एक साल, देश के नाम' जैसे कुछ जुमलों के साथ पहली वर्षगांठ का जश्न मनाने की तैयारी में जुटी नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार क्या कामयाब होगी? या फिर जमीन के व्यवसाय (कृषि) से जुड़ी आबादी के गुस्से का शिकार हो जाएगी? जाटों को अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) की सूची में आरक्षण देने के फैसले को सुप्रीम कोर्ट की ओर से रद्द किए जाने के बाद केंद्र सरकार ने जिस फुर्ती के साथ जाट प्रतिनिधिमंडल से मुलाकात कर पुनर्विचार याचिका दाखिल की, उससे अब ओबीसी के सभी संगठनों ने लामबंद होकर सरकार के खिलाफ मोर्चा खोल दिया है, तो दूसरी तरफ जाट समुदाय ने भी आरक्षण के लिए आरपार की लड़ाई का ऐलान कर दिया है.
सुप्रीम कोर्ट ने बीते 17 मार्च को अपने फैसले में जाटों को केंद्र सरकार की ओबीसी सूची में शामिल करने वाली अधिसूचना को रद्द कर दिया था. कोर्ट ने साफ तौर से कहा था कि जाट सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े नहीं हैं क्योंकि सशस्त्र बल, सरकारी नौकरियों और शिक्षण संस्थानों में इनकी संख्या कम होने की बात गलत है. जाटों ने अदालत के फैसले पर कड़ा ऐतराज जताते हुए धरना-प्रदर्शन किया था. इसके बाद 26 मार्च को जाटों का 70 सदस्यीय प्रतिनिधिमंडल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मिला था, जहां पुनर्विचार याचिका दाखिल करने का भरोसा दिया गया. लेकिन सरकार की इस पहल को ओबीसी ने अपने हितों पर आघात करार देते हुए जाट आरक्षण के खिलाफ मोदी सरकार पर हल्ला बोल की तैयारी कर ली है.
क्यों सुलग रही है आग
मंडल कमिशन की सिफारिशों के तहत देश की 52 फीसदी आबादी वाले पिछड़ों को 27 फीसदी आरक्षण मिला हुआ है, लेकिन इसमें जाटों को शामिल किए जाने को पिछड़ा वर्ग अतिक्रमण मान रहा है. जबकि पिछले एक साल में आरक्षण की वजह से मिले फायदे को देखते हुए जाट समुदाय इसे किसी भी हालत में छोडऩा नहीं चाहता. ओबीसी ने पिछड़ा वर्ग को-ऑर्डिनेशन कमेटी बनाकर सभी संगठनों को लामबंद कर संसद का बजट सत्र खत्म होने से ठीक पहले 7 मई को दिल्ली के जंतर मंतर पर अर्धनग्न अवस्था में धरना-प्रदर्शन की रणनीति बना ली है. ओबीसी के इस आंदोलन की अगुआई कर रहे हरियाणा के कुरुक्षेत्र से बीजेपी सांसद राजकुमार सैनी कहते हैं "जाट शैक्षणिक, सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, प्रशासनिक तौर पर पिछड़े नहीं हैं. किसी आयोग ने उन्हें इस श्रेणी में डालने की सिफारिश नहीं की. फिर भी जाट ओबीसी के 27 फीसदी आरक्षण में असंवैधानिक तरीके से घुसने के लिए लालायित हैं. हमने प्रधानमंत्री से मिलने का समय मांगा है."
उनके मुताबिक, 75 खापों के मसीहा बनने वाले प्रतिनिधियों ने यहां तक कह दिया कि कौन होता है सुप्रीम कोर्ट आरक्षण रोकने वाला? इन लोगों ने धमकी दी कि 11 मई को दिल्ली का पानी, दूध रोक देंगे और आरपार की लड़ाई लड़ेंगे. हालांकि जाट नेता और पूर्व केंद्रीय मंत्री अजित सिंह इंडिया टुडे से कहते हैं, "जाट समुदाय को एक साल में आरक्षण का काफी फायदा मिला और कई छात्रों को आइआइटी जैसे संस्थानों में दाखिला मिला और नौकरी में भी लाभ मिला है, इसलिए उनमें आरक्षण छिनने पर गुस्सा
है." समस्त भारत खाप और जाट आरक्षण संघर्ष समिति ने 11 मई को जंतर मंतर पर चेतावनी रैली का ऐलान किया है. अजित सिंह का मानना है कि जाट अब जागरूक हो गए हैं इसलिए अपने अधिकार की मांग कर रहे हैं. लेकिन ओबीसी के विरोध को वे यह कहते हुए जायज ठहराते हैं कि बाहर से आने वालों का विरोध तो होता ही है. जबकि केंद्रीय कृषि राज्यमंत्री संजीव बालियान कहते हैं, "जाटों को आरक्षण तो मिलेगा, लेकिन रास्ता क्या होगा अभी यह तय करना है. फिलहाल सरकार ने कोर्ट में पुनर्विचार याचिका दाखिल कर दी है. आरक्षण तो पहले ही मिल जाना चाहिए था, लेकिन देरी से मिला और बहुत जल्दी छिन गया." कुछ जाट नेताओं का कहना है कि अगर कोर्ट का फैसला जाटों के हित में नहीं आया, तो दिल्ली-एनसीआर के चारों ओर बसे जाट दूध-पानी की आपूर्ति ठप करने जैसा कदम उठा सकते हैं.
क्या है सरकार-बीजेपी की रणनीति?
