भारत में स्वच्छ जल के सबसे बड़े और प्रमुख स्रोत गंगा की जितनी दुर्गति और उपेक्षा हुई है, वह कुशासन की सबसे बड़ी मिसाल है. यह महज संयोग नहीं है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने असंभव को संभव बनाने की अपनी योग्यता दिखाने के लिए इस महान नदी को चुना है. उन्होंने भले ही वाराणसी से चुनाव लडऩे का फैसला हिंदी हृदय प्रदेश में बीजेपी को शह दिलाने के लिए किया हो, लेकिन वहां उन्होंने 24 अप्रैल को अपने पहले और 17 मई को दशाश्वमेध घाट पर अपनी जीत के बाद जो भाषण दिया, उसमें चुनावी वादों के आगे भी एक तरह की प्रतिबद्घता दिखती थी. मोदी के वादे ने गंगा के किनारे बसे शहरों और, स्वच्छ गंगा अभियान में लगे लोगों में उम्मीद की लहर पैदा कर दी है. उन्हें अब इस असंभव से दिखने वाले काम को संभव कर दिखाने का बीड़ा उठाना होगा.
इस अभियान की शुरुआत के तौर पर 7 जुलाई को मोदी सरकार की जल संसाधन एवं गंगा पुनरुत्थान मंत्री उमा भारती गंगा को बचाने के उद्देश्य से 200 से ज्यादा पर्यावरणविदों, वैज्ञानिकों, नीति-निर्माताओं, स्वयंसेवकों और साधुओं के साथ बैठक करेंगी. कई वर्षों से स्वच्छ गंगा अभियान से जुड़ी रहीं उमा भारती कहती हैं कि गंगा की शुद्धता और उसके प्रवाह दोनों को फिर से स्थापित करना ही उनके जीवन का मिशन है. पचास करोड़ लोगों को जीवन देने वाली यह विशाल नदी अब अपने अतीत की दुर्बल छाया बनकर रह गई है. उत्तराखंड के हिमालय में गंगोत्री से निकलने वाली इस नदी का 90 से 95 प्रतिशत प्राकृतिक प्रवाह बांधों और करीब सौ शहरों के नालों से हर रोज निकलने वाले तीन अरब लीटर गंदे पानी के कारण बाधित हो चुका है. इसके अलावा भारी मात्रा में कारखानों के विषैले पदार्थ और इंसानों व जानवरों के हजारों शव इसे अनवरत प्रदूषित करते रहते हैं.
राजीव गांधी ने 14 जून, 1986 को अपनी महत्वाकांक्षी गंगा कार्य योजना (जीएपी) का उद्घाटन किया था, तब से करीब तीन दशक बाद भी गंगा की आज यह दशा है. जीएपी-1, जिसे 2000 में पूर्ण घोषित कर दिया गया था और जीएपी-2, जिसे 1993 और 1996 के बीच कई चरणों में शुरू किया गया था, दोनों ही नदी का स्वास्थ्य सुधारने के अपने शुरुआती मकसद में भी विफल रहीं. उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, बिहार, झरखंड और पश्चिम बंगाल में प्रदूषण घटाने की करीब 460 योजनाओं पर 1,500 करोड़ रु. और जवाहरलाल नेहरू नेशनल अर्बन रिनीवल मिशन पर करोड़ों रु. खर्च होने के बावजूद समस्या कम होने के बजाए बढ़ी ही है.
गंगा की सफाई यूपीए सरकार की प्राथमिकताओं में शायद नहीं थी, जो अपने दूसरे कार्यकाल में नीतियों के मामले में पंगु हो गई थी. हालांकि 2008 में गंगा को राष्ट्रीय नदी घोषित कर दिया गया था और 2009 में प्रधानमंत्री के अधीन नेशनल गंगा रीवर बेसिन अथॉरिटी (एनजीआरबीए) का गठन किया गया था, लेकिन लापरवाही और सुस्ती के कारण कुछ भी काम नहीं हुआ. एनजीआरबीए ने पिछले पांच साल में सिर्फ तीन बार बैठकें कीं. एक सदस्य का तो यह भी कहना है कि 17 अप्रैल, 2012 को होने वाली आखिरी बैठक किसी चर्चा के बिना ही समाप्त हो गई. इससे यूपीए सरकार की लापरवाही और सुस्ती का ही संकेत नहीं मिलता, बल्कि इस अभियान के प्रति उसका उपेक्षा भाव भी जाहिर होता है.
उत्तराखंड में गोमुख से बंगाल की खाड़ी तक 2,525 किमी. के लंबे सफर में गंगा की गिनती दुनिया की 10 सबसे ज्यादा प्रदूषित नदियों में होती है. कभी इसके निर्मल जल को रोगों से मुक्त करने वाले चमत्कारी गुणों से भरपूर माना जाता था, लेकिन आज अधिकतर जगहों पर इसका जल पीने, नहाने और यहां तक कि सिंचाई के योग्य भी नहीं है. नरेंद्र मोदी के अपने चुनाव क्षेत्र वाराणसी में तो समस्या सबसे विकराल है.

(कानपुर के जाजनऊ में चमड़ा कारखाने से निकले पशुओं की बेकार खाल के पास खड़ा एक बच्चा)
चिता की चिंता
''दूसरे शहरों में लोग जिंदगी ढूंढने जाते हैं...मगर बनारस में तो मरने के लिए आते हैं. '' मूल रूप से केरल के निवासी, लेकिन वाराणसी में पले-बढ़े के.के. मणि हिंदुओं के इस सबसे पवित्र तीर्थस्थल पर 10,000 से ज्यादा मित्रों, रिश्तेदारों और मोक्ष पाने की चाह में यहां आने वालों का अंतिम संस्कार देख चुके हैं.
