सीबीआइ निदेशक का यह बयान बेहद घृणित और निंदनीय है. सट्टेबाजी को कानूनी जामा पहनाने की मांग करना बिल्कुल वैसा ही है, जैसे यह कहना कि बलात्कार से बचना संभव न हो तो उसका आनंद लेना चाहिए. उनका यह बयान साफ दिखाता है कि ऊंचे पदों पर बैठे बहुत से पुरुष औरतों के बारे में किस तरह की मानसिकता से ग्रस्त हैं.
यह बहुत अफसोस की बात है कि उनके शब्दकोश में इस तरह के मुहावरे शामिल हैं, जो स्त्री के प्रति अनादर का भाव रखते हैं और जो बलात्कार की शिकार महिलाओं के लिए बेहद अपमानजनक हैं. इससे भी ज्यादा अफसोस की बात यह है कि उन्होंने अपने बयान पर अगर-मगर का इस्तेमाल करते हुए आधे-अधूरे मन से माफी मांगी. अगर मेरी बातों से कोई आहत हुआ है, तो मुझे इस बात का दुख है या मेरे बयान को गलत ढंग से पेश किया गया. उनके जैसे लोग जब भी कोई गैर-जिम्मेदार, आपत्तिजनक और संवेदनहीन बयान देते हैं तो इस तरह के वाक्यों का इस्तेमाल करके निकल जाते हैं.
कुछ लोग महिला कार्यकर्ताओं पर आरोप लगाते हैं कि वे इस तरह के बयानों पर कुछ ज्यादा ही हो-हल्ला करती हैं. इस तरह के लोगों का कहना है कि जाने, दो. किसी ने कुछ बोल ही तो दिया है. इन बयानों को ज्यादा तूल नहीं देनी चाहिए और उनकी अनदेखी कर देनी चाहिए. इन लोगों का कहना है कि सीबीआइ निदेशक ने जब अपनी ओर से ‘‘माफी’’ मांग ही ली है तो उसे जबर्दस्ती इतना लंबा खींचने की क्या जरूरत. अब इस मामले को खत्म कर देना चाहिए.
लेकिन यह मामला बाकी मामलों से अलग है. यह सिर्फ एक व्यक्ति द्वारा नाकाबिले बर्दाश्त भाषा के इस्तेमाल का मसला भर नहीं है. रंजीत सिन्हा एक ऐसी एजेंसी के प्रमुख हैं, जो स्त्रियों के शारीरिक उत्पीडऩ और हिंसा के सैकड़ों मामलों की जांच कर रही है. जिस वक्त सिन्हा ये बयान दे रहे हैं, ठीक उसी वक्त ये जांच भी चल रही है. ये मामले सीबीआइ को इसीलिए सौंपे गए, क्योंकि जिन राज्यों में ये मामले घटित हुए, वहां की पुलिस महिलाओं को न्याय दिलाने में अक्षम साबित हुई थी. इन मामलों में पुलिस और अपराधियों के बीच मिलीभगत का संदेह व्यक्त किया जाता रहा है. अगर ऐसी महत्वपूर्ण एजेंसी का प्रमुख इस तरह की भाषा का इस्तेमाल करता है और बलात्कार के अपराध के प्रति संवेदनहीन रवैया व्यक्त करता है तो बाकी एजेंसियों में इसका बहुत नकारात्मक संदेश जाएगा.
बलात्कार के अपराधों को हल्के ढंग से लिया जाता है. यही कारण है कि भारत में बलात्कार के दोषियों को सजा दिलाने की दर बहुत कम है. एजेंसियां इन मामलों में जांच को पर्याप्त महत्व ही नहीं देती हैं, जबकि इस समय भारत में बलात्कार के अपराध की दर सबसे तेजी से बढ़ रही है. देश की अदालतों में महिलाओं के खिलाफ यौन उत्पीडऩ और बलात्कार के एक लाख से भी ज्यादा मामले लंबित पड़े हुए हैं. लेकिन दिल्ली गैंगरेप की जघन्य घटना के बाद सरकार और दूसरी एजेंसियों की ओर किए गए तमाम वादों के बावजूद त्वरित न्याय के लिए कानून में सुधार की कोशिशें पर्याप्त तेजी से नहीं हो रही हैं. सीबीआइ निदेशक का बयान महिलाओं के प्रति पुलिस के संवेदनहीन रवैए को और भी मजबूती देगा.
ताकतवर पदों पर बैठे लोगों के ऐसे बयान पहले से मौजूद उस माहौल को और भी पुख्ता करेंगे, जिसमें माना जाता है कि मर्द तो मर्द ही रहेंगे, और उन्हें भाषा के इस्तेमाल या रवैये में कुछ छूट दे दी जानी चाहिए. उनके बयानों पर ज्यादा शोर नहीं मचाया जाना चाहिए.
