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झारखंडः फर्जी नक्सली, दिखावटी जांच

फर्जी नक्सलियों के समर्पण के इंडिया टुडे के खुलासे के एक पखवाड़े बाद भी जांच शुरू नहीं हुई. हर विभाग मामले की जांच की जवाबदेही दूसरे पर थोपने में जुटा.

अपडेटेड 12 मई , 2015

झारखंड में सब कुछ ठीक नहीं है. पंद्रह दिन पहले इंडिया टुडे ने खुलासा किया था कि झारखंड में साल भर पहले किस तरह 514 असंदिग्ध युवकों को केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल (सीआरपीएफ) में नौकरी का लालच देकर और फर्जी नक्सली बनाकर आत्मसमर्पण करवाया गया था. लेकिन आज तक इस मामले में कोई जांच नहीं बिठाई गई है.
जांच तो दूर की बात है, शीर्ष अधिकारी अपने अधिकार क्षेत्र का हवाला देकर एक-दूसरे पर जवाबदेही थोपने में लगे हैं. 23 अप्रैल को इंडिया टुडे  का अंक बाजार में आने से लगभग एक घंटा पहले, झारखंड के मुख्यमंत्री रघुबर दास ने हेडलाइंस टुडे पर चल रही खबर पर प्रतिक्रिया देते हुए दावा किया था कि इस मामले की जांच सीबीआइ कर रही है. यह पूछे जाने पर कि जांच राज्य पुलिस क्यों नहीं कर रही, दास ने कहा, "हम समानांतर जांच नहीं कर सकते हैं."

लेकिन रघुबर दास का दावा गलत निकला.सीबीआइ की प्रवक्ता कंचन प्रसाद ने इस बाबत पूछे जाने पर इंडिया टुडे से इस बात की पुष्टि की कि एजेंसी फर्जी नक्सलियों के समर्पण मामले की जांच नहीं कर रही है. प्रसाद ने कहा, "सीबीआइ जांच का सवाल ही नहीं है. अभी मैं सिर्फ इतना ही कह सकती हूं कि सीबीआइ मामले की जांच नहीं कर रही है."
राज्य सरकार के उच्च पदस्थ सूत्रों ने भी इस तरफ ही इशारा किया. उनके मुताबिक, कार्मिक एवं प्रशिक्षण विभाग (डीओपीटी) ने इस मामले को सीबीआइ के लिए अधिसूचित ही नहीं किया है, जो कि किसी भी मामले की सीबीआइ जांच के लिए आवश्यक होता है. झारखंड के गृह सचिव एन.एन. पांडेय ने 6 मई को बताया कि राज्य प्रशासन ने मामले की जांच के लिए पिछले महीने सीबीआइ को एक रिमाइंडर भेजा था. दूसरी ओर, मुख्यमंत्री भी अपनी बात पर कायम हैं कि राज्य सरकार आत्मसमर्पण घोटाला मामले की जांच पहले ही सीबीआइ के पास भेज चुकी थी.

घोटाले पर तार-तार
इस घोटाले की शुरुआत अप्रैल, 2011 में हुई थी. लगभग 18 महीने की अवधि के दौरान आत्मसमर्पण करने वाले 514 असंदिग्ध युवकों की 'भर्ती' कर उन्हें रांची के पुराने जेल परिसर में स्थित सीआरपीएफ के विशिष्ट कोबरा बटालियन कैंप में रखा गया था. इनमें से ज्यादातर युवक झारखंड की राजधानी रांची और उसके आस-पास के जिलों के रहने वाले आदिवासी समुदाय के थे. युवकों की ओर से दर्ज कराई गई शिकायत के मुताबिक, नौकरी के लिए आत्मसमर्पण के इस खेल को अंजाम देने वाले बिचैलियों ने राज्य सरकार और प्रशासन में उच्च पदों पर बैठे अधिकारियों की मिलीभगत से प्रत्येक युवक से 1 से 2.5 लाख रु. भी लिए थे.

