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कहां है हमारा रैनावारी?

मैं बड़ी बहन के पास गई. जब वह कश्मीर में बीते बचपन की बात करती, उसकी आंखों में एक अलग ही चमक होती. सब कुछ एक दम ताजा लगता, यहां तक कि उसका ट्रॉमा भी. लेकिन कश्मीर की मेरी यादें उधार की थीं.

मधूलिका जलाली
मधूलिका जलाली
अपडेटेड 23 जनवरी , 2023

प्रदीपिका सारस्वत

हाल ही में दिल्ली के हैबिटाट सेंटर में एक डॉक्यूमेंट्री फिल्म दिखाई गई. नाम था घर का पता. मधूलिका जलाली की यह फिल्म श्रीनगर के रैनावारी में अपने उस घर के खो जाने की घुटन से बाहर आने की कोशिश थी जिसे वे याद नहीं कर पा रही थीं. इसी तरह पिछले साल गुलमर्ग साहित्य महोत्सव में अनुष्का धर ने अपनी किताब टेक मी होम पर बात की.

कश्मीर घाटी में रहने वाले कश्मीरी पंडितों का 1989 में शुरू हुआ भीषण पलायन आज भी जारी है. तब से अब तक की तमाम पीढ़ियां आज भी किसी तरह अपने उस घर से राब्ता बनाए रखने की जद्दोजहद में हैं जो शायद हमेशा के लिए उनसे छूट गया. इनमें अनुष्का और नियति की पीढ़ियां हैं जिन्होंने अपना घर कभी देखा ही नहीं. मधूलिका सरीखे लोग हैं जिनका जेहन घर छोड़ते वक्त इतना कच्चा था कि एक दर या दीवार तक न याद रख सका. और फिर हिना जैसे लोग हैं जिन्हें घाटी में बीते बचपन की याद आज भी इस तरह जकड़े हुए है कि किसी और ठिकाने को घर नहीं बनने देती.

मधूलिका जलाली (38 वर्ष), फिल्मकार हैं, फिलहाल मुंबई में रहती हैं: कश्मीर का पता-रैनावारी, श्रीनगर

मैंने कश्मीर को घर की तरह नहीं देखा था, जब तक 2014 में पहली बार मैं हफ्ते भर के लिए परिवार के साथ वहां नहीं गई. वहां देखा कि सब वह भाषा बोल रहे थे जो मैंने सिर्फ घर में सुनी थी. अपने परिवार को ड्राइवर, सब्जी वाले या सड़क चलते आदमी से बेतकल्लुफी से कश्मीरी में बात करते देख मैं हैरान थी. मुझे लगा मैं यहां की हूं, मेरा बचपन यहीं बीतना था, न कि तमाम शहरों में बदले किराए के मकानों में.

मैंने पिता से कहा कि मुझे अपना वह घर देखना है जहां मैं पैदा हुई और छह साल गुजारे. उन्होंने साफ इनकार कर दिया. अपना घर देखने की मेरी बेचैनी और बढ़ गई. 2014 में जब मैं कश्मीर से लौटी तब जैसे लगा मेरे पांवों के नीचे से जमीन खींच ली गई थी. बस इतना पता था कि मुझे अपना घर, अपनी जड़ों को तलाशना था और कोई ऐसा शख्स मेरी मदद कर सकता था जिसने वह घर देखा हो. मैं बड़ी बहन के पास गई.

जब वह कश्मीर में बीते बचपन की बात करती, उसकी आंखों में एक अलग ही चमक होती. सब कुछ एक दम ताजा लगता, यहां तक कि उसका ट्रॉमा भी. लेकिन कश्मीर की मेरी यादें उधार की थीं. निर्वासन आपके साथ यही करता है. आपके पास अपना कुछ भी नहीं बचता. न यादें, न अपनी चीजें, आप बस दूसरों की आपबीती के दर्शक बनकर रह जाते हैं.