लेकिन एक महिला के लिए यह उसके लोकतांत्रिक अधिकारों का अतिक्रमण है. दफ्तर, सड़क, बस या घर या कहीं भी महिला का सम्मान किसी भी समाज में लोकतांत्रिक मूल्यों का सूचक होता है. इस पैमाने पर भारत के लोकतंत्र के मॉडल में काफी सुधार की जरूरत है. जिस तरह से चुने हुए नेताओं, उच्च अधिकारियों या ताकतवर पदों पर बैठे हुए पुरुषों के द्वारा स्त्रियों के बारे में आपत्तिजनक बयान बढ़ते जा रहे हैं, उसे देखते हुए अब समय आ गया है कि ऐसे लोगों को अपनी टिप्पणी के लिए कानूनी तौर पर जिम्मेदार ठहराया जाना चाहिए और उन्हें इसकी सजा मिलनी चाहिए. नेताओं के मामले में संसद और विधानसभाओं द्वारा एक मान्य आचार संहिता होनी चाहिए, जिसके अनुसार अगर कोई व्यक्ति महिलाओं के बारे में आपत्तिजनक बयान देता है तो उसकी सार्वजनिक रूप से निंदा की जाएगी. अगर वह व्यक्ति उस तरह का बयान दोहराता है तो इस स्थिति में कुछ समय के लिए उसे उसके पद से निलंबित भी किया जा सकता है.
अधिकारियों के मामले में सेवा के नियमों में भी बदलाव किया जाना चाहिए, ताकि इस तरह का बयान देने पर अधिकारियों को दुर्व्यवहार के आधार पर सजा दी जा सके. जब उन्हें इस बात का डर होगा कि कोई आपत्तिजनक बयान देने पर उनका करियर भी खतरे में पड़ सकता है तो वे डरेंगे और इस तरह का कोई भी बयान देने से पहले दो बार सोचेंगे.
सीबीआइ निदेशक को जवाबदेह ठहराए जाने की पहल अदालतों की ओर से की जानी चाहिए. सरकार यह काम कभी नहीं कर सकती क्योंकि सीबीआइ उनके भ्रष्टाचार के कई मामलों की जांच कर रही है. सीबीआइ के अस्तित्व पर गुवाहाटी हाइकोर्ट के फैसले पर सुप्रीम कोर्ट के स्थगन के बाद सीबीआइ से संबंधित मामले सुप्रीम कोर्ट के पास हैं. यही सही होगा कि अदालतें खुद ही इसे संज्ञान में लें और खुद इस मामले में दखल दें. अखिल भारतीय लोकतांत्रिक महिला संघ (एडवा) ने अदालत से इस मामले में दखल देने की मांग की है.
(लेखिका सीपीएम की नेता हैं)
यह बहुत अफसोस की बात है कि उनके शब्दकोश में इस तरह के मुहावरे शामिल हैं, जो स्त्री के प्रति अनादर का भाव रखते हैं और जो बलात्कार की शिकार महिलाओं के लिए बेहद अपमानजनक हैं. इससे भी ज्यादा अफसोस की बात यह है कि उन्होंने अपने बयान पर अगर-मगर का इस्तेमाल करते हुए आधे-अधूरे मन से माफी मांगी. अगर मेरी बातों से कोई आहत हुआ है, तो मुझे इस बात का दुख है या मेरे बयान को गलत ढंग से पेश किया गया. उनके जैसे लोग जब भी कोई गैर-जिम्मेदार, आपत्तिजनक और संवेदनहीन बयान देते हैं तो इस तरह के वाक्यों का इस्तेमाल करके निकल जाते हैं.
कुछ लोग महिला कार्यकर्ताओं पर आरोप लगाते हैं कि वे इस तरह के बयानों पर कुछ ज्यादा ही हो-हल्ला करती हैं. इस तरह के लोगों का कहना है कि जाने, दो. किसी ने कुछ बोल ही तो दिया है. इन बयानों को ज्यादा तूल नहीं देनी चाहिए और उनकी अनदेखी कर देनी चाहिए. इन लोगों का कहना है कि सीबीआइ निदेशक ने जब अपनी ओर से ‘‘माफी’’ मांग ही ली है तो उसे जबर्दस्ती इतना लंबा खींचने की क्या जरूरत. अब इस मामले को खत्म कर देना चाहिए.
