मुश्किलें सुधारने के लिए केंद्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली के राजस्व संबंधी फैसलों से हालात सुधरने की बजाए और बिगड़ते ही नजर आते हैं. उन फैसलों से वित्तीय बाजारों में गलत संकेत ही गया है. तेल की जरूरतों के लिए भारत पूरी तरह आयात पर निर्भर है. ऐसे में रुपए के निरंतर अमूल्यन से आयात बिल लगातार बढ़ता जा रहा है और इससे चालू खाता घाटा (सीएडी) बढ़ रहा है. वित्त वर्ष 2018-2019 के लिए भारत के सीएडी के सकल घरेलू उत्पाद के 2.8 फीसदी रहने की अंदेशा है जबकि पिछले वित्त वर्ष में सीएडी 1.9 फीसदी था.
एक महीने पहले तक एक डॉलर का भाव 68.50 रुपए के आसपास था. पिछले एक महीने में अचानक उसमें 4 रु. की गिरावट आई है. अब एक डॉलर की कीमत 73 रुपए तक जा पहुंची है (18 सितंबर को कारोबार बंद होने तक 72.97 पर था).
कच्चे तेल की कीमतें 80 डॉलर प्रति बैरल के निशान को छू रही हैं, अमेरिका में उच्च ब्याज दरों की चिंता, तुर्की की मुद्रा लीरा के तेजी से पतन और अमेरिका-चीन के बीच छिड़े व्यापारिक युद्ध ने दुनियाभर के बाजारों पर गहरी चोट की है. तेल की वैश्विक कीमतें पहले से ही बढ़ी हुई थीं, ऊपर से रुपए में आई तेज गिरावट ने सीएडी के लिए संकट बढ़ा दिया है क्योंकि अगर हमारे आयात की मात्रा में कोई वृद्धि न भी हो, तो भी आयात बिल बढ़ ही जाएगा.
कमजोर रुपया न केवल देश और उसके आयातकों को नुक्सान पहुंचाता है बल्कि यह मुद्रास्फीति को भी बढ़ावा देता है. भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआइ) की तरफ लोगों की नजरें रहेंगी, जो मुद्रास्फीति को काबू में करने के प्रयासों के तौर पर होम लोन और औद्योगिक ऋण को फिर से और महंगा कर सकता है. अगस्त में, आरबीआइ की मौद्रिक नीति समिति (एमपीसी) ने रेपो दर में 25 आधार अंकों (बीपीएस) की वृद्धि कर उसे 6.5 फीसदी किया था. अक्तूबर 2013 के बाद पहली बार रेपो दर में वृद्धि की गई थी. इस साल जून में, एमपीसी ने दरों में 25 बीपीएस की वृद्धि की थी.
क्रिसिल के मुख्य अर्थशास्त्री डी.के. जोशी कहते हैं, ''जब भी उभरते बाजारों में गिरावट आती है, सीएडी वाले देश, चाहे बड़े या छोटे, उन्हें नुक्सान उठाना पड़ता है.'' जिन देशों का सीएडी बहुत ज्यादा होता है वे सबसे ज्यादा प्रभावित होते हैं.
भारत की स्थिति आज पहले जैसी कमजोर नहीं है क्योंकि इसके पास पर्याप्त विदेशी मुद्रा भंडार है और हमने विदेशों से भारी कर्ज भी नहीं लिया है. इस साल 7 सितंबर को, भारत के पास 393.3 अरब डॉलर यानी करीब 29 लाख करोड़ रुपए का विदेशी मुद्रा भंडार था.
हालांकि अप्रैल के महीने में भारत के पास 426 अरब डॉलर या 31 लाख करोड़ रुपए से अधिक का विदेशी मुद्रा भंडार था. जब कोई अर्थव्यवस्था लडख़ड़ाने लगती है, तो निवेशक भागने लगते हैं. जोशी कहते हैं, ''निवेशक पहले अपना निवेश रोकते हैं और फिर फिर बाहर निकलने का फैसला करते हैं.'' इस साल 16 सितंबर तक एक पखवाड़े में ही विदेशी निवेशकों ने पूंजी बाजारों से करीब 9,400 करोड़ रुपए निकाल लिए.
रुपए को सहारा
पिछले कुछ महीनों में भारतीय आर्थिक नीति गलियारों में एक बड़ी बेचैनी देखी गई है. विशेषज्ञों का मानना है कि सरकार और आरबीआइ दोनों को, रुपए को संभालने के जितने प्रयास करने चाहिए थे, उनमें बड़ी कमी नजर आती है.