जब हम दिल्ली रहने आए तो मेरी मां को हिंदी बोलने में बड़ी तकलीफ हुई. वह सब्जी वालों, पड़ोसियों से बात करने में हिचकती. अब मैं समझ पाती हूं कि कितना अकेला महसूस किया होगा उसने. मुझे अपने ही परिजनों और रिश्तेदारों का भरोसा जीतने में बहुत वक्त लगा क्योंकि मैं उनकी दर्दनाक यादों की उन गलियों में जाने की कोशिश कर रही थी जो उन्होंने खुद अपने आप से छुपा रखी थीं.

लगभग हर बार मुझसे कहा गया—क्या जानना चाहती हो? और अब क्यों? बहुत देर हो चुकी है. शुरुआत में मैं बस चचेरे भाई-बहनों, पारिवारिक मित्रों, रिश्तेदारों के इंटरव्यू कर रही थी. मैं उनसे पूछती कि रैनावारी के मेरे घर के बारे में उन्हें क्या याद है? कुछ दरवाजे और घर के ब्यौरे बताते. कुछ उस घर से जुड़ी यादें साझा करने लगते. फिर मैंने पुरानी तस्वीरें मांगनी शुरू कीं. तस्वीर तो एक भी ठीकठाक न मिली, पर इस प्रक्रिया में समझ आया कि औरतों मसलन मां, चाचियों, मामियों की और बातें सुननी चाहिए.

मर्द ज्यादातर राजनीति पर, नौकरियों की बात करते लेकिन औरतों पर निर्वासन का असर बहुत गहरा था. मेरी मां अब तक उन बर्तनों की बात करती है जो रैनावारी के घर में छूट गए, वो कपड़े जो उसने निकलने से पहले सुखाए थे. इन छोटी-छोटी चीजों ने मेरा दिल तोड़ दिया. डॉक्यूमेंट्री में मैंने जान-बूझकर औरतों से ज्यादा बात की. फिल्म बनाने की यह यात्रा मुझे कहीं न कहीं मेरे घर के करीब भी लाई और घर को पाने की बेचैनी को भी और बढ़ाया. मुझे लगता है कि मेरी तलाश तो अब शुरू हुई है. 

अनुष्का धर (19 वर्ष), फिलहाल न्यूयॉर्क में पढ़ रही हैं, कश्मीर का पता-मलयार, श्रीनगर

मैं कश्मीर से दूर बड़ी हुई. एक कश्मीरी परिवार में बड़े होते वक्त एक चीज बिल्कुल साफ थी कि हम कश्मीरी खाना खाते, त्योहार मनाते, कश्मीरी जुबान बोलते पर कश्मीर के बारे में बात नहीं करते. जब मैं और छोटी थी तो छुट्टियों के बाद मेरे दोस्त अपने अनुभव साझा करते कि वे गांव गए, खेत-खलिहान घूमे, वहां लोगों से मिले. मेरी बारी आती, तो मैं चुप. मेरे पास बताने को कुछ होता ही न था. थोड़ी बड़ी हुई तो चुप रहने की मजबूरी मुझे परेशान करने लगी. मुझे समझ आने लगा कि मेरा घर कहीं ऐसी जगह था जिसके बारे में मैं जानती ही नहीं.

मेरा परिवार इस बारे में बात नहीं करना चाहता था. मैं सवाल करती तो वे परेशान हो जाते. इस बारे में बात करना उनके लिए बहुत दुखद था. धीरे-धीरे मुझे घर के बारे में नई बातें पता चलने लगीं, मेरे दिल में परिवार के लिए प्यार और इज्जत और बढ़ गई. कितना कुछ खोने और सहने के बाद वे यहां थे.

अपने खोए घर को जानने की बेचैनी ने मुझे ऐसी चीजें करने पर मजबूर किया जो मैं सोच भी नहीं सकती थी. यह बेचैनी न होती तो मैं महज 16 की उम्र में यह किताब न लिख पाती. मेरे लिए सबसे बड़ी चुनौती थी 14 साल की कच्ची उम्र में कश्मीर जैसे उदास करने वाले, जटिल विषय का सामना करना.

