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फिलहाल आरएसएस को मनाने में कामयाब हुए मोदी, लेकिन आगे क्या?

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भले ही आरएसएस को फिलहाल मुंह बंद करने को राजी कर लिया हो मगर दोनों के रिश्तों में अनसुलझे मसलों की गरमी बरकरार.

अपडेटेड 12 जनवरी , 2015

महात्मा गांधी की पुण्यतिथि यानी 30 जनवरी जैसे-जैसे करीब आ रही है, मध्य दिल्ली में हिंदू महासभा के दफ्तर में माहौल गरमा रहा है. वह गांधी की हत्या करने वाले अपने सबसे कुख्यात सदस्य नाथूराम गोडसे की दिल्ली और मेरठ के दफ्तरों में मूर्ति स्थापित करने की योजना जो बना रही है. हाल के दिनों में प्रचार पाकर वह ऐसे आवेग में है कि उसे परवाह नहीं कि इससे ज्यादातर हाशिए पर पड़े रहने वाले इन उग्र दक्षिणपंथी संगठनों का सब कुछ तार-तार ही क्यों न हो जाए.

इन दिनों जब पारंपरिक दक्षिणपंथी राजनीति में रची-बसी बीजेपी केंद्र में लोकतांत्रिक चेहरे के साथ आगे बढऩे की कोशिश कर रही है, उसे आरएसएस के राजेश्वर ङ्क्षसह जैसे उत्साहियों से ही निबटने पर मजबूर नहीं होना पड़ेगा, बल्कि हिंदू महासभा जैसे कट्टर संगठनों के खिलाफ भी कार्रवाई करनी पड़ सकती है. राजेश्वर ङ्क्षसह ने हाल में ऐलान किया था कि जल्द ही भारत ''हिंदू राष्ट्र" बन जाएगा.

नतीजा यह होगा कि केंद्र में बमुश्किल छह महीने का कार्यकाल पूरा करने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की राजनीति और सुशासन में खलल पड़ जाएगा. संसद का शीतकालीन सत्र पुनर्धर्मांतरण या 'घर वापसी' जैसे विवादों में जाया हो चुका है और आशंका है कि विपक्ष इन्हीं मुद्दों के बहाने बजट सत्र को भी बर्बाद कर सकता है. इसी चिंता के साथ मोदी ने आरएसएस के वरिष्ठ नेतृत्व से बात की है और कहा है कि वे अपने उग्र आनुषंगिक संगठनों को कुछ काबू में रखें.

मोदी के करीबी बीजेपी के एक नेता ने हाल ही में अहमदाबाद में कहा, ''पुनर्धर्मांतरण का ऐसा खुला अभियान पूरी तरह उलटा पड़ सकता है क्योंकि इससे न सिर्फ ईसाई मिशनरियों के काम में नई तेजी आएगी, बल्कि मोदी के सुशासन के एजेंडे और उनकी अंतरराष्ट्रीय छवि पर भी इसका काफी असर पड़ेगा. हमारे एजेंडे को चुपचाप और बिना सुर्खियों में लाए हुए आगे बढ़ाना होगा."
लगता है कि आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत को कम-से-कम फिलहाल यह बात समझ् में आ गई है. न सिर्फ आरएसएस के वरिष्ठ प्रचारक राजेश्वर सिंह को लंबी छुट्टी पर भेज दिया गया है, बल्कि इस महीने अहमदाबाद में आरएसएस सम्मेलन में भागवत ने भी 'घर वापसी' की चर्चा नहीं छेड़ी. उन्होंने अपने भाषण में प्रधानमंत्री बने अपने प्रचारक की लोकसभा चुनाव में विशाल जीत का जिक्र किया और कहा, ''हमें अनुकूल परिस्थितियों का लाभ उठाना चाहिए." इस मौके पर बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह मौजूद थे.
पुनर्धर्मांतरण के मुद्दे पर आरएसएस के कथित रूप से पलटने के मामले में मोदी के करीबी नेता ने संकेत दिया कि मोदी और आरएसएस नेतृत्व में गंभीर मतभेद उभरने शुरू हो गए थे क्योंकि राजेश्वर जैसे आरएसएस पदाधिकारियों ने अपनी हरकतों से मोदी के घोषित आर्थिक विकास के राष्ट्रीय एजेंडे से ध्यान बंटाना शुरू कर दिया था.