अंतिम संस्कार भले ही इस नदी में प्रदूषण का सबसे बड़ा स्रोत न हो, लेकिन वह सबसे ज्यादा आंखों को चुभने वाला जरूर है. काशी हिंदू विश्वविद्यालय (बीएचयू) के सेंटर फॉर एनवॉयरनमेंटल साइंस ऐंड टेक्नोलॉजी (सीईएसटी) के कराए गए एक अध्ययन के मुताबिक, 12 महीने में 33,000 दाह संस्कार किए गए, जिनमें 16,000 टन जलावन लकड़ी का इस्तेमाल किया गया. सीईएसटी का अनुमान है कि 700 टन से ज्यादा राख और अधजले कंकाल गंगा में प्रवाहित किए गए. शहर से बाहर 10 किमी की दूरी तक गंगा में 3,250 इंसानी शव और 6,000 से ज्यादा जानवरों के शव बहाए गए. यह संख्या हर साल बढ़ती जा रही है.
गंगा की सबसे संकरी धारा के किनारे पर बने घाटों पर शहर भर का निकलने वाला नगरपालिका का कूड़ा नदी में डाल दिया जाता है, जल-मल की तो बात अभी दूर है. कूड़े और नालों से उठती भारी दुर्गंध के बीच इंडिया टुडे के संवाददाता और फोटोग्राफर ने 18 जून को रेतीले किनारे पर बहकर आए 10 मानव शवों को देखा. बीएचयू में पर्यावरण विज्ञान के प्रोफेसर और एनजीआरबीए के संस्थापक विशेषज्ञों में एक ब्रह्म दत्त त्रिपाठी कहते हैं, ''शवों का दाह संस्कार करना यहां लोगों की रोजी-रोटी है. '' वे बताते हैं कि एक अनुमान के मुताबिक, बनारस के करीब 14.3 लाख निवासी अंतिम संस्कार के धंधे पर निर्भर हैं.
वाराणसी में आधिकारिक तौर पर निर्धारित हरिश्चंद्र और मणिकर्णिका घाट पर अंतिम यात्रा के जुलूस का सिलसिला लगातार चलता रहता है. यहां के 50 वर्षीय डोम (दाह संस्कार कराने वाले) सेहारी चौधरी कहते हैं, ''यह काम पूरे साल चौबीसों घंटे चलता रहता है.'' वे हरिश्चंद्र घाट पर दाह संस्कार का इंतजार करने वाले दर्जन भर परिवारों को देखकर काफी खुश हैं. लोक मान्यता के अनुसार सदियों पुरानी पीढ़ी के डोम पंडितों ने हिंदू राजा हरिश्चंद्र द्वारा इस्तेमाल की गई चिता की अग्नि को आज तक सुरक्षित रखा है, जिनकी प्रसिद्घि सत्य के लिए अपना सब कुछ न्योछावर करने के लिए है और उन्होंने अंत में डोम राजा के यहां नौकरी कर ली थी. चौधरी पूरे दिन और कभी-कभी रात में भी दाह संस्कार संपन्न कराते हैं. इसके बाद नदी का पानी डालकर चिता को ठंडा करते हैं और फिर राख गंगा में प्रवाहित कर देते हैं. लेकिन उसके पहले वे और उनके परिवार के लोग गंगा में डुबकी लगाते हैं और राख के साथ पानी में गिरने वाले कीमती सामान, जिनमें आमतौर पर शव के दांत में मढ़ा सोना होता है, को खोजते हैं. चौधरी कहते हैं कि वाराणसी में दाह संस्कार के लिए लाए जाने वाले ज्यादातर शव बहुत दूर के इलाकों जैसे बिहार, झरखंड, यहां तक कि आंध्र प्रदेश से होते हैं. वे कहते हैं, ''श्रद्धालु हिंदुओं का मानना है कि यहां अंतिम संस्कार होने पर उन्हें मोक्ष प्राप्त होगा. ''
एक मल्लाह कनियाही सहानी बीच में बोलते हुए बताते हैं, ''जापान और अमेरिका से भी बॉडी आता है यहां. '' वे अपनी नाव से मणिकर्णिका घाट, जहां ''किसी भी समय यहां से दोगुनी चिताएं जलती हुई देखी जा सकती हैं, नौका की यादगार सवारी'' कराने का वादा करते हैं.
वाराणसी में शवों का दाह संस्कार पर्यटन का भी एक बड़ा अवसर है. बड़ी संख्या में विदेशी सैलानी इन दो घाटों पर एक ही जगह, मृत्यु और निर्वाण, देखने के लिए आते हैं. अर्जेंटीना की 45 वर्षीया नर्स और पार्ट-टाइम अभिनेत्री फर्नांडा शिव-पार्वती की तस्वीर वाली टी-शर्ट, जिसे उन्होंने ब्यूनस आयर्स में खरीदा था, पहनकर मणिकर्णिका घाट पर घंटे भर से भी ज्यादा समय से दाह संस्कार देख रही हैं. वे कहती हैं, ''बनारस में मेरे लिए यह सबसे शांतिदायक जगह है. ''
लेकिन अंतिम संस्कार ही एकमात्र समस्या नहीं है, या इंसानी शवों और जानवरों के शवों का जल प्रवाह भी उतनी बड़ी
समस्या नहीं है. इससे बड़ी समस्या शहर का जल-मल है. वाराणसी में रोज 40 करोड़ लीटर गंदा पानी निकलता है. इस शहर में गंदे पानी के सिर्फ तीन ट्रीटमेंट प्लांट दीनापुर, भगवानपुर और डीजल लोकोमोटिव वर्क्स के पास वाली जगह पर हैं. ये प्लांट सिर्फ 10.2 करोड़ ली. पानी का ही ट्रीटमेंट कर सकते हैं. इसलिए करीब 30 करोड़ ली. गंदा पानी रोज सीधे गंगा में डाल दिया जाता है.
त्रिपाठी बताते हैं कि इलाके में ट्रीटमेंट की सुविधा न होने से करीब 1,000 कारखाने—साड़ी प्रिंटिंग, निकेल और क्रोम प्लेटिंग—अपना कूड़ा और दूषित पानी नगरपालिका के नालों में डाल देते हैं, जिनमें हानिकारक धातु, जैसे शीशा, कैडमियम, क्रोमियम, तांबा आदि मिला होता है. वे कहते हैं, इससे सीवेज ट्रीटमेंट तकनीक और भी बेकार हो जाती है.
