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चुनावों में काला धन देश की अर्थव्यवस्था के लिए अच्छा है!

देश पर चुनाव का बुखार चढ़ते ही गद्दों से निकलती नोटों की गड्डियां, शराब, उपहारों और दावतों की शक्ल ले लेती हैं, लेकिन वोटरों को मिलने वाली यह रिश्वत अर्थव्यवस्था के लिए बुरी नहीं है.

अपडेटेड 21 अप्रैल , 2014
नई दिल्ली की गोद में खड़े निर्वाचन सदन में मुख्य चुनाव आयुक्त के बड़े-से दफ्तर में विराजमान वीरावल्ली सुन्दरम् सम्पत कमरे के बीचोबीच साधारण-सी आयताकार मेज पर झुके बैठे हैं जो कुछ ही दूर दीवार की बगल में रखी उनकी भारी चौकोर आलीशान मेज से काफी अलग है. सरकार के बड़े अफसर या तो आने वालों से अपनी बड़ी-सी मेज के आरपार या फिर एक छोटी मेज के चारों तरफ लगे सोफे पर मिलना पसंद करते हैं.

सम्पत हाथ में कलम और भवों पर बल डाले इस चौकोर मेज के लिए कुछ अजीब हस्ती लगते हैं. लेकिन वे जो कहने वाले हैं, उसमें कुछ अजीब नहीं है. वे बात करते हैं नकद नारायण और शराब की, शादी के बिना शादी की दावतों की और चुनावी मौसम में दिखने वाले काले धन के विविध रूपों की.

चुनाव का मौसम वह मौसम है जब भारत गरीबी और पोषण की तमाम प्रचलित पश्चिम मान्यताओं को झूठा ठहरा देता है. प्रचार और रैलियों का शोर बढऩे के साथ-साथ पैसा पानी की तरह बहने लगता है और नोटों की गड्डियां गद्दों से बाहर आ जाती हैं. असल में तो राजनैतिक दलों के भरोसेमंद गुर्गों के मकानों में बोरों में भरी नोटों की गड्डियां छिपी होना आम बात है.

ये गुर्गे कार्यकर्ता कहलाने वाले वफादारों को नोटों की गड्डियां थमाते हैं और वे लोग मोटरसाइकिल, साइकिल और रिक्शा पर सवार होकर सड़कों पर निकल आते हैं. फिर शाम के वक्त गली के नुक्कड़ की चाय की दुकानों पर ये नोट मतदाता को लुभाने के काम आते हैं.

सम्पत के कमरे से बहुत दूर बिहार के वैशाली जिले में वैशाली गांव में ही चाय-नाश्ते और रोजमर्रा की चीजों की दुकानों की बगल में एक पेड़ के नीचे अचानक प्लास्टिक की दो कुर्सियां प्रकट हो जाती हैं. इनमें से एक पर विराजमान मंटू कुमार की उम्र 40 साल, औसत कद, बदन पर जींस और कमीज, पतली मूंछें, तीन दिन की बढ़ी हुई दाढ़ी और खाया-पीया बदन है. एकदम पड़ोसी जैसे दिखते हैं. लेकिन जैसे ही कंधे पर लटका सूती गमछा गर्दन पर लिपटता है और वे अपनी 100 सीसी की मोटरसाइकिल पर सवार होते हैं तो मंटू की शख्सियत बदल जाती है.

बीच-बीच में रुककर लोगों से मिलते हुए, इंतजाम करते हुए, ऑर्डर पेलते और सौदेबाजी करते हुए वे मालिक भाई हो जाते हैं. वैशाली गांव में सब लोग उन्हें इसी नाम से जानते हैं. यही वह छोटा-सा कस्बा है जिसने दुनिया को गणतंत्र का सूत्र दिया था और यहीं के मालिक भाई उन उम्मीदवारों को चुनाव जिताने के लिए मशहूर हैं जो उन्हें समर्थन के लिए पैसे देते हैं.