आरएसएस तक मोदी का यह संदेश अमित शाह और आरएसएस के सह सरकार्यवाह तथा बीजेपी से उसके समन्वयक कृष्ण गोपाल ने पहुंचाया. कृष्ण गोपाल पहले मोदी की निरंकुश कार्यशैली को नापसंद करने के लिए जाने जाते थे लेकिन अब वे हथियार डाल चुके हैं. मोदी के करीबी नेता के मुताबिक, कृष्ण गोपाल ही राजेश्वर सिंह को लंबी छुट्टी पर भेजने में मददगार साबित हुए. लेकिन एक दूसरे आरएसएस के नेता नाम न छापने की शर्त पर बताते हैं कि मोदी की नाराजगी के अलावा राजेश्वर आरएसएस नेतृत्व की नजरों से भी गिर चुके हैं. वजह यह है कि 2021 तक 'हिंदू राष्ट्र' निर्माण की उनकी घोषणा शायद खुद भागवत की बातों को चुनौती दे रही थी. आरएसएस प्रमुख ने कोलकाता और अहमदाबाद में हाल ही में कहा था कि 'हिंदू राष्ट्र' तो सनातन सत्य है, भारत के सभी पंथ और धर्म उसकी इकाइयां हैं यानी विस्तृत परिवार के सदस्य हैं.

जो भी हो, आरएसएस नेतृत्व को यह एहसास हुआ है कि उसे हिंदुत्व के एजेंडे को काबू में रखने की जरूरत है. इसलिए दिसंबर में जब हिंदू महासभा ने अपने दिल्ली, मेरठ और अंबाला (जहां उसे फांसी दी गई थी) के दफ्तरों में गोडसे की मूर्ति लगाने का ऐलान किया तो दिल्ली में आरएसएस के थिंक टैंक इंडिया पॉलिसी फाउंडेशन के डायरेक्टर राकेश सिन्हा ने ट्वीट किया, ''किसी भी हत्यारे का महिमामंडन नहीं होना चाहिए, चाहे वह लिंकन का हो या गांधी का. गोडसे का आरएसएस से कोई संबंध नहीं था."

एक इंटरव्यू में सिन्हा ने गोडसे के महिमामंडन की कोशिशों पर दो-टूक राय रखी. उन्होंने कहा, ''गोडसे का कोई मंदिर नहीं होना चाहिए. हम उसे महिमामंडित करके उलटी धारा नहीं बहा सकते, चाहे वह कभी राष्ट्रवादी ही क्यों न रहा हो. तथ्य यह है कि उसने महात्मा की हत्या की इसलिए हमने उसके पहले के योगदान को भुला दिया. आरएसएस कुछ आपत्तियों के बावजूद महात्मा को काफी सम्मान की नजर से देखता है."

इस पर हिंदू महासभा के महासचिव मदन आचार्य ने पलट वार किया, ''सबसे पहले आरएसएस की 'घर वापसी' कराई जानी चाहिए क्योंकि वह कभी हिंदू महासभा से ही निकला है." मदन आचार्य के खिलाफ मेरठ पुलिस ने महात्मा गांधी का अपमान करने के लिए मुकदमा दर्ज कर लिया है.

इसमें शक नहीं कि गोडसे हिंदू महासभा और आरएसएस के बीच का आदमी था. आरएसएस चाहे जितना खंडन करे पर वह दोनों संगठनों का सदस्य रहा है. महात्मा की हत्या के समय सरदार वल्लभभाई पटेल ने ही आरएसएस सरसंघचालक एम.एस. गोलवलकर को चिट्ठी में लिखा था कि महात्मा की हत्या की खबर सुनकर आरएसएस के लोगों ने मिठाइयां बांटी थीं.
मेरठ में बरगद के पेड़ के नीचे एक सीमेंट के चबूतरे पर 30 जनवरी को गोडसे की मूर्ति की स्थापना की जानी है. वहीं बैठे हिंदू महासभा के सदस्य अशोक शर्मा कहते हैं, ''मोदी यह चुनाव अपने अर्थिक विकास के वादे पर नहीं, बल्कि हिंदुत्व के एजेंडे पर जीते हैं. उन्हें यह समझ्ना चाहिए. उन्हें हिंदुत्व के एजेंडे को आगे बढ़ाने में हमारी मदद करनी चाहिए."

इसी तरह पंजाब में धर्म जागरण मंच के राज्य प्रमुख राम गोपाल ने कहा कि खासकर पाकिस्तान की सीमा से सटे इलाकों में रहने वाले सिखों को दोबारा हिंदू धर्म में वापस लाने का अभियान 2005 में तत्कालीन आरएसएस प्रमुख के.एस. सुदर्शन ने ही शुरू किया था. गोपाल और उनके 'स्वयंसेवकों' की फौज ने सबसे पहले फाजिल्का के गुरुद्वारे से 'घर वापसी' अभियान की शुरुआत की. अब गुरदासपुर, अमृतसर, बटाला, तरन तारन, फिरोजपुर और अबोहर में हर साल उन्होंने 2,000 लोगों के धर्मांतरण में कामयाबी पाई है.

