल जाता है. जो कई दिनों तक जस का तस जमा रहता है.
तीसरा कारण है असम की मिट्टी. असम के ज्यादातर इलाकों में मिट्टी के कण बड़े बारीक हैं. इस मिट्टी की तासीर कटाव वाली होती है. पानी अपने लिए बहते हुए एक चैनल तराश लेता है. फिर धीरे-धीरे ये चैनल बड़े होते हैं और अंतत: नदियां बन जाते हैं. यही कारण है कि तिब्बत से आने वाला ब्रह्मपुत्र जब भारत में दाखिल होता है (ब्रह्मपुत्र नदी नहीं, नद है), तो उसमें एक के बाद एक सहायक नदियां मिलने लगती हैं. अकेले पूर्वोत्तर में ब्रह्मपुत्र की 40 से ज्यादा सहायक नदियां हैं. इन सारी नदियों के चलते अलग-अलग जगह बाढ़ आ सकती है. या फिर अगर ब्रह्मपुत्र में पानी का स्तर ऊपर आ जाए तो असम के दर्जनों जिलों में एक साथ बाढ़ आ जाती है. खासकर निचले असम (लोवर असम) में.
कटाव ज्यादा होता है, तो दो समस्याएं और पैदा हो जाती हैं. पहली, नदी में बढ़ते तलछट के चलते पानी ले जाने की उसकी क्षमता कम हो जाती है. तो पानी किनारे तोड़कर निकलने लगता है. और दूसरी, नदी एक चैनल में न चलकर कई धाराओं में चलने लगती है. बीच-बीच में नदी-द्वीप बन जाते हैं, जिन पर लोग पहले खेती करने लगते हैं, उसके बाद घर बना लेते हैं. इन द्वीपों के डूबने का खतरा हमेशा रहता है. जब नदी फिर रास्ता बदलती है, तो ये द्वीप कटाव के चलते बह भी जाते हैं.
तो क्या इन कारणों के चलते यह मान लिया जाए कि बाढ़ सिर्फ प्राकृतिक कारणों के चलते आई? डॉ. गोस्वामी तुरंत कहते हैं, ''प्रकृति में कुछ भी अवांछित नहीं होता. यहां के मौसम और भूगोल को देखते हुए प्रकृति ने एक व्यवस्था तैयार की है, जो कभी धोखा नहीं देती. लेकिन इनसान के दखल के बाद बात बदल जाती है. ब्रह्मपुत्र घाटी में जहां से पानी आता है—मसलन पूरा पूर्वोत्तर और भूटान वहां अब बांध बना दिए गए हैं. इन बांधों के प्रबंधन में कमी बाढ़ का एक मुख्य कारण है.’’
डॉ. गोस्वामी यह भी कहते हैं कि अगर प्रशासन ने आंख-कान खुले रखे होते, तो वे इस संकट को पहले ही भांप जाते, और तब नुक्सान कम किया जा सकता था. लेकिन सारे संकेतों की अनदेखी की गई. अप्रैल और मई महीने में लगातार बारिश के चलते बांध अपनी क्षमता तक भर गए थे. ऐसे में प्रशासन को नगालैंड, मेघालय, भूटान आदि से बात करके बांधों का पानी धीरे-धीरे छोड़ने को कहना चाहिए था. लेकिन यह काम नहीं हुआ. और जब जून में बारिश हुई, तो बांधों के पास पानी छोड़ने के अलावा कोई और विकल्प रह नहीं गया था.
ब्रह्मपुत्र घाटी से इतर बराक घाटी की बात करें तो यहां भारी बारिश के दौरान सिलचर के निचले इलाकों में पानी भर जाना नई बात नहीं है. लेकिन बाढ़ के चलते इतने नाटकीय दृश्य संभवत: पहली बार देखे गए. कई-कई इलाकों में घर पूरे के पूरे डूब गए थे. बहुमंजिला इमारतें ही पानी के ऊपर नजर आ रही थीं. शहर की कई बड़ी सड़कों पर डेढ़ हफ्ते तक सिर्फ नाव ही चल पाई.
प्रशासन ने हेलिकॉप्टर से राहत सामग्री देना शुरू किया, तो लोग छतों पर इकट्ठा होने लगे. हेलिकॉप्टर आता और ऊपर से गुजर जाता. इसके बाद जिला प्रशासन ने ऐलान करवाया कि छतों पर भीड़ न लगाएं, राहत सामाग्री गिराने के लिए खुली जगह चाहिए होती है. ऐसा भी हुआ कि राहत सामग्री का पैकेट किसी टिन की छत पर गिरकर उसे बेधते हुए निकल जाता.
प्रशासन ने ड्रोन से भी राहत सामग्री बांटी. लेकिन ड्रोन न ज्यादा सामान ले जा पाता है, और न ही ज्यादा जगह जा पाता है. हां, ड्रोन की मदद से जरूरतमंदों की पहचान कुछ आसान हो जाती है. राहत पहुंचाने का सबसे कारगर तरीका तो नाव ही थी. जिला प्रशासन से लेकर सेना तक ने नावों का इस्तेमाल खूब किया. अब भी कर रहे हैं.