वाराणसी के संकटमोचन फाउंडेशन, जो एक दशक से असफल रूप से ही सही स्वच्छ गंगा अभियान चला रहा है, की 1992 में स्थापित एक स्वतंत्र प्रयोगशाला की रिपोर्ट के अनुसार शहर से गुजरने वाली गंगा का पानी विषैले स्तर पर पहुंच गया है. संकटमोचन मंदिर के महंत और आइआइटी-बीएचयू में इलेक्ट्रॉनिक्स के प्रोफेसर विश्वंभर नाथ मिश्र कहते हैं, ''यह नदी जब वरुणा नदी के साथ जब मिलती है, तो गंगा के पानी में फीकल कोलीफार्म (एक बैक्टीरिया) की संख्या प्रति 100 मिली पानी में 15 लाख तक पहुंच जाती है. '' बनारस की वरुणा और अस्सी नदियां अब नालों में तब्दील हो चुकी हैं. कहते तो यह हैं कि कभी इनमें मीठा पानी बहता था. गंगा में इनके मिलने से ही इसका नाम काशी पड़ा था. लेकिन आज इनमें विष की बहती धारा गंगा को प्रदूषित करती है. इस विष की सबसे बड़ी वजह यह है कि 33 जगहों पर निरंतर गंदा पानी नदी में बहाया जाता है. मुगलसराय की ओर पुराने दोमंजिला लोहे के पुल से थोड़ा आगे खिरकिया घाट पर गंगा में गंदा पानी पूरी रफ्तार से ऐसे गिरता है, मानो कोई नदी आकर मिलती हो.
वाराणसी के दशाश्वमेध घाट पर हर रोज शाम को होने वाली गंगा आरती से पहले 1980 के दशक में बनी राजकपूर की फिल्म राम तेरी गंगा मैली का शीर्षक गाना बजाया जाता है. मिश्र इस बात पर दुख जताते हैं कि वाराणसी, जिसका अस्तित्व गंगा पर निर्भर है, अपनी ही जीवनधारा का गला घोंटती जा रही है.

बहता नाला
कानपुर की ओर 400 किमी उलटा जाने पर गंगा की दशा सबसे दयनीय दिखती है. इस शहर के साथ गंगा का ''गतिशील'' संबंध अब बमुश्किल ही रह गया है. कानपुर एक औद्योगिक शहर है, जिसकी स्थापना 1801 में अंग्रेजी सेना के लिए जूते, घोड़े पर बैठने की जीन और हथियार बनाने के लिए की गई थी. यह शहर औद्योगिक उत्पादन करता है और गंगा उसके लिए पानी की जरूरत पूरी करती है. बेहद दुख की बात है कि इस नदी का इस्तेमाल औद्योगिक अवशेषों को फेंकने के लिए किया जाता है. इन अवशेषों में विषैले पदार्थों की मात्रा सबसे ज्यादा होती है. इनमें खतरनाक मात्रा में हेक्सावैलेंट क्रोमियम (या क्रोमियम-6) मिला होता है, जो कैंसर पैदा करने वाला तत्व है. अध्ययनों से पता चलता है कि क्रोमियम, जो कि शहर के 400 से ज्यादा चमड़ा कारखानों से निकलने वाला खतरनाक पदार्थ है, अब यहां भूजल और उसके जरिए खाद्य श्रंखला का हिस्सा बन सकता है. यानी आसपास के खेतों में जो कुछ अनाज या फल-सब्जी उपजेगा, उसमें ये विषैले तत्व होंगे और इस तरह यह लोगों के शरीर में पहुंचकर घातक असर पैदा करेगा.
कानपुर के क्राइस्ट चर्च कॉलेज के विशेषज्ञ 56 वर्षीय राकेश जायसवाल कहते हैं, ''हम तो निराश हो चुके हैं.'' उन्होंने 1990 के दशक के शुरू में, स्वच्छ गंगा अभियान के लिए इको फ्रेंड्स नाम से संगठन की स्थापना की थी. वे स्वीकार करते हैं कि सरकारों और उद्योगों के मालिकों पर सफाई के लिए दबाव डालने की उनकी कोशिश नाकाम साबित हुई है. वे कहते हैं, ''यहां गंगा सबसे ज्यादा मैली है. '' राजीव गांधी से लेकर मनमोहन सिंह तक कई प्रधानमंत्रियों की कोशिशों को असफल होते देखने और करोड़ों रुपए खर्च होने के बाद जायसवाल कहते हैं कि उन्हें अब भी उम्मीद है, लेकिन मोदी अपने वादे पर कितना अमल कर पाते हैं, यह देखने वाली बात होगी.
उत्तर प्रदेश का सबसे बड़ा शहर कानपुर, जिसकी आबादी 27 लाख से भी ज्यादा है, रोज 50 करोड़ ली. गंदा पानी गंगा में डालता है. जायसवाल कहते हैं कि यह अनुमान शहर में नदी, लोवर गंगा कैनाल और भूजल से प्राप्त होने वाले पानी की खपत पर आधारित है. चिंता की बात है कि इसका 70 प्रतिशत हिस्सा बिना किसी ट्रीटमेंट के सीधे गंगा में बहा दिया जाता है.