सम्पत और मालिक भाई दोनों इस बात से अनजान हैं कि उनकी जिंदगी के तार आपस में जुड़ चुके हैं क्योंकि सम्पत इस बात पर आमादा हैं कि इस चुनाव में काले धन का खेल रोककर रहेंगे. इसके लिए उन्होंने सरकार की दस खुफिया एजेंसियों का हाथ थामा है जिनमें राजस्व गुप्तचर निदेशालय, वित्तीय गुप्तचर इकाई, और तटरक्षक बल शामिल हैं. काले धन के खिलाफ ऐसी मुहिम पहले कभी नहीं थी.

सम्पत के रास्ते में मालिक भाई जैसे तमाम लोग खड़े हैं जो काले धन की पूरी शृंखला की छोटी-छोटी लेकिन बहुत अहम कडिय़ां हैं. हर संसदीय निर्वाचन क्षेत्र में औसतन आठ विधानसभा सीटें हैं और हर विधानसभा सीट में दो खंड और 200-250 पंचायतें हैं. हर पंचायत में एक मालिक भाई हैं. वे खंडों में तैनात गुर्गों को खबर देते हैं जो आगे असेंबली सीटों से संबद्ध इलाकों के इंचार्ज के तहत काम करते हैं. हर विधानसभा सीट का इंतजाम एक स्थानीय दादा के हाथ में होता है जो सीधे नेता को जवाब देता है.

नकदी का खेल
ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन के सीनियर फेलो निरंजन साहू चुनाव प्रचार के खर्च के तंत्र में सुधार पर एक स्टडी सीरीज के संयोजक हैं. उनका कहना है कि चुनावी राजनीति में काले धन का वर्चस्व 1969 में शुरू हुआ जब प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने राजनैतिक दलों के लिए कारोबारी घरानों के चंदों पर रोक लगा दी. ‘‘उन्होंने यह कदम व्यवस्था की सफाई के इरादे से नहीं उठाया था, बल्कि यह राजनैतिक फैसला था जिसका मकसद सी. राजगोपालाचारी की स्वतंत्र पार्टी के बढ़ते असर को रोकना था जिसे कारोबारी जगत का भरपूर समर्थन मिल रहा था.’’

राजनीति और कारोबार जिस तरह से एक-दूसरे पर असर डालते हैं, उसे देखते हुए जाहिर है कि इस प्रतिबंध से उनका रिश्ता तो टूटा नहीं, बस उसका रंग बदल गया. भारत ऐसा देश है जिसमें काफी दौलत ऐसी है जिस पर कोई टैक्स नहीं दिया जाता. गौरतलब है कि देश की तीन प्रतिशत से भी कम आबादी प्रत्यक्ष कर चुकाती है.

जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय  (जेएनयू) के आर्थिक अध्ययन एवं नियोजन केंद्र में प्रोफेसर अरुण कुमार ने द ब्लैक इकोनॉमी इन इंडिया किताब लिखी है. उनका कहना है कि यह समानांतर काली अर्थव्यवस्था देश के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के  कम-से-कम आधे के बराबर है (वर्तमान बाजार मूल्य के हिसाब से देश का जीडीपी फिलहाल 120 लाख करोड़ रु. है).

ऐसे में कोई हैरत नहीं होती कि दुनिया के सबसे बड़े राजनैतिक उत्सव यानी लोकसभा चुनाव के वर्षों में जीडीपी को पंख लग जाते हैं. गद्दों से निकलने वाला हर नोट जो खर्च होता है और किसी की जेब में जाता है, उसकी क्रय क्षमता बढ़ाता है और फिर खर्च होता है और कहीं न कहीं टैक्स के शिकंजे में आ ही जाता है. यह बिना हिसाब-किताब वाला नकद अर्थव्यवस्था की जेब से निकलता है और हिसाब-किताब वाली अर्थव्यवस्था का अंग बन जाता है. वित्त मंत्रियों की कई पीढिय़ां इस नकद अर्थव्यवस्था को काबू करने की नाकाम कोशिश कर चुकी हैं.

भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के नेता, पूर्व वित्त मंत्री यशवंत सिन्हा का कहना है, ‘‘हम सब जानते हैं कि लोग हजार रु. के नोट लेकर वोटर को रिश्वत देने जाते हैं पर आप इसे कैसे रोकेंगे? अगर प्रचार में इस तरह का खर्च करने का दबाव न होता तो राजनैतिक दल अपनी आमदनी का पूरा हिसाब-किताब जरूर देते. ऐसे में उन्हें दोष देने का कोई फायदा नहीं है.’’

हर उम्मीदवार के लिए चुनाव खर्च की सीमा इस बार चुनाव आयोग ने 70 लाख रु. कर दी है, फिर भी यह घिसा-पिटा चुटकला लगती है. जमीनी स्तर के एक राजनैतिक कार्यकर्ता सीना तान कर कहते हैं, ‘‘चुनाव के दिनों में हम 70 लाख रु. तो चाय के कपों पर खर्च कर देते हैं.’’

सम्पत के पूर्ववर्ती मुख्य चुनाव आयुक्त एस.वाइ. कुरैशी का कहना है कि हर उम्मीदवार ने पिछले लोकसभा चुनाव में 5 से 10 करोड़ रु. खर्च किया था, जब सीमा 40 लाख रु. थी. पर वे यह जोडऩा नहीं भूलते कि इसका कोई पक्का सबूत नहीं है. उन्होंने यह बात नेताओं के साथ बातचीत में सुनी है.

कार्रवाई करने लायक सबूत हो या न हो, अखबारों की खबरों के मुताबिक बीजेपी नेता गोपीनाथ मुंडे ने एक जनसभा में कहा था कि 2009 के चुनाव में उन्होंने 8 करोड़ रु. खर्च किए थे. कांग्रेस के नेता चौधरी बीरेंद्र सिंह ने यह बयान देकर हंगामा खड़ा दिया था कि लोग राज्यसभा की एक सीट पाने के लिए 100 करोड़ रु. तक खर्च करने को तैयार हैं. बाद में उन्होंने सफाई दी कि उनकी बात का गलत मतलब निकाला गया.

जेएनयू के प्रो. अरुण कुमार ने 1998 में चुनावी खर्च के अध्ययन के दौरान देखा कि कुछ उम्मीदवारों ने 1.29 करोड़  रु. अपने-अपने चुनाव में खर्च किए थे जो उस समय चुनाव आयोग की 15 लाख रु. की सीमा से 8.5 गुना ज्यादा हैं. उनका कहना है, श्श्यह रकम तब से बढ़ी ही होगी जब सीमा 40 लाख रु. थी तो उम्मीदवारों ने कम-से-कम 10 गुना खर्च किया होगा, अब 70 लाख रु. पर यह रकम और बढ़ जाएगी.’’

प्रोफेसर त्रिलोचन शास्त्री चुनावी सुधारों के लिए कार्यरत गैर-सरकारी संगठन एसोसिएशन फॉर डैमोक्रेटिक रिफॉर्म्स के संस्थापक ट्रस्टी हैं. उनका कहना है कि पांच वर्ष के चुनाव चक्र में कम-से-कम 2,50,000 करोड़ रु. खर्च होते हैं जिसमें से करीब 80 प्रतिशत काला धन है. प्रेक्षकों का मानना है कि इस लोकसभा चुनाव में 50,000 करोड़ रु. का काला धन खर्च होगा. यह पैसा वैसे तो हिसाब-किताब में नहीं आता और इस पर टैक्स भी नहीं लगता लेकिन अब इसका दूरगामी असर होगा.