सिलचर में यह नौबत क्यों आई, इसका जवाब सिर्फ भारी बारिश में नहीं है. असम के मुख्यमंत्री हिमंता बिस्वा सरमा भी कह चुके हैं कि यह मानव-निर्मित संकट है. अब हम जानते हैं कि सिलचर में एक तटबंध के टूटने के चलते भारी मात्रा में पानी घुसा. लेकिन यह बात इतनी सीधी भी नहीं है. सिलचर में महिस बिल नाम का एक इलाका है. बिल का मतलब होता है तालाब या झील. जैसा कि नाम से जाहिर है, यह निचला इलाका है. फिर बराक नदी के किनारे बने बेतुखांडी के तटबंध के चलते इलाके से पानी की निकासी नहीं हो पाती थी.
इलाके के लोग लंबे समय से इसके हल की मांग कर रहे थे. सरकारें आती-जाती रहीं. वादे होते रहे. लेकिन बेतुखांडी तटबंध को लेकर कोई स्थाई समाधान नहीं निकल सका. 2022 की मई में जब तेज बारिश हुई, इलाके में हर साल की तरह एक बार फिर पानी भर गया तो आजिज आकर लोगों ने बराक नदी के किनारे बने तटबंध को तोड़ दिया. इससे फौरी राहत तो मिली, लेकिन जब जून के मध्य में बराक नदी का जलस्तर अचानक बढ़ा, तब पानी तटबंध की इसी दरार से शहर में घुसा.
वैसे पूरे सिलचर में पानी तटबंध की एक ही दरार से घुसा, यह कहना गलत होगा. शहर के बाशिंदे दबी जबान में यह स्वीकार करते हैं कि शहर से दूर टूटे दूसरे तटबंधों के चलते सिलचर को कुछ राहत भी मिली. इससे पानी का दबाव कुछ कम हुआ. वर्ना शहर के नजदीक तटबंध बड़ी संख्या में टूट जाते तो तबाही और बड़ी हो सकती थी.
राज्य या केंद्र की शायद ही कोई एजेंसी हो जिसे सिलचर में लगाया न गया हो. जिला प्रशासन, राज्य आपदा प्रतिक्रिया निधि (एसडीआरएफ), राष्ट्रीय आपदा प्रतिक्रिया बल (एनडीआरएफ), सेना और असम राइफल्स—इन सबके पास अलग-अलग इलाकों की जिम्मेदारी थी. कुछ लोगों ने ड्यूटी के चलते मदद की, कुछ ने अपने मन से.
सिलचर मेडिकल कॉलेज में जनरल सर्जरी के रेजिडेंट डॉ. सैयद फैज़ान अहमद ने इंडिया टुडे को बताया कि शुरुआत में जूनियर डॉक्टर्स एसोसिएशन के 7-8 डॉक्टरों ने अपना एक छोटा-सा समूह बनाकर इलाज करने के बारे में सोचा. इन युवा डॉक्टरों को मारवाड़ी एसोसिएशन ने नाव दिलवाई. राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन (एनएचएम) के अधिकारियों ने यह प्रयोग देखा और इन डॉक्टरों को संसाधन और दवाएं दीं. डॉ. फैज़ानन बताते हैं कि सिलचर मेडिकल कॉलेज से कुछ डॉक्टरों को पास के सिविल अस्पताल भी भेजा गया क्योंकि वहां मरीजों की भारी भीड़ थी और डॉक्टर सिर्फ दो.
बाढ़ ने असम में काफी कुछ तबाह कर दिया है. रास्ते, रेलवे लाइन और रोजगार का सबसे बड़ा माध्यम—कृषि. धान के खेत डूबे हुए हैं, इसीलिए बुआई हो नहीं पाई है. तालाबों के ऊपर से पानी बह निकला, तो मछलियां भाग गईं. ऐसे में देहात के सामने रोजगार का प्रश्न खड़ा हो गया है. और यह कहानी हर साल इसी तरह दोहराई जाती है.
तो हर साल आने वाली इस आपदा से बचाव का कोई रास्ता है, हम डॉ. गोस्वामी से एक आखिरी सवाल पूछते हैं. वे कहते हैं, ''ब्रह्मपुत्र घाटी में जो ऊर्जा है, उससे लडऩे में फायदा नहीं है, क्योंकि यहां कुदरत, इनसान से कहीं ज्यादा ताकतवर है. असम में बाढ़ तो आकर रहेगी. लेकिन इसके नुक्सान को कम किया जा सकता है. हमारे सामने चक्रवातों का उदाहरण है.
जब हम उन भविष्यवाणी नहीं कर पाते थे, तब लाखों जिंदगियां प्रभावित होती थीं. हजारों जानें जाती थीं. अब वैसा नहीं होता. इसी तरह हमें पूर्वोत्तर के मौसम और भूगोल को लेकर सही समझ पैदा करने की जरूरत है. ताकि बाढ़ के अनुमान में सटीकता आए. इससे जानमाल का नुक्सान खत्म नहीं, तो कम तो किया ही जा सकता है.’’