हालांकि धर्मांतरण के मुद्दे पर यह तो कहा ही जा सकता है कि मोदी और आरएसएस के बीच, अस्थायी ही सही, समझैता हो गया. दोनों ही पक्ष उसे सुर्खियों से अलग रखने पर राजी हो गए हैं. जहां तक हिंदू महासभा के गोडसे के महिमामंडन का सवाल है, आरएसएस और मोदी, दोनों ही जानते हैं कि वे हिंदुत्व के एजेंडे का लाभ दूसरे संगठन को उठाने की इजाजत नहीं दे सकते. यह पूछने पर सिन्हा ने मुंह सी लिया कि अगर हिंदू महासभा गोडसे की प्रतिमा लगाता है तो आरएसएस उसके खिलाफ कोई कदम उठाएगा? आरएसएस के प्रवक्ता मनमोहन वैद्य इसे ''बेमानी-मुद्दा" कहकर खारिज कर देते हैं.

नाम न छापने की शर्त पर आरएसएस के एक नेता ने स्वीकारा कि मोदी दिल्ली में उसी तरह बागडोर अपने हाथ में रखे हुए हैं, जैसे गुजरात में रखा करते थे. आरएसएस नेतृत्व को इसका पूरा एहसास है. इन नेता के मुताबिक मोदी जब गुजरात के मुख्यमंत्री थे तो आरएसएस से मतभेद मिटाने के लिए केंद्र में अधिक महत्व के वादे पर समझैता हो जाता था, चाहे विश्व हिंदू परिषद के प्रवीण तोगडिय़ा को दरकिनार करने का मामला हो या चुनावों में आरएसएस के प्रांत प्रचारक की सलाह न मानने का मामला हो या बिजली की दरें बढ़ाने के खिलाफ आरएसएस के आनुषंगिक संगठन भारतीय किसान संघ की मांग की उपेक्षा हो.

कुछ महीने पहले आरएसएस के महासचिव भैयाजी जोशी बांग्लादेश सीमा पर तीन बीघा ह्नेत्र देखने गए तो सीमा सुरह्ना बल (बीएसएफ) ने उन्हें ''मौजूदा सुरह्ना व्यवस्था" के बारे में विस्तार से बताया. आरएसएस यह देखकर भी खुश है कि उसके कई नेताओं को सत्ता और महत्व का पद मिला है और मोदी राज्यपालों की नियुक्ति से लेकर कई मसलों पर आरएसएस से सलाह करते हैं. एक आरएसएस नेता ने कहा, ''यह हमारी सरकार है. आखिरकार मोदीजी कई साल तक प्रचारक रहे हैं. हम एक-दूसरे को अच्छी तरह जानते हैं. गठबंधन सरकार चलाने वाले अटलजी के विपरीत मोदीजी को भारी बहुमत मिला है और हम सभी कमोबेश साथ-साथ हैं."

मोदी के करीबी नेता मानते हैं कि प्रधानमंत्री और आरएसएस, दोनों को एक-दूसरे की दरकार है और ज्यादातर मतभेद बुनियादी नहीं, रणनीतियों को लेकर हैं. वे बताते हैं कि मोदी ने शुरुआत में ही इसकी भूमिका रख दी थी. पिछली मई में चुनाव जीतने के बाद संसद भवन के केंद्रीय कक्ष में बीजेपी के नव-निर्वाचित सांसदों की बैठक में मोदी ने कहा कि ''1,200 साल की गुलामी" के बाद एक हिंदुत्व समर्थक पार्टी सत्ता में आई है.

मोदी सरकार छह महीने की सत्ता में जैसे-तैसे अपनी शुरुआती समस्याओं से पार पा चुकी है और लगता है कि वह अब शिक्षा, संस्कृति, अर्थव्यवस्था और राष्ट्रीय सुरक्षा जैसे व्यापक मसलों पर आरएसएस से गहन विचार-विमर्श को तैयार हो चुकी है. लेकिन वह यह भी जानती है कि अगर उसे अपनी छाप छोडऩी है तो उसे इन तमाम मामलों, खासकर अर्थव्यवस्था में कामयाबी दिखाने की जरूरत है. यह भी तय है कि नाकामी उसे आरएसएस की मर्जी पर और आश्रित कर देगी. नए साल के साथ ही मोदी सरकार का हनीमून दौर बीत चुका है. उसके आगे दुर्गम और कठिन रास्ते ही हैं.