तीन जगहों—भीमगौड़ा (हरिद्वार), रावली (बिजनौर) और नरौरा—पर बड़े बैराजों के कारण इसका स्वाभाविक प्रवाह 95 प्रतिशत तक बाधित होने के बाद कानपुर में नगरपालिका का गंदा पानी मिलने से यह नदी लगभग पूरी तरह गंदे नाले में तब्दील हो जाती है. परमत घाट पर स्थित अत्यंत प्रतिष्ठित शिव मंदिर आनंदेश्वर से एक किमी उलटी दिशा में सीसामऊ नाला गंगा में रोज 10 करोड़ ली. से ज्यादा गंदा पानी डालता है. यह नजारा बहुत तकलीफदेह है: गंदे पानी की मोटी धार नदी में गिर रही है और 10-12 साल के लड़के उसमें डुबकियां लगा रहे हैं. लगता है, उनमें से किसी को दुर्गंध नहीं आ रही है. पचास वर्षीय राजेश मल्लाह को यहां के पानी को पीने या उसमें कपड़े धोने से कोई परहेज नहीं है. अपने गमछे से मुंह साफ करते हुए वे कहते हैं, ''हम तो बाबूजी गंगा के कीड़े हैं. बीमार नहीं होते हैं. ''
गंदे पानी के अलावा कानपुर में कई औद्योगिक जहरीले पदार्थ भी गंगा में बहा दिए जाते हैं, जो मल्लाह को भी बीमार कर सकते हैं और उनकी मौत भी हो सकती है. शहर के अंत में कैंट से आगे जाने पर जाजमऊ में चमड़े के 400 से ज्यादा कारखाने हैं. इनमें ज्यादातर कारखाने, जिनमें घरों में चलाए जाने वाले बिना पंजीकृत छोटे कारखाने भी शामिल हैं, ऐसे तरीकों का इस्तेमाल करते हैं, जिनमें क्रोमियम का इस्तेमाल किया जाता है और इसके परिणामस्वरूप जो अवशेष निकलता है, उसमें पानी, जानवरों का चमड़ा और कैंसर पैदा करने वाला क्रोमियम-6 मौजूद होता है.
सेंट्रल लेदर रिसर्च इंस्टीट्यूट (सीएलआरआइ) का अनुमान है कि चमड़े के ये कारखाने हर रोज 4-5 करोड़ ली. ब्लू क्रोमियम से युक्त गंदा पानी पैदा करते हैं, लेकिन एकमात्र सीईटीपी (कॉमन एफ्लुएंट ट्रीटमेंट प्लांट), जिसे जीएपी-1 के अंग के तौर पर 1990 के दशक के शुरू में स्थापित किया गया था, सिर्फ 90 लाख ली. पानी रोजाना शुद्ध करने की क्षमता रखता है. उत्तर प्रदेश जल निगम के सीईटीपी और जाजमऊ में दो सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट में प्रोसेस केमिस्ट 45 वर्षीय अजय कनौजिया कहते हैं, ''बाकी का 3-4 करोड़ ली. पानी नालों के जरिए रोज सीधे गंगा में प्रवाहित कर दिया जाता है. '' वे कहते हैं, यहां तक कि एक करोड़ ली. तक पानी जो रोजाना परिवहन के जरिए सीईटीपी
तक पहुंचता है, उसमें भी क्रोमियम-6 मिला होता है, जिसका घातक असर होता है और उसे कतई अस्वीकार्य माना जाता है. 1998 में इलाहाबाद हाइकोर्ट ने सभी बड़े चमड़ा कारखानों को आदेश दिया था कि वे अपने कारखानों में ही क्रोमियम छांटने की इकाइयां लगाएं. इसके बावजूद धड़ल्ले से ऐसा हो रहा है. अप्रैल में आइआइटी-कानपुर के विनोद तारे की ताजा छमाही जांच से पता चलता है कि सीईटीपी तक पहुंचने वाले गंदे पानी में प्रति लीटर 200 मिलीग्राम मिला होता है. कनौजिया को यह भी संदेह है कि चमड़े के बहुत से छोटे कारखानों ने चुपके से नगरपालिका के सीवरों में छेद करके अपने अवशेष डाल दिए हैं. वे कहते हैं, ''ट्रीटमेंट के लिए आने वाले सीवेज में भी क्रोमियम की मात्रा खतरनाक स्तर तक मिली होती है. ''
हालांकि जल निगम के अधिकारी सार्वजनिक रूप से यह स्वीकार नहीं करेंगे, लेकिन सीईटीपी और एसटीपी, जो पुरानी तकनीकी का इस्तेमाल करते हैं, ज्यादातर विषैला तत्व एक नहर में डाल देते हैं, जिससे गंगा के किनारे बसे गांवों में करीब 2,500 हेक्टेयर खेत की सिंचाई होती है. इन गांवों से ही कानपुर शहर में दूध और सब्जियों की आपूर्ति होती है.
जाजमऊ से 5 किमी दूर मोतीपुर में जो पानी पहुंचता है, वह तैलीय हरे रंग का झगदार और गंधक की दुर्गंध वाला होता है. यहां कभी गुलाब और चमेली के खेत होते थे, लेकिन अब वे वीरान हैं.
दूध का उत्पादन आधा हो गया है और भैंसें मरियल दिखाई देती हैं. यहां के 69 वर्षीय किसान बिसराम यादव कहते हैं, ''नहर में नाले का पानी आने के बाद से हर साल यही हाल रहता है. उन्हें मालूम है कि बारिश नहीं हुई तो उनके धान की फसल खराब होने वाली है. गांव के दूसरे किसान कहते हैं कि जाड़े में गेहूं की फसल, जो कभी बहुत अच्छी होती थी, अब बेकार हो चुकी है और चारे के काम आती है. गांव के 56 वर्षीय डॉक्टर परशुराम यादव, जो मोतीपुर के अलावा 15 गांवों का दौरा करते हैं, कहते हैं कि प्रदूषित पानी कैंसर सहित पेट और त्वचा की बीमारियां पैदा कर रहा है. बिसराम यादव बताते हैं कि उनके पैरों में हमेशा खुजलाहट होती रहती है. वे कहते हैं, ''डॉक्टर कहता है कि हमारा खून खराब हो चुका है.''
आइआइटी-कानपुर के एक गहन अध्ययन से पता चलता है कि क्रोमियम-6 और कई अन्य भारी धातुएं—कैडमियम, पारा—इन गांवों की भोजन शृंखला में प्रवेश कर चुकी हैं. जायसवाल कहते हैं कि यह प्रदूषण दूध और सब्जियों के जरिए कानपुर के निवासियों तक पहुंच रहा है. जाजमऊ में एसटीपी से सटे एक मदरसे के बच्चों ने एक खेल का मैदान बना रखा है, जहां जहरीले क्रोमियम की मात्रा हो सकती है. यहां पर चमड़ा कारखानों के कूड़े का भारी ढेर नदी के किनारे धूप में सूख रहा होता है. 45 वर्षीय शम्सुद्दीन, जो नंगे हाथों से कूड़ा-करकट उठाकर ट्रॉली में भरते हैं और प्रति ट्रॉली 100 रु. कमाते हैं, कहते हैं, ''मेरे लिए इसके अलावा कमाई का दूसरा कोई काम नहीं है. '' लेकिन शम्सुद्दीन और मदरसा के बच्चों को शायद पता नहीं है कि बारिश होने पर कूड़े में मिला खतरनाक क्रोमियम जब गंगा में चला जाता है तो लाखों लोगों की जिंदगी खतरे में पड़ सकती है.