जानकारों का मानना है कि चुनाव में काला धन खर्च होने से जीडीपी वृद्धि दर आधा से एक प्रतिशत तक बढ़ जाती है (देखें ग्राफिकः अर्थव्यवस्था में काले धन का सफेद पहलू).  हर चुनावी साल में उससे पिछले साल की तुलना में जीडीपी में बढ़त दिखाई देती है. 2004 में इस बढ़त ने जबरदस्त छलांग लगाई जब बीजेपी ने जोर-शोर से अपने नाकाम ‘‘इंडिया शाइनिंग’’ या ‘‘भारत उदय’’ नारे का प्रचार किया था.

इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ बंगलुरू में सेंटर फॉर पब्लिक पॉलिसी के प्रोफेसर राजीव गौड़ा के अनुसार कुछ लोग दौलत कमाने की गुंजाइश को देखते हुए ही राजनीति में आते हैं, ‘‘हो सकता है कि ऐसे उम्मीवार पहले से काले धन के रूप में दौलत जुटा लेते हैं और राजनीति में लगाते हैं. राजनैतिक दलों को अकसर ऐसे उम्मीदवारों की तलाश रहती है जो अपने प्रचार का खर्च खुद उठा सकें.

ऐसे उम्मीदवारों के पास अकसर खनन, और जमीन-जायदाद जैसे कारोबार से काले धन की आमदनी होती है क्योंकि इस तरह के धंधों में सरकारी नियमों की खूब अनदेखी होती है. चुनाव जीतने के बाद तो जनता के पैसे की लूट और आसान हो जाती है.’’
लेकिन चुनाव जीतने के लिए उन्हें मालिक भाई जैसे लोगों का सहारा होता है.

अर्थव्यवस्था में काले धन का सफेद पहलू
लोकसभा चुनाव वाले वर्षों में उनसे पिछले वाले वर्ष की तुलना में देश का सकल घरेलू उत्पाद या जीडीपी दर अधिक रहने की मुख्य वजह चुनाव प्रचार के दौरान अर्थव्यवस्था में काले धन की आमद है. इस मामले में वैश्विक मंदी का मारा 2009 अकेला अपवाद है. देखिए इसी सारणी में चुनावी वर्ष और उस समय की जीडीपी-

जमीनी स्तर पर हुकूमत
2006 से 2009 तक मुख्य चुनाव आयुक्त रहे एन. गोपालास्वामी के अनुसार, ‘‘राजनैतिक दलों के पास समर्पित कार्यकर्ता या काडर नहीं होता और उन्हें भाड़े के टट्टुओं का सहारा लेना पड़ता है.’’ अनुमान है कि किसी भी पार्टी का 35 से 40 प्रतिशत खर्च 40 से 50 दिन के लिए ऐसे ही अस्थायी कर्मचारियों पर होता है.

मालिक भाई जैसे लोग पंचायत से लेकर लोकसभा चुनाव तक किसी भी पेशेवर की तरह अपनी सेवाएं देते हैं. उन्हें सबसे ज्यादा दाम देने वाले के पास नहीं जाना पड़ता बल्कि जो पहले आ जाए, वही मालिक हो जाता है. उनकी सेवाओं की कीमत होती है जिस पर कोई मोल-भाव नहीं होता. यह इस बात से तय होती है कि चुनाव कैसा है, मुकाबला कितना तगड़ा है, और उम्मीदवार को कितने वोट चाहिए. यह कीमत 50,000 रु. से डेढ़ लाख रु. के बीच रहती है और कभी-कभी मोटरसाइकिल या हैंडपंप जैसी बख्शीश भी मिल ही जाती है.

मालिक भाई जैसे लोगों की सेवाओं की इतनी मांग है कि इस बार तो लोकसभा के एक उम्मीदवार ने खुद उनसे संपर्क किया. प्लास्टिक के पाउच से खैनी निकालकर हथेली पर मलते हुए उन्होंने शान बघारी, ‘‘इतना बड़ा आदमी खुद से फोन किया, साथ जुडऩे को बोला, अभी तो हेल्प करेंगे ही ना.’’ मालिक भाई सबसे पहले इलाके की जरूरतें भांपते हैं.