जबकि, मुख्यमंत्री ने इस मामले की विस्तृत जांच का वादा किया है, शीर्ष पदों पर बैठे अधिकारी पुलिस को क्लीन चिट दे रहे हैं, शायद वे जानते हों कि सीआरपीएफ कैंप में किस तरह आम लोगों को रखा गया था. राज्य के तत्कालीन पुलिस महानिदेशक गौरी शंकर रथ ने कहा था, "इस मामले में मैं बस इतना ही कह सकता हूं कि इस पूरे मामले में झारखंड पुलिस की कोई भूमिका नहीं है." रथ अब सेवानिवृत्ति हैं. इंडिया टुडे ने सीआरपीएफ के तत्कालीन महानिरीक्षक (आइजी) एम.वी. राव की ओर से डीजीपी रथ को लिखे उस पत्र को भी प्रकाशित किया था, जिसमें राव ने सीआरपीएफ कैंप में 'समर्पण करने वाले नक्सलियों' के रहने पर आपत्ति जताई थी. यह पत्र अक्तूबर, 2012 में लिखा गया था. इस बारे में पूछे जाने पर रथ का जवाब यह था कि उन्हें तब तक कुछ याद नहीं आ पाएगा जब तक कि उन्हें संबंधित दस्तावेज नहीं दिखाए जाते.

इस मामले में पुलिस ने मार्च, 2014 में एफआइआर दर्ज की थी. और मई, 2014 में चार्जशीट भी दायर कर दी थी, लेकिन उसके बाद पुलिस हाथ पर हाथ धरे बैठी रही.
इस घोटाले के सामने आने के समय देश के इस सबसे बड़े अर्धसैनिक बल के तत्कालीन महानिदेशक के. विजय कुमार थे, उन्होंने भी अपने बल का बचाव किया था. उनका कहना था कि चूंकि राज्य सरकार के पास पर्याप्त जगह नहीं थी इसलिए सीआरपीएफ ने अच्छी मंशा से अपने कैंप में तथाकथित नक्सलियों के लिए जगह मुहैया कराई थी. उन्होंने कहा था, "मैं नहीं समझता कि सीआरपीएफ को 'नक्सलियों' की जांच-पड़ताल करनी चाहिए थी."

सेवानिवृत्ति होने के बाद के. विजय कुमार केंद्रीय गृह मंत्रालय में सलाहकार के पद पर काम कर रहे हैं. अक्तूबर 2004 में चंदन तस्कर वीरप्पन को मुठभेड़ में मार गिराने और सीआरपीएफ प्रमुख के रूप में दो साल के कार्यकाल के दौरान नक्सली हिंसा पर बहुत हद तक काबू करने में अहम भूमिका के लिए आइपीएस अफसर के. विजय कुमार की सराहना होती है. हालांकि, उन्होंने इस सवाल का कोई जवाब नहीं दिया था कि क्या रांची में तैनात सीआरपीएफ के तत्कालीन आइजी डी.के. पांडेय (जो वर्तमान में झारखंड के डीजीपी हैं) या राज्य के तत्कालीन डीजीपी रथ ने 'समर्पण करने वाले नक्सलियों' को सीआरपीएफ कैंप में रखने के बारे में उनसे कभी चर्चा की थी या उनकी अनुमति मांगी थी या नहीं. हालांकि, विजय कुमार ने कहा, "उग्रवाद प्रभावित लगभग सभी क्षेत्रों में कभी-कभी आत्मसमर्पण करने वालों को सुरक्षा की जरूरत पड़ती है और उन्हें ऐसे कैंप में रखा जाना असामान्य बात नहीं है." वे कहते हैं कि यह एक सामान्य प्रक्रिया है, जिसका खासकर सिर्फ झारखंड से ही संबंध नहीं है. विवादों के केंद्र में रहे सीआरपीएफ कैंप उस समय पांडेय के सीधे नियंत्रण में थे. इस बारे में जानकारी के लिए जब इंडिया टुडे ने फोन पर पांडेय से संपर्क किया तो उन्होंने साफ कहा कि उन्हें इस बारे में कुछ भी नहीं कहना है.