सितंबर की शुरुआत में वित्त मंत्री जेटली ने कहा कि घबराने की कोई आवश्यकता नहीं है. उन्होंने रुपए की गिरावट के लिए वैश्विक कारकों को जिम्मेदार ठहराया और जोर देकर कहा कि हमारे डोमेस्टिक फंडामेंटल्स मजबूत बने हुए हैं. लेकिन जब डॉलर के मुकाबले रुपया 73 के आंकड़े तक पहुंच गया तब जाकर सरकार जागी.
14 सितंबर को, उसने रुपए को संभालने और बढ़ते सीएडी को रोकने के लिए पांच उपायों की घोषणा की. इनमें गैर-आवश्यक आयात में कमी और निर्यात में वृद्धि लाना, बाहरी वाणिज्यिक उधार (ईसीबी) के माध्यम से बुनियादी ढांचे के लिए लिये गए ऋण की अनिवार्य प्रतिरक्षा स्थिति की समीक्षा करना, मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र को ईसीबी को तीन साल की बजाए एक साल में 5 करोड़ डॉलर तक की मैच्योरिटी सीमा तक पहुंचने की इजाजत देना, मसाला बॉन्ड (भारत के बाहर जारी किया गया लेकिन स्थानीय मुद्रा की जगह भारतीय मुद्रा में जारी) को इस वित्तीय वर्ष में कर कटौती से छूट और विदेशी निवेशकों के लिए उनके निवेश पर से प्रतिबंधों को हटाकर कॉर्पोरेट ऋण को बाजार में लेकर आना शामिल हैं. प्रधानमंत्री मोदी ने भी 15 सितंबर को आरबीआइ के गवर्नर उर्जित पटेल और वित्त मंत्रालय के शीर्ष अधिकारियों के साथ अर्थव्यवस्था की समीक्षा की.
इन उपायों के बावजूद लोग रुपए को संभालने के प्रयासों को लेकर निराश ही दिखते हैं. केंद्रीय बैंक ने इस मामले पर एक बयान (वह अस्थिरता की स्थिति से निपटने के लिए पर्याप्त कदम उठाएगा) देने के अलावा न कुछ कहा, न कुछ खास किया. और जब अगस्त में एक डॉलर 69 रु. का हो गया, तब से बैंक हाथ पर हाथ रखकर बैठ गया है और ऐसे संकेत दे रहा है कि अब गेंद केंद्र सरकार के पाले में है और जो भी करेगी, वही करेगी.
वित्त मंत्रालय के भीतर भी ऐसा ही रवैया दिखा. आर्थिक मामलों के विभाग के सचिव सुभाष गर्ग ने 10 सितंबर को दिए एक बयान में कहा कि चिंता करने जैसा कुछ भी नहीं है और अगर रुपया डॉलर के मुकाबले 80 के स्तर को भी छू लेता है तो भी तब तक कोई 'गंभीर चिंता की बात' नहीं है जब तक कि अन्य मुद्राएं भी कमजोर हो रही हैं. यह बात सरकार द्वारा अपने फाइव पॉइंट योजना की घोषणा से से चार दिन पहले की है.
इतना मामूली और वह भी इतनी देर से?
क्या सरकार ने तेल की कीमतों के कारण बढ़ रहे सीएडी को दुरुस्त करने के लिए मुद्रा को कमजोर रखा और इससे बाजार का सत्यानाश हो गया? मुंबई स्थित एक मैक्रो-इकोनॉमिस्ट का तो ऐसा ही मानना है. एचडीएफसी बैंक के मुक्चय अर्थशास्त्री अभिषेक बरुआ कहते हैं, ''तीन हफ्तों तक रुपया गिरता रहा और सरकार इसकी अनदेखी क्यों करती रही, इसको लेकर बहुत भ्रम की स्थिति है. क्या सरकार भी चाह रही थी कि रुपया कुछ गिरे.
ऐसे कयास लगाए जा रहे थे कि सरकार की ओर से कुछ आक्रामक उपाय किए जाएंगे, लेकिन उसकी जगह जो कुछ हुआ वह बड़ा बचकाना है.'' उन्हें लगता है कि आरबीआइ और वित्त मंत्रालय के बीच समन्वय होना चाहिए था क्योंकि रुपए का प्रबंधन दोनों द्वारा किया जाता है.