मिसाल के तौर पर वैशाली गांव में ब्राह्मण टोला दो वर्ग किमी में फैला है. इसके 100 परिवारों में ज्यादातर दिहाड़ी मजदूर हैं. पिछले चुनाव में वहां 15 हैंडपंप लगे थे. सरकारी तौर पर कोई नहीं जानता कि खर्चा किसने उठाया लेकिन ब्राह्मण टोला के वोट एक खास उम्मीदवार को दिलाने में उनकी बड़ी भूमिका रही.

मालिक भाई जैसे लोगों का एक और तरीका है-भोज. वे अपने इलाके की हर पंचायत में कम-से-कम पांच भोज देते हैं. उम्मीदवार उनमें शामिल हो या न हो, पर खाने वाले हजारों लोग जानते हैं कि पैसे किसने दिए हैं क्योंकि खाने के बाद डकार लेते समय उनके कानों में नाम फूंक दिया जाता है. नमक का हक अदा करने की रवायत अब भी मजबूत है. जब इतने सारे वोट दांव पर लगे हों तो खाने वालों की संख्या के हिसाब से इन दावतों पर 10,000 रु. से 1,00,000 रु. तक का खर्च मामूली ही लगता है.

मुख्य चुनाव आयुक्त के पद पर रहते हुए कुरैशी एक बार ऐसी ही शादी की एक दावत में चले गए तो न दूल्हा मिला, न दुलहन और न कोई शादी. वह तो लोगों को भरपेट खिलाने और उनके वोट हासिल करने का एक बहाना था.

मालिक भाई को उनकी सेवाओं का भुगतान सीधे किया जाता है लेकिन दावतों का खर्च और ईंधन, मोबाइल फोन, खाने-पीने, चाय-पान और सिगरेट जैसे रोजाना के खर्चों का इंतजाम उम्मीदवार और पार्टी का स्थानीय प्रतिनिधि करता है जो इतना भरोसेमंद होता है कि उसे बोरों में नकदी सौंपी जा सके.

इन बोरों में ज्यादातर 500 रु. के नोटों की गड्डियां होती हैं. मतदान का दिन नजदीक आते-आते खर्च की वजह पूछना बंद हो जाता है. बस मुंहमांगी रकम बांटी जाती है. स्थानीय प्रतिनिधि और दूसरे कार्यकर्ता अकसर ये डींगें हांकते मिल जाते हैं कि वे कितनी रकम जुटा सकते हैं.

आम तौर पर रकम जितनी बड़ी हो, जीतने की उम्मीद उतनी ज्यादा होती है. वोटर को हमेशा नकद, उपहार, मोबाइल से पैसे भेजकर, मोबाइल का बिल देकर और किराने की दुकानों का बकाया चुका कर सीधे लुभाया जाता है.

दिल्ली में सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज (सीएमएस) के संस्थापक अध्यक्ष एन. भास्कर राव बताते हैं, ‘‘कम-से-कम 20 प्रतिशत वोटर एक से ज्यादा दलों से पैसे लेते हैं. सीएमएस का अनुमान है कि 2009 के चुनाव में 31 प्रतिशत मतदाताओं ने पैसे लेकर वोट दिए. इस बार 55 प्रतिशत ऐसा करने वाले हैं.’’

असेंबली क्षेत्रों के प्रभारियों को रैलियों का इंतजाम सौंपा जाता है. वे भीड़ जुटाने वालों की मदद से काम करते हैं जो प्यार से, पुचकार से, लालच से या धमकी से, किसी भी तरह रैलियों के लिए भीड़ जुटाते हैं. हर भीड़ जुटाने वाले को हर रैली के लिए कम-से-कम 1,000 रु. मिलते हैं. ऊपर के खर्चों में भीड़ के लिए खाने का खर्च शामिल है.