इस अभियान की शुरुआत के तौर पर 7 जुलाई को मोदी सरकार की जल संसाधन एवं गंगा पुनरुत्थान मंत्री उमा भारती गंगा को बचाने के उद्देश्य से 200 से ज्यादा पर्यावरणविदों, वैज्ञानिकों, नीति-निर्माताओं, स्वयंसेवकों और साधुओं के साथ बैठक करेंगी. कई वर्षों से स्वच्छ गंगा अभियान से जुड़ी रहीं उमा भारती कहती हैं कि गंगा की शुद्धता और उसके प्रवाह दोनों को फिर से स्थापित करना ही उनके जीवन का मिशन है. पचास करोड़ लोगों को जीवन देने वाली यह विशाल नदी अब अपने अतीत की दुर्बल छाया बनकर रह गई है. उत्तराखंड के हिमालय में गंगोत्री से निकलने वाली इस नदी का 90 से 95 प्रतिशत प्राकृतिक प्रवाह बांधों और करीब सौ शहरों के नालों से हर रोज निकलने वाले तीन अरब लीटर गंदे पानी के कारण बाधित हो चुका है. इसके अलावा भारी मात्रा में कारखानों के विषैले पदार्थ और इंसानों व जानवरों के हजारों शव इसे अनवरत प्रदूषित करते रहते हैं.
राजीव गांधी ने 14 जून, 1986 को अपनी महत्वाकांक्षी गंगा कार्य योजना (जीएपी) का उद्घाटन किया था, तब से करीब तीन दशक बाद भी गंगा की आज यह दशा है. जीएपी-1, जिसे 2000 में पूर्ण घोषित कर दिया गया था और जीएपी-2, जिसे 1993 और 1996 के बीच कई चरणों में शुरू किया गया था, दोनों ही नदी का स्वास्थ्य सुधारने के अपने शुरुआती मकसद में भी विफल रहीं. उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, बिहार, झरखंड और पश्चिम बंगाल में प्रदूषण घटाने की करीब 460 योजनाओं पर 1,500 करोड़ रु. और जवाहरलाल नेहरू नेशनल अर्बन रिनीवल मिशन पर करोड़ों रु. खर्च होने के बावजूद समस्या कम होने के बजाए बढ़ी ही है.
गंगा की सफाई यूपीए सरकार की प्राथमिकताओं में शायद नहीं थी, जो अपने दूसरे कार्यकाल में नीतियों के मामले में पंगु हो गई थी. हालांकि 2008 में गंगा को राष्ट्रीय नदी घोषित कर दिया गया था और 2009 में प्रधानमंत्री के अधीन नेशनल गंगा रीवर बेसिन अथॉरिटी (एनजीआरबीए) का गठन किया गया था, लेकिन लापरवाही और सुस्ती के कारण कुछ भी काम नहीं हुआ. एनजीआरबीए ने पिछले पांच साल में सिर्फ तीन बार बैठकें कीं. एक सदस्य का तो यह भी कहना है कि 17 अप्रैल, 2012 को होने वाली आखिरी बैठक किसी चर्चा के बिना ही समाप्त हो गई. इससे यूपीए सरकार की लापरवाही और सुस्ती का ही संकेत नहीं मिलता, बल्कि इस अभियान के प्रति उसका उपेक्षा भाव भी जाहिर होता है.
उत्तराखंड में गोमुख से बंगाल की खाड़ी तक 2,525 किमी. के लंबे सफर में गंगा की गिनती दुनिया की 10 सबसे ज्यादा प्रदूषित नदियों में होती है. कभी इसके निर्मल जल को रोगों से मुक्त करने वाले चमत्कारी गुणों से भरपूर माना जाता था, लेकिन आज अधिकतर जगहों पर इसका जल पीने, नहाने और यहां तक कि सिंचाई के योग्य भी नहीं है. नरेंद्र मोदी के अपने चुनाव क्षेत्र वाराणसी में तो समस्या सबसे विकराल है.

(कानपुर के जाजनऊ में चमड़ा कारखाने से निकले पशुओं की बेकार खाल के पास खड़ा एक बच्चा)
चिता की चिंता
''दूसरे शहरों में लोग जिंदगी ढूंढने जाते हैं...मगर बनारस में तो मरने के लिए आते हैं. '' मूल रूप से केरल के निवासी, लेकिन वाराणसी में पले-बढ़े के.के. मणि हिंदुओं के इस सबसे पवित्र तीर्थस्थल पर 10,000 से ज्यादा मित्रों, रिश्तेदारों और मोक्ष पाने की चाह में यहां आने वालों का अंतिम संस्कार देख चुके हैं.
अंतिम संस्कार भले ही इस नदी में प्रदूषण का सबसे बड़ा स्रोत न हो, लेकिन वह सबसे ज्यादा आंखों को चुभने वाला जरूर है. काशी हिंदू विश्वविद्यालय (बीएचयू) के सेंटर फॉर एनवॉयरनमेंटल साइंस ऐंड टेक्नोलॉजी (सीईएसटी) के कराए गए एक अध्ययन के मुताबिक, 12 महीने में 33,000 दाह संस्कार किए गए, जिनमें 16,000 टन जलावन लकड़ी का इस्तेमाल किया गया. सीईएसटी का अनुमान है कि 700 टन से ज्यादा राख और अधजले कंकाल गंगा में प्रवाहित किए गए. शहर से बाहर 10 किमी की दूरी तक गंगा में 3,250 इंसानी शव और 6,000 से ज्यादा जानवरों के शव बहाए गए. यह संख्या हर साल बढ़ती जा रही है.