लेकिन यह मामला बाकी मामलों से अलग है. यह सिर्फ एक व्यक्ति द्वारा नाकाबिले बर्दाश्त भाषा के इस्तेमाल का मसला भर नहीं है. रंजीत सिन्हा एक ऐसी एजेंसी के प्रमुख हैं, जो स्त्रियों के शारीरिक उत्पीडऩ और हिंसा के सैकड़ों मामलों की जांच कर रही है. जिस वक्त सिन्हा ये बयान दे रहे हैं, ठीक उसी वक्त ये जांच भी चल रही है. ये मामले सीबीआइ को इसीलिए सौंपे गए, क्योंकि जिन राज्यों में ये मामले घटित हुए, वहां की पुलिस महिलाओं को न्याय दिलाने में अक्षम साबित हुई थी. इन मामलों में पुलिस और अपराधियों के बीच मिलीभगत का संदेह व्यक्त किया जाता रहा है. अगर ऐसी महत्वपूर्ण एजेंसी का प्रमुख इस तरह की भाषा का इस्तेमाल करता है और बलात्कार के अपराध के प्रति संवेदनहीन रवैया व्यक्त करता है तो बाकी एजेंसियों में इसका बहुत नकारात्मक संदेश जाएगा.
बलात्कार के अपराधों को हल्के ढंग से लिया जाता है. यही कारण है कि भारत में बलात्कार के दोषियों को सजा दिलाने की दर बहुत कम है. एजेंसियां इन मामलों में जांच को पर्याप्त महत्व ही नहीं देती हैं, जबकि इस समय भारत में बलात्कार के अपराध की दर सबसे तेजी से बढ़ रही है. देश की अदालतों में महिलाओं के खिलाफ यौन उत्पीडऩ और बलात्कार के एक लाख से भी ज्यादा मामले लंबित पड़े हुए हैं. लेकिन दिल्ली गैंगरेप की जघन्य घटना के बाद सरकार और दूसरी एजेंसियों की ओर किए गए तमाम वादों के बावजूद त्वरित न्याय के लिए कानून में सुधार की कोशिशें पर्याप्त तेजी से नहीं हो रही हैं. सीबीआइ निदेशक का बयान महिलाओं के प्रति पुलिस के संवेदनहीन रवैए को और भी मजबूती देगा.
ताकतवर पदों पर बैठे लोगों के ऐसे बयान पहले से मौजूद उस माहौल को और भी पुख्ता करेंगे, जिसमें माना जाता है कि मर्द तो मर्द ही रहेंगे, और उन्हें भाषा के इस्तेमाल या रवैये में कुछ छूट दे दी जानी चाहिए. उनके बयानों पर ज्यादा शोर नहीं मचाया जाना चाहिए.
लेकिन एक महिला के लिए यह उसके लोकतांत्रिक अधिकारों का अतिक्रमण है. दफ्तर, सड़क, बस या घर या कहीं भी महिला का सम्मान किसी भी समाज में लोकतांत्रिक मूल्यों का सूचक होता है. इस पैमाने पर भारत के लोकतंत्र के मॉडल में काफी सुधार की जरूरत है. जिस तरह से चुने हुए नेताओं, उच्च अधिकारियों या ताकतवर पदों पर बैठे हुए पुरुषों के द्वारा स्त्रियों के बारे में आपत्तिजनक बयान बढ़ते जा रहे हैं, उसे देखते हुए अब समय आ गया है कि ऐसे लोगों को अपनी टिप्पणी के लिए कानूनी तौर पर जिम्मेदार ठहराया जाना चाहिए और उन्हें इसकी सजा मिलनी चाहिए. नेताओं के मामले में संसद और विधानसभाओं द्वारा एक मान्य आचार संहिता होनी चाहिए, जिसके अनुसार अगर कोई व्यक्ति महिलाओं के बारे में आपत्तिजनक बयान देता है तो उसकी सार्वजनिक रूप से निंदा की जाएगी. अगर वह व्यक्ति उस तरह का बयान दोहराता है तो इस स्थिति में कुछ समय के लिए उसे उसके पद से निलंबित भी किया जा सकता है.
अधिकारियों के मामले में सेवा के नियमों में भी बदलाव किया जाना चाहिए, ताकि इस तरह का बयान देने पर अधिकारियों को दुर्व्यवहार के आधार पर सजा दी जा सके. जब उन्हें इस बात का डर होगा कि कोई आपत्तिजनक बयान देने पर उनका करियर भी खतरे में पड़ सकता है तो वे डरेंगे और इस तरह का कोई भी बयान देने से पहले दो बार सोचेंगे.
सीबीआइ निदेशक को जवाबदेह ठहराए जाने की पहल अदालतों की ओर से की जानी चाहिए. सरकार यह काम कभी नहीं कर सकती क्योंकि सीबीआइ उनके भ्रष्टाचार के कई मामलों की जांच कर रही है. सीबीआइ के अस्तित्व पर गुवाहाटी हाइकोर्ट के फैसले पर सुप्रीम कोर्ट के स्थगन के बाद सीबीआइ से संबंधित मामले सुप्रीम कोर्ट के पास हैं. यही सही होगा कि अदालतें खुद ही इसे संज्ञान में लें और खुद इस मामले में दखल दें. अखिल भारतीय लोकतांत्रिक महिला संघ (एडवा) ने अदालत से इस मामले में दखल देने की मांग की है.
(लेखिका सीपीएम की नेता हैं)