भीड़ को अकसर तेल में डूबी बिरयानी खिलाई जाती है. अकसर भीड़ में शामिल हर आदमी-औरत को 100 रु. इनाम में मिलते हैं. इनमें से नारे लगाने वाले टीम लीडर को 500 रु. मिलते हैं. सम्पत का कहना है कि जब कूरियर से रकम भेजी जाती है तो कुछ कर पाना मुश्किल है.

इस नकदी वाली अर्थव्यवस्था में सबसे कारगर एक ही चीज है-शराब.

दारू है सबसे बेहतर
मुख्य चुनाव आयुक्त सम्पत के शब्दों में, ‘‘शराब तो नकदी से भी बुरी है. शराब आदमी की सोचने की ताकत पर हावी हो जाती है. उसका अपना साम्राज्य है.’’ उनके लिए शराब का पता लगाना और पकडऩा और भी मुश्किल है.

हम अकसर सुनते हैं कि शराब से भरे ट्रक दिल्ली से नगालैंड के लिए रवाना हुए लेकिन उत्तर प्रदेश से आगे नहीं बढ़े. चुनाव आयोग हर राज्य में आबकारी विभाग के साथ मिलकर ऐसे ट्रांसपोर्टर्स पर छापे मारने में जुटा है. लेकिन शराब के साथ मुश्किल यह है कि इसकी भट्टी कहीं भी किसी भी झोंपड़ी में लग सकती है.

सम्पत के अनुसार, ‘‘शराब हर दूसरे गांव में कहीं भी बनाई जा सकती है.’’ दिल्ली में शराब के एक ठेकेदार का कहना है कि चुनाव आयोग की पैनी नजर ने शराब की आवाजाही मुश्किल कर दी है. लेकिन अगर ट्रक में शराब नहीं ले जा सकते तो क्या हुआ, दूध वाली गाडिय़ां तो हैं. उन्हें क्या मालूम कि उनके भीतर सफेद और शीतल दूध है या शरीर को खोखला करने वाली शराब.

झुग्गी-झोंपडिय़ों और अधिक वोटर घनत्व वाले दूसरे इलाकों में कूपन बांटे जाते हैं. एक दुकान के मालिक ने बताया, ‘‘गुलाबी कूपन का मतलब है भुना या तला हुआ मुर्गा और नीले का मतलब है शराब.’’ जिन इलाकों में निगरानी होती है उनमें बिचौलिए ऐसे नोट बांटते हैं जिनके सीरीज नंबर दुकानदारों को दिए जाते हैं. हर नोट कितने रुपये का है वही संदेश है. दस रुपए के नोट के बदले देसी दारू की बोतल मिलेगी और एक सौ रुपए के नोट में विदेशी दारू. राजनैतिक मैनेजर ठेके के मालिक को पहले ही पैसे दे देते हैं.

गांव में शराब की थैलियां वैन में छिपाकर भेजी जाती हैं और मतदान से सात से तीन दिन या पिछली शाम तक थैलियां बांटी जाती हैं. वैशाली जिले में ही राघवपुर के गांववालों ने बताया कि वे मतदान से पहले पूरी रात पीते हैं. यहां विडंबना यह है कि पूरे गांव में पीने के पानी के लिए सिर्फ दो हैंडपंप हैं.

काले धन से मोबाइल फोन, जूसर, दूसरे घरेलू सामान और साडिय़ां खरीदकर वोटरों को लुभाया जाता है.