तो क्या भारत एक कमजोर मुद्रा के साथ सहज है अथवा नहीं? और अगर भारत मुद्रा को उचित मूल्य पर रखना चाहता है, तो वह मूल्य क्या है? सरकार और आरबीआइ को इसे परिभाषित करना है. नाम न छापने की शर्त पर एक अर्थशास्त्री कहते हैं, ''मुद्रा को जब तक गिरने देना जब तक कि वह एक उचित मूल्य तक नहीं पहुंच जाती स्वान्तःसुखाय वाली भविष्यवाणी हो जाती है. यह एक दुष्चक्र है और एक समय पर इससे बाहर निकलना मुश्किल हो सकता है.''
अगर ऐसा मान लिया जाए कि सरकार यह तय करती है कि एक डॉलर की कीमत 72 रुपए पर होना, रुपए का उचित मूल्य है तो इसे बनाए रखने के लिए रणनीति उसी के अनुसार निर्धारित की जाएगी. अर्थशास्त्री कहते हैं कि अगर आरबीआइ ब्याज दरों को लक्षित कर रहा है, तो फिर ऐसी आशा नहीं की जानी चाहिए कि वह रुपए की विनिमय दर को भी लक्षित करेगा. अगर रुपया समस्या का लक्षण है और सीएडी या पूंजी प्रवाह की कमी इसका कारण, तो फिर उसे इसे संभालने के कदम उठाए जाने चाहिए.
विदेशी मुद्रा में हस्तक्षेप और ब्याज दरें—भारतीय रिजर्व बैंक के पास दो साधन मौजूद हैं. अर्थशास्त्री कहते हैं, ''आरबीआइ आक्रामक नहीं रहा है और उसने यह संकेत दिया है कि रुपए में गिरावट को रोकने के लिए सरकार को प्रयास करने की जरूरत है. ऐसा इसलिए भी हो सकता है क्योंकि वैश्विक स्तर पर तूफान आने को है और तब विदेशी मुद्रा भंडार का उपयोग किया जाएगा. खैर कारण जो भी रहे हों, पर आरबीआइ ने पर्याप्त हस्तक्षेप नहीं किया है.''
उथलपुथल में बाजार
इस बीच, बाजार स्पष्ट संकेत दे रहे हैं कि वे मुद्रा के लगातार गिरने को बर्दाश्त नहीं करेंगे. नई पांच-सूत्री योजना के बावजूद, बाजार 17 सितंबर को 500 अंकों से अधिक और अगले दिन 294 अंक गिर गया. मेक्लाई फाइनेंशियल सर्विसेज के सीईओ जमाल मेक्लाई कहते हैं, ''वाकई, बाजार में यह कमजोरी काफी हद तक भावनाओं से प्रेरित है. सरकार ने जो घोषणा की, वह नाकाफी है. वित्त मंत्री ने कहा कि वह राजकोषीय घाटे को पटरी पर रखेंगे, लेकिन इससे भी ज्यादा मदद नहीं मिली है.'' उनके अनुसार, आरबीआइ को रुपए के 70 तक पहुंचने के साथ ही ब्याज दरों में वृद्धि करनी चाहिए थी.
वे कहते हैं, ''बाजार मतदाताओं जैसा नहीं है. अगर आप वोटरों को आश्वासन देते हैं कि आप कुछ करने वाले हैं, तो वे धैर्यपूर्वक इंतजार कर सकते हैं, लेकिन बाजार सिर्फ आश्वासन से पटरी पर नहीं आ जाएगा.''
स्टेट बैंक ऑफ इंडिया के एक रिसर्च नोट में कहा गया है कि अल्प अवधि में, इन उपायों का प्रभाव काफी हद तक रुपए की स्थिरता पर निर्भर करेगा. नोट में मसाला बॉन्ड का उदाहरण देकर कहा गया है कि इसका फायदा तभी मिल सकेगा यदि रुपए में स्थिरता आएगी.