गंगा की सबसे संकरी धारा के किनारे पर बने घाटों पर शहर भर का निकलने वाला नगरपालिका का कूड़ा नदी में डाल दिया जाता है, जल-मल की तो बात अभी दूर है. कूड़े और नालों से उठती भारी दुर्गंध के बीच इंडिया टुडे के संवाददाता और फोटोग्राफर ने 18 जून को रेतीले किनारे पर बहकर आए 10 मानव शवों को देखा. बीएचयू में पर्यावरण विज्ञान के प्रोफेसर और एनजीआरबीए के संस्थापक विशेषज्ञों में एक ब्रह्म दत्त त्रिपाठी कहते हैं, ''शवों का दाह संस्कार करना यहां लोगों की रोजी-रोटी है. '' वे बताते हैं कि एक अनुमान के मुताबिक, बनारस के करीब 14.3 लाख निवासी अंतिम संस्कार के धंधे पर निर्भर हैं.
वाराणसी में आधिकारिक तौर पर निर्धारित हरिश्चंद्र और मणिकर्णिका घाट पर अंतिम यात्रा के जुलूस का सिलसिला लगातार चलता रहता है. यहां के 50 वर्षीय डोम (दाह संस्कार कराने वाले) सेहारी चौधरी कहते हैं, ''यह काम पूरे साल चौबीसों घंटे चलता रहता है.'' वे हरिश्चंद्र घाट पर दाह संस्कार का इंतजार करने वाले दर्जन भर परिवारों को देखकर काफी खुश हैं. लोक मान्यता के अनुसार सदियों पुरानी पीढ़ी के डोम पंडितों ने हिंदू राजा हरिश्चंद्र द्वारा इस्तेमाल की गई चिता की अग्नि को आज तक सुरक्षित रखा है, जिनकी प्रसिद्घि सत्य के लिए अपना सब कुछ न्योछावर करने के लिए है और उन्होंने अंत में डोम राजा के यहां नौकरी कर ली थी. चौधरी पूरे दिन और कभी-कभी रात में भी दाह संस्कार संपन्न कराते हैं. इसके बाद नदी का पानी डालकर चिता को ठंडा करते हैं और फिर राख गंगा में प्रवाहित कर देते हैं. लेकिन उसके पहले वे और उनके परिवार के लोग गंगा में डुबकी लगाते हैं और राख के साथ पानी में गिरने वाले कीमती सामान, जिनमें आमतौर पर शव के दांत में मढ़ा सोना होता है, को खोजते हैं. चौधरी कहते हैं कि वाराणसी में दाह संस्कार के लिए लाए जाने वाले ज्यादातर शव बहुत दूर के इलाकों जैसे बिहार, झरखंड, यहां तक कि आंध्र प्रदेश से होते हैं. वे कहते हैं, ''श्रद्धालु हिंदुओं का मानना है कि यहां अंतिम संस्कार होने पर उन्हें मोक्ष प्राप्त होगा. ''
एक मल्लाह कनियाही सहानी बीच में बोलते हुए बताते हैं, ''जापान और अमेरिका से भी बॉडी आता है यहां. '' वे अपनी नाव से मणिकर्णिका घाट, जहां ''किसी भी समय यहां से दोगुनी चिताएं जलती हुई देखी जा सकती हैं, नौका की यादगार सवारी'' कराने का वादा करते हैं.
वाराणसी में शवों का दाह संस्कार पर्यटन का भी एक बड़ा अवसर है. बड़ी संख्या में विदेशी सैलानी इन दो घाटों पर एक ही जगह, मृत्यु और निर्वाण, देखने के लिए आते हैं. अर्जेंटीना की 45 वर्षीया नर्स और पार्ट-टाइम अभिनेत्री फर्नांडा शिव-पार्वती की तस्वीर वाली टी-शर्ट, जिसे उन्होंने ब्यूनस आयर्स में खरीदा था, पहनकर मणिकर्णिका घाट पर घंटे भर से भी ज्यादा समय से दाह संस्कार देख रही हैं. वे कहती हैं, ''बनारस में मेरे लिए यह सबसे शांतिदायक जगह है. ''
लेकिन अंतिम संस्कार ही एकमात्र समस्या नहीं है, या इंसानी शवों और जानवरों के शवों का जल प्रवाह भी उतनी बड़ी
समस्या नहीं है. इससे बड़ी समस्या शहर का जल-मल है. वाराणसी में रोज 40 करोड़ लीटर गंदा पानी निकलता है. इस शहर में गंदे पानी के सिर्फ तीन ट्रीटमेंट प्लांट दीनापुर, भगवानपुर और डीजल लोकोमोटिव वर्क्स के पास वाली जगह पर हैं. ये प्लांट सिर्फ 10.2 करोड़ ली. पानी का ही ट्रीटमेंट कर सकते हैं. इसलिए करीब 30 करोड़ ली. गंदा पानी रोज सीधे गंगा में डाल दिया जाता है.
त्रिपाठी बताते हैं कि इलाके में ट्रीटमेंट की सुविधा न होने से करीब 1,000 कारखाने—साड़ी प्रिंटिंग, निकेल और क्रोम प्लेटिंग—अपना कूड़ा और दूषित पानी नगरपालिका के नालों में डाल देते हैं, जिनमें हानिकारक धातु, जैसे शीशा, कैडमियम, क्रोमियम, तांबा आदि मिला होता है. वे कहते हैं, इससे सीवेज ट्रीटमेंट तकनीक और भी बेकार हो जाती है.