लोकसभा चुनाव में जाटों से मिले अपार समर्थन से उत्साहित मोदी सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में दाखिल हलफनामे में पिछली सरकार के फैसले को न्यायोचित ठहराया था. लेकिन कोर्ट ने सरकार की अधिसूचना को रद्द कर उसकी मुश्किलें बढ़ा दी है. जाट प्रतिनिधियों से मुलाकात में प्रधानमंत्री मोदी ने संविधान के दायरे में आरक्षण का भरोसा दिया था तो बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह ने इस खेतिहार जाति को आरक्षण से बाहर रखने को गलत ठहराया था. अब सरकार ने इस मामले में पुनर्विचार याचिका डाली है जिसमें कहा गया है कि राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग की सिफारिश सरकार के फैसले में अनिवार्य नहीं है और लंबे विचार-विमर्श व दस्तावेजों के आधार पर ही जाटों को ओबीसी की सूची में शामिल करने का फैसला लिया गया था. लेकिन सरकार कोर्ट के फैसले तक जाट समुदाय को धैर्य रखने को कहेगी. बीजेपी की बड़ी चुनौती ओबीसी के विरोध से है.
क्षेत्रीय दलों से निराश ओबीसी के बड़े तबके ने लोकसभा चुनाव में बीजेपी को वोट दिया था, जिसकी नाराजगी पार्टी के लिए नुक्सानदेह हो सकती है. पार्टी की मुश्किल यह है कि विरोध में पार्टी का ओबीसी धड़ा ही सामने आता दिख रहा है, जिसे अनुशासनात्मक कार्रवाई की परवाह नहीं है. अगर कोर्ट जाटों के खिलाफ फैसला देता है तो सरकार दोहरी मुश्किल में घिर सकती है. अन्य विपक्षी दलों के जाट नेताओं ने तो सीधे मोदी सरकार को कठघरे में खड़ा करना शुरू कर दिया है. अजित सिंह का कहना है कि पुनर्विचार याचिका में सरकार ने ठीक से कोई पैरवी नहीं की है. सवाल उठाना चाहिए था कि 1934 के सर्वे पर 1993 में मंडल कमिशन के तहत आरक्षण मिल सकता है तो 10 साल पुराने तथ्यों-आंकड़ों पर जाटों को क्यों नहीं. जाट आरक्षण के फैसले के वक्त यूपीए सरकार की कैबिनेट का हिस्सा रहे अजित सिंह का कहना है कि पिछड़ा वर्ग आयोग ने जमीन पर जाकर सर्वे नहीं किया.
वे सुप्रीम कोर्ट पर भी सवाल उठाते हैं. वे कहते हैं, "राज्य की नौकरियों में जाट आरक्षण है, लेकिन केंद्र में नहीं. किसी अन्य जाति के साथ ऐसा नहीं है." लेकिन इस बारे में सामुदायिक टकराव की स्थिति को देखते हुए हरियाणा बीजेपी के अध्यक्ष सुभाष बराला बेहद सधी हुई टिप्पणी करते हैं. वे कहते हैं, "बीजेपी जात-पांत की राजनीति नहीं करती. किसी भी बिरादरी का कोई गरीब हो, उसे आरक्षण मिलना चाहिए और उसी दृष्टिकोण से केंद्र सरकार ने याचिका दाखिल की है." हालांकि बीजेपी सांसद सैनी की मोर्चेबंदी पर उनका कहना है कि कोई अगर अपने वर्ग की बात करता है तो उसमें कुछ बुरा नहीं है.
सिफारिशों पर भारी सियासत
सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग की जाट आरक्षण के खिलाफ दी गई सिफारिश को सही ठहराते हुए कहा है कि इसमें कोई शक नहीं कि आयोग ने राज्य पिछड़ा वर्ग आयोगों की रिपोर्ट, उपलब्ध साहित्य और भारतीय सामाजिक विज्ञान अनुसंधान परिषद की विशेषज्ञ कमेटी की रिपोर्ट के आधार पर सिफारिश की थी. लेकिन केंद्र ने अपनी शक्ति का इस्तेमाल कर उसे खारिज किया. ऐसा करते वक्त आयोग की सिफारिश को खारिज करने का तर्कपूर्ण आधार होना चाहिए था, जो नहीं दिख रहा. परिषद ने जो अध्ययन किया, उसके मुताबिक बिहार में कोई सर्वे नहीं हुआ, जबकि दिल्ली में अहीर-गुर्जर के मुकाबले जाट सामाजिक, शैक्षणिक तौर से थोड़ा पीछे हैं. गुजरात में कोई दस्तावेज नहीं है तो हिमाचल, मध्य प्रदेश में तुलनात्मक आंकड़े नहीं. राजस्थान में कुछ इलाकों में पिछड़ेपन के आंकड़े मौजूद हैं. जबकि यूपी-उत्तराखंड की नौकरियों में जाट आबादी के लिहाज से ठीक हैं. लेकिन हरियाणा में 87 फीसदी जाट कृषक हैं और नौकरियों में हिस्सेदारी 21 फीसदी है जो उसकी 25 फीसदी आबादी के करीब है.
जाहिर है कि उपलब्ध तथ्यों और वोट की राजनीति ने आरक्षण की आग को सुलगा दिया है, जिसकी लपटें सालाना जश्न मनाने जा रही मोदी सरकार को झुलसा सकती हैं.
जाट आरक्षण के भंवर में मोदी सरकार
जाट आरक्षण के मुद्दे पर ओबीसी और जाट समुदाय के आमने-सामने आ जाने से सामाजिक सौहार्द बिगडऩे का अंदेशा.

अपडेटेड 11 मई , 2015
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