भारत के पूर्व मुख्य सांख्यिकीविद् प्रणब सेन की राय इस विषय पर थोड़ा आलोचनात्मक नजर आता है. वे कहते हैं, ''जो कुछ भी किया जा रहा है वह बैंकों की मांग को विदेशों में स्थानांतरित कर रहा है. भारतीय बैंकों को अंडरराइटर्स के रूप में रखना एक भयावह विचार है क्योंकि इससे मसाला बॉन्ड की अवधारणा ही बिगड़ जाती है. अगर बॉन्ड सब्सक्राइब नहीं किया गया, तो उससे अंडरराइटर को घाटा होता है. भारतीय बैंक को अपने खाते से उधारकर्ता के डॉलर का भुगतान करना होगा. भारतीय बैंकों को मसाला बॉन्ड का बाजार निर्माता बनने के लिए प्रोत्साहित करना बेहद खराब विचार है.''
एक अन्य अर्थशास्त्री कहते हैं, ''ये छूट, नीतियों को आसान बनाना, आमतौर पर ज्यादा निवेश को आकर्षित नहीं करते.'' वे कहते हैं, ''आज की दुनिया में, संरक्षणवादी होना बेहतर है.'' सेन अपनी बात को आगे बढ़ाते हैं, श्श्निर्यातकों को कई बार थोड़े सहारे की आवश्यकता होती है लेकिन इसका मकसद सिर्फ थोड़ा सहारा देना भर होना चाहिए. जब भी आप सिर्फ लक्रफाजी करते हैं, तो आप अनिश्चितता का माहौल बनाते हैं.''
बहरहाल, फेडरेशन ऑफ इंडियन एक्सपोर्टर्स ऑर्गेनाइजेशन (एफआइईओ) के मोटे-मोटे अनुमानों के मुताबिक, निर्यातकों को मिले ऑर्डर में लगभग 10 फीसदी की वृद्धि हुई है. और अगर भारतीय निर्यात 15-20 फीसदी की वृद्धि को कायम रखता है, तो यह 350 अरब डॉलर या 25.5 लाख करोड़ रुपए के आंकड़े को पार कर जाएगा जो पिछले पांच वर्षों में सर्वाधिक होगा.
आगे की राह
जोशी के अनुसार, एक बार स्थिति संभलनी शुरू हो जाए तो रुपया अपने मौजूदा स्तर से मजबूत हो सकता है. जोशी कहते हैं, ''आरबीआइ अस्थिरता को कम करने के लिए प्रयास कर रहा है. उसे वे प्रयास जारी रखने चाहिए.'' सरकार आयात को कम करने के लिए लग्जरी वस्तुओं पर ज्यादा टैक्स लगा रही है और साथ ही विदेशी पूंजी के लिए खिड़की खोलने की कोशिश कर रही है या भारतीय बाहर से पूंजी लेकर आएं, इस दिशा में कोशिशें कर रही है.
मेक्लाई रुपए को मजबूत करने के कई अन्य तरीकों की ओर इशारा करते हैं. ''कई सार्वजनिक उपक्रमों ने एशियाई विकास बैंक व अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष आदि से डॉलर में ऋण ले रखा है. यह 10 अरब डॉलर तक हो सकता है.'' इस पैसे को भारत लाया जा सकता है और एक निश्चित ब्याज की दर से सरकार को दिया जा सकता है.
एसबीआइ समूह के मुख्य आर्थिक सलाहकार सौम्य कांति घोष के मुताबिक, आरबीआइ को रुपए को मजबूत करने के लिए अपने रिजर्व से कम से कम 25 अरब डॉलर बेच देने चाहिए. उनका कहना है कि एनआरआइ बॉन्ड जारी करना एक कम पसंदीदा विकल्प हो सकता है, क्योंकि इसकी लागत लाभ से ज्यादा हो सकती है.
तीसरा उपाय यह हो सकता है कि तेल कंपनियां आरबीआइ के माध्यम से अपनी जरूरत का सारा डॉलर एक ही बैंक से खरीदें जैसा कि 2013 में हुआ था. चौथा, चीनी माल के आयात पर नियंत्रण किया जाए. उनका कहना है कि मोबाइल फोन और अन्य इलेक्ट्रॉनिक उत्पादों के घरेलू मैन्युफैक्चरिंग को बढ़ावा दिया जाना चाहिए. उनके मुताबिक, पांचवां उपाय निर्यात प्रोत्साहन उपायों की घोषणा के रूप में हो सकता है.
रुपया यहां से कहां जाएगा? हालांकि ठीक-ठीक बता पाना मुश्किल है फिर भी जोशी जैसे अर्थशास्त्री मानते हैं कि मार्च 2019 तक रुपए में फिर से मजबूती आएगी.
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