वाराणसी के संकटमोचन फाउंडेशन, जो एक दशक से असफल रूप से ही सही स्वच्छ गंगा अभियान चला रहा है, की 1992 में स्थापित एक स्वतंत्र प्रयोगशाला की रिपोर्ट के अनुसार शहर से गुजरने वाली गंगा का पानी विषैले स्तर पर पहुंच गया है. संकटमोचन मंदिर के महंत और आइआइटी-बीएचयू में इलेक्ट्रॉनिक्स के प्रोफेसर विश्वंभर नाथ मिश्र कहते हैं, ''यह नदी जब वरुणा नदी के साथ जब मिलती है, तो गंगा के पानी में फीकल कोलीफार्म (एक बैक्टीरिया) की संख्या प्रति 100 मिली पानी में 15 लाख तक पहुंच जाती है. '' बनारस की वरुणा और अस्सी नदियां अब नालों में तब्दील हो चुकी हैं. कहते तो यह हैं कि कभी इनमें मीठा पानी बहता था. गंगा में इनके मिलने से ही इसका नाम काशी पड़ा था. लेकिन आज इनमें विष की बहती धारा गंगा को प्रदूषित करती है. इस विष की सबसे बड़ी वजह यह है कि 33 जगहों पर निरंतर गंदा पानी नदी में बहाया जाता है. मुगलसराय की ओर पुराने दोमंजिला लोहे के पुल से थोड़ा आगे खिरकिया घाट पर गंगा में गंदा पानी पूरी रफ्तार से ऐसे गिरता है, मानो कोई नदी आकर मिलती हो.
वाराणसी के दशाश्वमेध घाट पर हर रोज शाम को होने वाली गंगा आरती से पहले 1980 के दशक में बनी राजकपूर की फिल्म राम तेरी गंगा मैली का शीर्षक गाना बजाया जाता है. मिश्र इस बात पर दुख जताते हैं कि वाराणसी, जिसका अस्तित्व गंगा पर निर्भर है, अपनी ही जीवनधारा का गला घोंटती जा रही है.

बहता नाला
कानपुर की ओर 400 किमी उलटा जाने पर गंगा की दशा सबसे दयनीय दिखती है. इस शहर के साथ गंगा का ''गतिशील'' संबंध अब बमुश्किल ही रह गया है. कानपुर एक औद्योगिक शहर है, जिसकी स्थापना 1801 में अंग्रेजी सेना के लिए जूते, घोड़े पर बैठने की जीन और हथियार बनाने के लिए की गई थी. यह शहर औद्योगिक उत्पादन करता है और गंगा उसके लिए पानी की जरूरत पूरी करती है. बेहद दुख की बात है कि इस नदी का इस्तेमाल औद्योगिक अवशेषों को फेंकने के लिए किया जाता है. इन अवशेषों में विषैले पदार्थों की मात्रा सबसे ज्यादा होती है. इनमें खतरनाक मात्रा में हेक्सावैलेंट क्रोमियम (या क्रोमियम-6) मिला होता है, जो कैंसर पैदा करने वाला तत्व है. अध्ययनों से पता चलता है कि क्रोमियम, जो कि शहर के 400 से ज्यादा चमड़ा कारखानों से निकलने वाला खतरनाक पदार्थ है, अब यहां भूजल और उसके जरिए खाद्य श्रंखला का हिस्सा बन सकता है. यानी आसपास के खेतों में जो कुछ अनाज या फल-सब्जी उपजेगा, उसमें ये विषैले तत्व होंगे और इस तरह यह लोगों के शरीर में पहुंचकर घातक असर पैदा करेगा.
कानपुर के क्राइस्ट चर्च कॉलेज के विशेषज्ञ 56 वर्षीय राकेश जायसवाल कहते हैं, ''हम तो निराश हो चुके हैं.'' उन्होंने 1990 के दशक के शुरू में, स्वच्छ गंगा अभियान के लिए इको फ्रेंड्स नाम से संगठन की स्थापना की थी. वे स्वीकार करते हैं कि सरकारों और उद्योगों के मालिकों पर सफाई के लिए दबाव डालने की उनकी कोशिश नाकाम साबित हुई है. वे कहते हैं, ''यहां गंगा सबसे ज्यादा मैली है. '' राजीव गांधी से लेकर मनमोहन सिंह तक कई प्रधानमंत्रियों की कोशिशों को असफल होते देखने और करोड़ों रुपए खर्च होने के बाद जायसवाल कहते हैं कि उन्हें अब भी उम्मीद है, लेकिन मोदी अपने वादे पर कितना अमल कर पाते हैं, यह देखने वाली बात होगी.
उत्तर प्रदेश का सबसे बड़ा शहर कानपुर, जिसकी आबादी 27 लाख से भी ज्यादा है, रोज 50 करोड़ ली. गंदा पानी गंगा में डालता है. जायसवाल कहते हैं कि यह अनुमान शहर में नदी, लोवर गंगा कैनाल और भूजल से प्राप्त होने वाले पानी की खपत पर आधारित है. चिंता की बात है कि इसका 70 प्रतिशत हिस्सा बिना किसी ट्रीटमेंट के सीधे गंगा में बहा दिया जाता है.
तीन जगहों—भीमगौड़ा (हरिद्वार), रावली (बिजनौर) और नरौरा—पर बड़े बैराजों के कारण इसका स्वाभाविक प्रवाह 95 प्रतिशत तक बाधित होने के बाद कानपुर में नगरपालिका का गंदा पानी मिलने से यह नदी लगभग पूरी तरह गंदे नाले में तब्दील हो जाती है. परमत घाट पर स्थित अत्यंत प्रतिष्ठित शिव मंदिर आनंदेश्वर से एक किमी उलटी दिशा में सीसामऊ नाला गंगा में रोज 10 करोड़ ली. से ज्यादा गंदा पानी डालता है. यह नजारा बहुत तकलीफदेह है: गंदे पानी की मोटी धार नदी में गिर रही है और 10-12 साल के लड़के उसमें डुबकियां लगा रहे हैं. लगता है, उनमें से किसी को दुर्गंध नहीं आ रही है. पचास वर्षीय राजेश मल्लाह को यहां के पानी को पीने या उसमें कपड़े धोने से कोई परहेज नहीं है. अपने गमछे से मुंह साफ करते हुए वे कहते हैं, ''हम तो बाबूजी गंगा के कीड़े हैं. बीमार नहीं होते हैं. ''
गंदे पानी के अलावा कानपुर में कई औद्योगिक जहरीले पदार्थ भी गंगा में बहा दिए जाते हैं, जो मल्लाह को भी बीमार कर सकते हैं और उनकी मौत भी हो सकती है. शहर के अंत में कैंट से आगे जाने पर जाजमऊ में चमड़े के 400 से ज्यादा कारखाने हैं. इनमें ज्यादातर कारखाने, जिनमें घरों में चलाए जाने वाले बिना पंजीकृत छोटे कारखाने भी शामिल हैं, ऐसे तरीकों का इस्तेमाल करते हैं, जिनमें क्रोमियम का इस्तेमाल किया जाता है और इसके परिणामस्वरूप जो अवशेष निकलता है, उसमें पानी, जानवरों का चमड़ा और कैंसर पैदा करने वाला क्रोमियम-6 मौजूद होता है.