नकद हो या सामान, वोटरों और राजनैतिक मैनेजरों पर सबसे बड़ा खर्च मतदान के दिन होता है. हर निर्वाचन क्षेत्र में 1,500 से 1,800 मतदान बूथ होते हैं. हर बूथ मैनेजर को कम-से-कम ढाई हजार रु. मिलते हैं और हर बूथ पर कम-से-कम दो मैनेजर होते हैं. कुछ प्रेक्षकों का कहना है कि असेंबली से पंचायत स्तर तक कार्यकर्ताओं की इसी फौज पर हर उम्मीदवार को 2.5 करोड़ रु. से 15 करोड़ रु. तक खर्च करने पड़ जाते हैं. हर सीट पर कम-से-कम तीन तगड़े प्रत्याशी होते हैं. अब आप ही हिसाब लगा लें.
 
झूठ से शुरुआत
चुनाव आयोग उम्मीदवार के खर्च की निगरानी करीब तीन हफ्ते के लिए ही करता है. ये तीन हफ्ते उम्मीदवारी औपचारिक होने से शुरू होते हैं. अगर उम्मीदवार को टिकट मिलने का पूरा भरोसा हो और वह बहुत पहले से खर्च शुरू कर दे तो उसके खर्च का हिसाब लगाने का कोई तरीका नहीं है.

पार्टी या और उम्मीदवार की तरफ से किए गए खर्च के बीच भेद कर पाना भी मुश्किल है. किसी भी पार्टी के लिए खर्च की कोई सीमा नहीं है. हर पार्टी के 40 स्टार प्रचारक होते हैं जिनसे देशभर में प्रचार कराने पर चाहे जितना खर्च किया जा सकता है. उम्मीदवार के व्यक्तिगत खर्च और पार्टी खर्च के बीच की विभाजन रेखा अकसर धुंधली हो जाती है.

राजनैतिक विश्लेषक और गुडग़ांव से उम्मीदवार आम आदमी पार्टी (आप) के नेता योगेंद्र यादव इसे कानूनी समस्या बताते हैं, ‘‘एक बार आप स्टार प्रचारक हो गए तो जितनी चाहें हेलिकॉप्टर की सवारी कर सकते हैं. सिस्टम में इतने बड़े छेद हों तो उन्हें बंद करने की कितनी भी कोशिश कर लें, सब बेकार है.’’

मुख्य चुनाव आयुक्त सम्पत का कहना है कि इन दिनों काला धन बड़ी आसानी से सफेद हो जाता है क्योंकि राजनैतिक दलों को उन लोगों के नाम नहीं बताने पड़ते जो 20,000 रु. से कम दान देते हैं और ऐसा दान नकद होता है.

एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स के संस्थापक ट्रस्टी जगदीप चोकर के अनुसार 2009 के चुनाव में जब खर्च की सीमा 40 लाख रु. थी तब 6,753 उम्मीदवारों के खर्च संबंधी हलफनामों से पता चला कि सिर्फ चार ने सीमा से अधिक खर्च किया था. इतना ही नहीं 6,719 उम्मीदवारों ने 22,00,000 रु. से कम खर्च किए थे. उनका सवाल है, ‘‘सीमा क्यों बढ़ाई गई? या तो सीमा बढ़ाने की मांग अनुचित थी या वे हलफनामे झूठे थे.’’

पुराने अखबारों की खबरों के मुताबिक पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने एक संसदीय समिति में पुष्टि की थी कि, ‘‘हर सांसद अपने करियर की शुरुआत गलत चुनाव रिटर्न दाखिल कर झूठ से करता है.’’ एक बार फिर मान लें कि लोकसभा की 543 सीटों और राज्यसभा, राज्य विधानसभाओं और परिषदों, नगर निगमों, खंड और पंचायत चुनावों के अंतहीन चक्रों में हर सीट पर कम-से-कम तीन तगड़े उम्मीदवार होते हैं तो झूठ और पैसे का हिमालय खड़ा हो जाता है.

इतना धन आम लोगों में बंट जाता है. यह अर्थव्यवस्था की सेहत के लिए बुरा नहीं है लेकिन क्या लोकतंत्र के लिए भला है? आप हिसाब लगाते रहिए.