जांच पर सियासत
रांची में विपक्ष के नेता और रघुबर दास के विरोधी सवाल उठाते हैं कि मुख्यमंत्री ने इस साल फरवरी में डी.के. पांडेय को राज्य का पुलिस प्रमुख बनाया था. वे जोर देकर कहते हैं कि नई सरकार ने पांडेय के, जो कि सीआरपीएफ के अतिरिक्त महानिदेशक के तौर पर केंद्र में प्रतिनियुक्ति पर थे, तबादले के लिए केंद्रीय गृह मंत्रालय से विशेष अनुरोध किया था. मुख्यमंत्री पर पांडेय को बचाने की कोशिश का आरोप लगाते हुए झारखंड कांग्रेस के अध्यक्ष सुखदेव भगत कहते हैं, "अब तक जितना लिखा गया है, यह घोटाला उससे ज्यादा बड़ा है." इस मामले की तत्काल सीबीआइ जांच की मांग को लेकर भगत ने 5 मई को झारखंड के राज्यपाल सईद अहमद से मुलाकात भी की थी.

प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष इस ओर ध्यान दिलाते हैं कि पिछले साल इस मामले में एफआइआर दर्ज किए जाने के तत्काल बाद गिरफ्तार किए गए रवि बोदरा ने फर्जी आत्मसर्पण कराने और 'पुलिस और सीआरपीएफ के वरिष्ठ अधिकारियों' के निर्देशन में काम करना स्वीकार किया है. भगत कहते हैं, "बोदरा के दावों के आधार पर किसी ने भी अधिकारियों की गिरफ्तारी की मांग नहीं की है. लेकिन सीआरपीएफ आइजी के इस घोटाले के खुलासे के लगभग तीन साल बाद भी कई ऐसे मूलभूत सवालों के जवाब मिलने बाकी हैं, जैसे कि कोबरा बटालियन के कैंप में 514 लोगों को रखने का आदेश आखिर किसने दिया था?" प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष भगत कहते हैं कि अधिकारियों के साथ बोदरा की मिलीभगत के दावों की जांच होनी ही चाहिए.
रांची में बिरसा मुंडा केंद्रीय कारागार के सेवानिवृत्ति अधीक्षक दिलीप प्रधान ने भी शीर्ष पुलिस और प्रशासनिक अधिकारियों के बीच मिलीभगत का आरोप लगाया है.

प्रधान का कहना है कि उन्हें रांची के पुराने कारागार में कोबरा बटालियन और दूसरे बंदियों को खाद्य सामग्री मुहैया कराने का काम सौंपा गया था. उनका दावा है कि वे यह काम "वरिष्ठ अधिकारियों" के मौखिक आदेश पर करते थे. लेकिन वे यह भी दावा करते हैं, "हमें रांची के वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक के कार्यालय के जरिए पैसा मिलता था." इस मामले में दूसरे तथ्यों और प्रधान के आरोपों के बारे में पूछे जाने पर मुख्यमंत्री दास भरोसा दिलाते हैं कि जांच के आधार पर वे उचित कार्रवाई करेंगे. पूर्ववर्ती तथा वर्तमान सरकार, अधिकारियों, राज्य पुलिस और सीआरपीएफ की तरफ से इस मामले में आए बयानों और उठाए गए कदमों से अभी भी कई सवाल अनुत्तरित ही रह गए हैं, जिनका जवाब मामले की विस्तृत जांच के बाद ही मिल सकेगा. 514 युवकों और उनके परिवारों को भी इन सवालों के जवाब का बेसब्री से इंतजार है.