सेंट्रल लेदर रिसर्च इंस्टीट्यूट (सीएलआरआइ) का अनुमान है कि चमड़े के ये कारखाने हर रोज 4-5 करोड़ ली. ब्लू क्रोमियम से युक्त गंदा पानी पैदा करते हैं, लेकिन एकमात्र सीईटीपी (कॉमन एफ्लुएंट ट्रीटमेंट प्लांट), जिसे जीएपी-1 के अंग के तौर पर 1990 के दशक के शुरू में स्थापित किया गया था, सिर्फ 90 लाख ली. पानी रोजाना शुद्ध करने की क्षमता रखता है. उत्तर प्रदेश जल निगम के सीईटीपी और जाजमऊ में दो सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट में प्रोसेस केमिस्ट 45 वर्षीय अजय कनौजिया कहते हैं, ''बाकी का 3-4 करोड़ ली. पानी नालों के जरिए रोज सीधे गंगा में प्रवाहित कर दिया जाता है. '' वे कहते हैं, यहां तक कि एक करोड़ ली. तक पानी जो रोजाना परिवहन के जरिए सीईटीपी
तक पहुंचता है, उसमें भी क्रोमियम-6 मिला होता है, जिसका घातक असर होता है और उसे कतई अस्वीकार्य माना जाता है. 1998 में इलाहाबाद हाइकोर्ट ने सभी बड़े चमड़ा कारखानों को आदेश दिया था कि वे अपने कारखानों में ही क्रोमियम छांटने की इकाइयां लगाएं. इसके बावजूद धड़ल्ले से ऐसा हो रहा है. अप्रैल में आइआइटी-कानपुर के विनोद तारे की ताजा छमाही जांच से पता चलता है कि सीईटीपी तक पहुंचने वाले गंदे पानी में प्रति लीटर 200 मिलीग्राम मिला होता है. कनौजिया को यह भी संदेह है कि चमड़े के बहुत से छोटे कारखानों ने चुपके से नगरपालिका के सीवरों में छेद करके अपने अवशेष डाल दिए हैं. वे कहते हैं, ''ट्रीटमेंट के लिए आने वाले सीवेज में भी क्रोमियम की मात्रा खतरनाक स्तर तक मिली होती है. ''
हालांकि जल निगम के अधिकारी सार्वजनिक रूप से यह स्वीकार नहीं करेंगे, लेकिन सीईटीपी और एसटीपी, जो पुरानी तकनीकी का इस्तेमाल करते हैं, ज्यादातर विषैला तत्व एक नहर में डाल देते हैं, जिससे गंगा के किनारे बसे गांवों में करीब 2,500 हेक्टेयर खेत की सिंचाई होती है. इन गांवों से ही कानपुर शहर में दूध और सब्जियों की आपूर्ति होती है.
जाजमऊ से 5 किमी दूर मोतीपुर में जो पानी पहुंचता है, वह तैलीय हरे रंग का झगदार और गंधक की दुर्गंध वाला होता है. यहां कभी गुलाब और चमेली के खेत होते थे, लेकिन अब वे वीरान हैं.
दूध का उत्पादन आधा हो गया है और भैंसें मरियल दिखाई देती हैं. यहां के 69 वर्षीय किसान बिसराम यादव कहते हैं, ''नहर में नाले का पानी आने के बाद से हर साल यही हाल रहता है. उन्हें मालूम है कि बारिश नहीं हुई तो उनके धान की फसल खराब होने वाली है. गांव के दूसरे किसान कहते हैं कि जाड़े में गेहूं की फसल, जो कभी बहुत अच्छी होती थी, अब बेकार हो चुकी है और चारे के काम आती है. गांव के 56 वर्षीय डॉक्टर परशुराम यादव, जो मोतीपुर के अलावा 15 गांवों का दौरा करते हैं, कहते हैं कि प्रदूषित पानी कैंसर सहित पेट और त्वचा की बीमारियां पैदा कर रहा है. बिसराम यादव बताते हैं कि उनके पैरों में हमेशा खुजलाहट होती रहती है. वे कहते हैं, ''डॉक्टर कहता है कि हमारा खून खराब हो चुका है.''
आइआइटी-कानपुर के एक गहन अध्ययन से पता चलता है कि क्रोमियम-6 और कई अन्य भारी धातुएं—कैडमियम, पारा—इन गांवों की भोजन शृंखला में प्रवेश कर चुकी हैं. जायसवाल कहते हैं कि यह प्रदूषण दूध और सब्जियों के जरिए कानपुर के निवासियों तक पहुंच रहा है. जाजमऊ में एसटीपी से सटे एक मदरसे के बच्चों ने एक खेल का मैदान बना रखा है, जहां जहरीले क्रोमियम की मात्रा हो सकती है. यहां पर चमड़ा कारखानों के कूड़े का भारी ढेर नदी के किनारे धूप में सूख रहा होता है. 45 वर्षीय शम्सुद्दीन, जो नंगे हाथों से कूड़ा-करकट उठाकर ट्रॉली में भरते हैं और प्रति ट्रॉली 100 रु. कमाते हैं, कहते हैं, ''मेरे लिए इसके अलावा कमाई का दूसरा कोई काम नहीं है. '' लेकिन शम्सुद्दीन और मदरसा के बच्चों को शायद पता नहीं है कि बारिश होने पर कूड़े में मिला खतरनाक क्रोमियम जब गंगा में चला जाता है तो लाखों लोगों की जिंदगी खतरे में पड़ सकती है.