ऐसी उम्र में आप ज्यादा कुछ जानते-समझते नहीं. घर की अनुपस्थिति से जुड़ी हरेक आपबीती जो मैंने सुनी, हर तस्वीर जो दिखाई गई उसने मुझे अंधेरे अतीत में ले जाकर छोड़ दिया. हरेक आवाज में कितना ट्रॉमा था, मुझे अंदाजा ही न था. शुरुआत में जब मैं सुनती कि मेरे परिवार पर यह सब बीता, तो मैं भावुक और बेचैन हो जाती. एक लेखक की अपनी जिम्मेदारी निभाने के लिए मुझे उम्र से ज्यादा बड़ा होना पड़ा. इसलिए कितनी भी घुटन, दर्द या बेचैनी से मैं गुजरी, पर मैं सब कहानियां इकट्ठा करती गई.

इस किताब के पीछे की अनकही कहानी बेहद निजी है. यह उस राजनीति से कहीं दूर की बात है जो हम कश्मीर के मुद्दे के इर्द-गिर्द पाते हैं. यह एक किशोर लड़की की कहानी है जो जानना चाहती है कि वह कहां से आई है. इसमें एक मासूमियत है, एक मोहब्बत है, और यह किताब भरोसा देती है कि पलायन के 30 से ज्यादा साल बीत जाने पर भी कश्मीरी पंडितों की पीढ़ियां अपने घर को भूली नहीं हैं, वे इसे नए सिरे से खोज रही हैं.

बहुत-से लोग नहीं समझ पाते कि इस पलायन में कश्मीरी पंडितों ने सिर्फ घर नहीं खोया, जीने का अपना तरीका ही उनसे छूट गया. उन्हें सब कुछ शून्य से शुरू करना पड़ा. कुछ पंडित दुनिया भर में नाम और पैसा कमा रहे हैं, पर ऐसे कितने ही पंडित हैं जो इंटरनली माइग्रेटेड पर्संस कैंप या आइडीपी कैंप में रहे. कल जब मैं इस लायक होऊंगी तो किसी जरूरतमंद पंडित बच्चे की शिक्षा का खर्च जरूर उठाऊंगी. 

हिना कौल (42वर्ष), फिलहाल फरीदाबाद और यूट्यूब पर कायनात में, कश्मीर का पता-सफा कदल, श्रीनगर

कश्मीर से निकलते वक्त मैं दस साल की थी. मुझे याद है, पुरखों के घर से निकलते वक्त किस नजर से मैंने उसे देखा था. मुझे पता न था कि अब मैं कहां जाऊंगी, भविष्य क्या होगा, पहचान क्या होगी. कश्मीर से निकलते वक्त मैं मां-बाप के साथ नहीं थी. पता भी न था कि दोबारा मां-बाप और दादी-दादा से कब मिल सकूंगी. मेरे सपने उसी घर में छूट गए.

घर की याद में मैंने कविताएं लिखनी शुरू कीं, खोए घर के बारे में कहानियां लिखीं. बाद में कायनात नाम से यूट्यूब चैनल बनाया. बचपन में मैं बंजारों की तरह एक जगह से दूसरी जगह भटकी. टेंट और कैंप में घर की एक सुरक्षा, एक अपनापन, एक जगह जो आपको चाहिए होती है, वह मुझसे छिन गई. जब मैं फिर परिवार के साथ रहने लगी तो दादा-दादी को कश्मीर के लिए तड़पते देखा. दादाजी ने याद्दाश्त खो दी.

वे आखिरी सांसें कश्मीर में लेना चाहते थे, पर बदकिस्मती देखिए कि उन्हें परदेस में जलाया गया. एक किशोरी के लिए वह भावनात्मक ट्रॉमा झेलना आसान न था. कश्मीर से रातो-रात निकलना और नई जगहों पर फिर जीना सीखने की कोशिश. हम सब जैसे बिना जड़ों के लोगों की तरह जीते हैं. हमारा कोई स्थाई पता नहीं है. धीरे-धीरे हमारे रीति-रिवाज, हमारी संस्कृति भी खो रही है. बिना बर्फ के, बिना वितस्ता के ऐसे कितने रिवाज हैं जो पीछे छूट गए. 

