scorecardresearch

झारखंड: साड़ी बनी तनाव की जड़

झारखंड के एक चर्च ने मदर मेरी को पहनाई सरना आदिवासियों की पारंपरिक साड़ी. आदिवासियों और चर्च के बीच बन रही टकराव की स्थिति. विरोध में 25 दिसंबर को रांची में बड़ी संख्या में जुटेंगे आदिवासी

अपडेटेड 9 सितंबर , 2013
अकसर विदेशों में देवी-देवताओं के पहनावे को लेकर विवाद होता रहा है. इस बार झारखंड में भी कुछ ऐसा हुआ कि पूरे देश के सरना आदिवासियों में उबाल है. कोई भी यह सोचकर हैरान हो सकता है कि कोई साड़ी धार्मिक और सांस्कृतिक तनाव की वजह बन सकती है. लेकिन यहां चौड़े चटख लाल किनारों वाली सफेद साड़ी पर अधिकार को लेकर सरना आदिवासियों ने जंग का ऐलान कर दिया है. मदर मेरी को सरना आदिवासी महिलाओं की पारंपरिक साड़ी पहनाए जाने का विवाद आदिवासियों और ईसाई मिशनरियों में सांस्कृतिक और धार्मिक टकराव का रूप अख्तियार कर चुका है. पिछले हफ्ते रांची के मोराबादी मैदान में करीब 20,000 आदिवासियों का हुजूम महज एक बुलावे पर विरोध में आ जुटा.

विवाद की शुरुआत इस साल मई में ही हो चुकी थी, जब आर्च बिशप कार्डिनल थेलेस्पर टोप्पो ने रांची के सिंहपुर गांव के कैथलिक चर्च में मदर मेरी की ऐसी मूर्ति का अनावरण किया जिसमें मदर को सरना आदिवासी महिलाओं के पारंपरिक और सांस्कृतिक परिधान, लाल किनारे वाली सफेद साड़ी में दिखाया गया है. अब तक गोरे रंग में बनने वाली मदर मेरी की यह मूर्ति सांवले रंग में है. उन्हें पहनाए गए परिधान और आभूषण उन्हें एक आदिवासी महिला होने का आभास देते हैं. मूर्ति में मदर मेरी ने जिस तरीके से बालक यीशु को पीले कपड़े से बांधकर गोद में ले रखा है, वह भी बिल्कुल वैसा ही है जैसे आदिवासी महिलाएं अपने बच्चों को रखती हैं.

मूर्ति के अनावरण के ठीक हफ्ते भर के भीतर इस इलाके में सांप्रदायिक तनाव से माहौल गरमाने लगा. सरना प्रार्थना समाज ने चेतावनी देते हुए कहा कि चर्च इस मूर्ति को खुद हटा ले वरना महासभा खुद ही इसे हटा देगी. उनका आरोप है कि चर्च इस मूर्ति के माध्यम से भोले-भाले आदिवासियों को ईसाई बनाने के लिए उकसा रहा है. मूर्ति जिस गांव में लगी है वहां ओरांव जनजाति की बहुलता है जो सरना धर्म को मानते हैं. बीते हफ्ते जब रांची में उनकी रैली हो रही थी तो सरकार के आला अधिकारियों के माथे पर बल पड़ गए. जिस इलाके में मूर्ति लगाई गई है, वहां कोई तनाव न फैले इसके लिए वहां निषेधाज्ञा लगा दी गई.

सरना के प्रमुख धर्म गुरु बंधन तिग्गा कहते हैं, ‘‘हम सिर्फ यही चाहते हैं कि इस मूर्ति को हटाकर मदर मेरी को आदिवासी रूप देने की चाल वापस ली जाए. लाल किनारों वाली सफेद साड़ी हमारे सांस्कृतिक और धार्मिक जीवन का अंग है. ऐसा पहली बार नहीं है जब हमारी सांस्कृतिक और धार्मिक पहचान के साथ मजाक हुआ है. इससे पहले उन्होंने नेम्हा बाइबल में हमारे धर्म की निंदा की.’’ वे बताते हैं कि इसके विरोध में 25 दिसंबर को भी लाखों की संख्या में सरना आदिवासी रांची में जुटेंगे. उधर चर्च के एक पादरी इस डर को भ्रामक बताते हैं, ‘‘इस मूर्ति में नया क्या है? अकसर मूर्ति में स्थानीय सांस्कृतिक तत्वों का समावेश किया जाता है. अफ्रीका में मदर मेरी की काली मूर्ति मिलती है. भारत के कई हिस्सों में मैडोना साड़ी में मिलेंगी. तमिलनाडु में लेडी भेलनकणी की मूर्ति सिल्क की साड़ी में मिलेगी. सरना तो जेनरिक नाम है ऐसी साड़ी सिर्फ सरना ही नहीं पहनते. मूर्ति हटाने का कोई औचित्य नहीं है.’’

लेकिन मूर्ति विवाद राज्य की सीमाओं को पार कर चुका है. झारखंड, बंगाल, ओडिसा, छतीसगढ़, मध्य प्रदेश, राजस्थान के विभिन्न इक्कीस आदिवासी संगठनों का प्रतिनिधित्व करने वाली ऑल इंडिया सरना रिलिजियस ऐंड सोशल कोऑर्डिनेशन कमेटी ने साड़ी विवाद पर सरना के संघर्ष को समर्थन दे दिया है. सरना खुद को हिंदु धर्म से अलग रखते हैं लेकिन उन पर नजर गड़ाए आरएसएस ने भी इसमें कूदकर आंदोलन को मौन समर्थन दे रखा है.आरएसएस के एक पदाधिकारी कहते हैं, ‘‘कांग्रेस आदिवासियों के धर्मांतरण को हवा दे रही है. हम चुप नहीं रह सकते. आदिवासियों को बहकाया जा रहा है.’’

सरना धर्मावलंबी लंबे समय से जनगणना में अपने लिए धर्म का अलग कॉलम मांगते आए हैं. 2001 की जनगणना में झारखंड, बिहार,छत्तीसगढ़, बंगाल और उड़ीसा में 32 लाख लोगों ने अपना धर्म सरना लिखवाया था और करीब 68 लाख आदिवासियों ने अपना धर्म हिंदू और ईसाई से अलग लिखवाया था. 2011 की जनगणना में सरना धर्म मानने वालों की संख्या 50 लाख दिखी. इस पर तिग्गा कहते हैं, ‘‘दूसरे राज्यों को भी जोड़ दें तो हमारी आबादी करोड़ों में है जो प्रकृति पूजक हैं. लेकिन हमारी सांस्कृतिक और धार्मिक सुरक्षा की कोई गारंटी नहीं है.’’ दिसंबर में कड़ाके की सर्दी पड़ेगी तो उस समय सांप्रदायिक गर्मी भी अपना रंग दिखा सकती है.
Advertisement
Advertisement