2018 में पति के साथ कश्मीर जाने पर हम पुरखों के घर भी गए, कुछ मंदिर भी देखे, जो बुरे हाल में थे. लेकिन साधु बरबर शाह के मंदिर और सफा कदल में घर के पास के राम मंदिर में जाना बेहद रोमांचकारी था. वहां की यादें मेरे जहन में वैसी की वैसी कैद थीं जैसे कल ही मैं वहां दादी के साथ गई थी.

कायनात का सफर शुरू करने से जुड़ी सबसे बड़ी चुनौती थी डर. फिर से कश्मीर और खासकर डाउनटाउन के खंडित होते मंदिरों में जाना. हमने खतरा उठाया. मुश्किल से मुश्किल हालत में भी कभी नहीं सोचा कि काश मैं पंडित न होती और मुझे इस त्रासदी से न गुजरना पड़ता. मैं आज अपने परिवार के साथ जहां हूं, खुश हूं, मेरे पास कोई कमी नहीं, पर मेरी आत्मा आज भी मेरे खोए हुए घर में बसती है. वह कमी पूरी ही नहीं होती.

मेरी कविताएं पंडितों के जला दिए गए, छीन लिए गए घरों और मंदिरों के बारे में हैं, हमारी खोई हुई पहचान के बारे में हैं. मेरी कविताएं यह बताने की कोशिश करती हैं कि हम किस तरह अपने अतीत और वर्तमान के बीच बंटे हुए जी रहे हैं, उन हालात की बात करती हैं जिनकी वजह से हमें अपना सब कुछ छोड़कर बंजारों की जिंदगी जीने पर मजबूर होना पड़ा. उन जगहों की कहानियां जो कभी जिंदगी से गुलजार थीं, आज उजाड़ और बंजर हैं.

मैं आशावादी हूं और भविष्य में कश्मीरी पंडित समुदाय को फिर कश्मीर में देखती हूं. मैं देखती हूं कि हमें न्याय मिलेगा. बचपन में हमने जो खोया है, हम पाएंगे, हमारा बचपन, हमारे मन की शांति, हमारी खुशी...

नियति भट्ट (29 वर्ष), लेखक, अनुवादक, फिलहाल दिल्ली में, कश्मीर का पता-अशमुकाम, अनंतनाग

बचपन में बहुत जल्दी मुझे यह समझ आ गया कि हम जहां थे, जहां मैं पैदा हुई, जहां मैं बड़ी हो रही थी वो 'घर’ नहीं था. पिछले कुछ समय में जब भी मैंने कश्मीरी पंडित दोस्तों से इस बारे में बात करने की कोशिश की तो ज्यादातर ने मुझे बताया कि उनके परिवार ने कश्मीर छूटने की त्रासदी को उनसे दूर रखा पर मेरे घर में यह रोज की बातचीत में शामिल था. शायद इसलिए क्योंकि मैं जिस मुहल्ले में पली बढ़ी वहां कई निर्वासित पंडित परिवार रहते थे.

लोगों के लिए माइग्रेशन यानी विस्थापन का अर्थ पंछियों के एक मौसम से दूसरे की तलाश में दूर देश जाने या गांव से शहर जाने तक सीमित था. पर हम कश्मीरी पंडितों के लिए यह शब्द हमारी पहचान से जुड़ गया. जब मुझे पहली बार यह समझ आया कि माइग्रेशन कश्मीरी का नहीं अंग्रेजी का शब्द था तो मुझे यकीन ही नहीं हुआ. मेरे माता-पिता की शादी 1990 में घाटी छोड़ने के बाद हुई और मैं हिमाचल में पैदा हुई जहां मेरे पिता नौकरी करते थे. मैं दादी-दादा से निर्वासन की कहानियां सुनते हुए बड़ी हुई. परीकथाएं खत्म हो गईं तो उन्होंने मुझे कश्मीर में बीती अपनी जिंदगी की कहानियां सुनानी शुरू कीं.

मेरा पूरा अस्तित्व निर्वासन की त्रासदी में डूबा रहा है. पहले स्कूल और फिर कॉलेज में मैं हमेशा कश्मीर की ही बात करती थी, इस कदर कि मुझे टोक दिया जाता था कि कुछ और बात करो. मैंने निर्वासन का साहित्य पढ़ा. झुंपा लाहिरी का साहित्य, महमूद दरवेश की कविता, एडवर्ड सईद का निर्वासन पर काम. मैं कहां पैदा हुई, कहां स्कूल गई, कैसी शिक्षा मुझे मिली, यह सब निर्वासन ने तय किया, मेरा कवि, लेखक  और अनुवादक होना भी. मैंने पत्रकारिता पढ़ी ताकि कश्मीरियों की कहानियां दुनिया तक पहुंचा सकूं.

फिर मैं सिनेमा स्टडीज पढ़ने जेएनयू गई. यहां मेरी यात्रा तीन शब्दों के साथ शुरू हुई—ट्रॉमा, एग्जाइल (निर्वासन), सिनेमा. मेरी कश्मीरी पहचान और निर्वासन का अनुभव मेरे सारे रिश्तों पर असर डालता रहा. उनसे दोस्ती मुमकिन न हो सकी जो हमारे मुद्दों को नजरअंदाज करते या उन्हें गैर-जरूरी समझते. इस त्रासदी का सामना करने का मेरे पास एक ही तरीका था, इसे लिखना. मैं तस्वीरें, किस्से, गीत, बातचीत रिकॉर्ड करने लगी, अपने परिवार को अपने फोन कैमरा पर हर वक्त रिकॉर्ड करती रहती. लगता कि निर्वासन का ये डॉक्यूमेंटेशन जरूरी है.

क्लासरूम में कश्मीर पर बात होते समय जब देखती कि पंडितों के निर्वासन पर बात करने की जरूरत ही नहीं समझी जाती, तो मैं अपना पक्ष जरूर रखती. लोग हमारे दर्द से इस कदर अनजान थे कि मुझे यह तक सुनने को मिला कि तुम वापस क्यों नहीं चली जातीं. उस नैरेटिव में मुझे यह समझ आया कि खुद को कश्मीरियों का दोस्त बताने वाले, सभी कश्मीरियों के दोस्त नहीं. अन्याय पर लोगों का गुस्सा और न्याय की अवधारणा एकतरफा थी. इसलिए मैंने कश्मीर के अलग-अलग हिस्सों की आवाजों को समेटने वाले सिनेमा और संगीत पर काम शुरू किया.

सबसे बड़ी चुनौती थी इस सवाल का जवाब: जब मैं अपने समुदाय के दर्द और ट्रॉमा से ही पूरी तरह उबर नहीं पाई हूं तो पूरे कश्मीर के दर्द को कैसे समझूं. मेरे लिए बड़ी बात थी जब जामिया मिल्लिया इस्लामिया ने 2020 में कश्मीरी संगीतकारों पर मेरे रिसर्च पेपर को बेस्ट पेपर अवॉर्ड दिया. मेरे मां-बाप को मेरे काम पर भरोसा होने लगा, जिस तरह मैं उनके दर्द को जुबान दे पा रही थी, वे हैरान थे. कहते हैं न कि जो किताब आप पढ़ना चाहते हैं अगर वह लिखी नहीं गई है, तो आप उसे लिखें.

अब तक कश्मीर से जुड़े मेरे अनुभव और व्यथा को कहने वाली किताब मुझे नहीं मिली है, तो मुझे अपनी कहानी खुद ही कहनी होगी. शुरू में मेरे भीतर कश्मीर को लेकर बहुत गुस्सा था लेकिन साहित्य और लेखन ने इन भावनाओं को समझने में बहुत मदद की. मैंने इस गुस्से को अपने काम के जरिए बाहर लाने की कोशिश की है. मैं अपने घर और अपनी जड़ों को खोना अब तक स्वीकार नहीं कर पाई हूं, आगे कर सकूंगी या नहीं, कह नहीं सकती.