पाकिस्तान के सेनाध्यक्ष रहील शरीफ 25 जनवरी को अपने चीनी समकक्ष जनरल की जियांगजू के साथ बीजिंग में जापान के नौसेना प्रमुख ने पिछले साल जब चीन का दौरा किया था तो उन्होंने एशिया-पैसिफिक समुद्री क्षेत्र में कोई स्पष्ट रुख लेने के मामले पर भारत के सावधानी पूर्ण रवैए पर अपनी नाखुशी साफ जाहिर की थी. एडमिरल कात्सुतोशी कवानो ने कहा, ‘‘भारतीय राजनीति बहुत जटिल है.’’ वे इस बात की वजह बताने की कोशिश कर रहे थे कि आखिर क्यों भारत-अमेरिका मालाबार समुद्री अभ्यास में हिस्सा लेने के जापान के अनुरोध पर नई दिल्ली की ओर से गौर नहीं किया जा रहा है. लेकिन अब यह निश्चित तौर पर कहा जा सकता है कि बराक ओबामा के दौरे के समय भारत ने इस क्षेत्र में अपनी भूमिका को लेकर जो स्पष्ट-और पहली बार सक्रिय-नजरिया दिखाया, उससे जापानी एडमिरल काफी उत्साहित महसूस कर रहे होंगे.
यह भी स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है कि दूसरी ओर मोदी और ओबामा की ओर से प्रस्तावित ‘‘संयुक्त रणनीतिक दृष्टि’’ से चीन को तकलीफ हुई होगी. हालांकि दोनों देशों के लंबे-चौड़े संयुक्त बयान में इस मुद्दे पर ज्यादा ढिंढोरा नहीं पीटा गया. शायद सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण बात यह है कि इस क्षेत्र में अपनी भूमिका को लेकर भारत का नजरिया अब अमेरिका के अपने ‘‘पुनर्संतुलन’’ नजरिए से कितना मेल खाता है. दोनों देशों ने दृढ़तापूर्वक घोषणा की कि वे ‘‘समुद्री सुरक्षा सुनिश्चित करने के महत्व पर बल देंगे्य्य और पूरे क्षेत्र में ‘‘नौपरिवहन और उड़ानों की स्वतंत्रता’’ को सुनिश्चित करेंगे, खासकर दक्षिणी चीन सागर में.
अधिकारियों का कहना है कि भारत हालांकि पहले भी रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण दक्षिणी चीन सागर में नौपरिवहन की आजादी के विषय पर अपनी रुचि की बात कह चुका है, लेकिन इस बार अपने नजरिए में जिस जोरदार और स्पष्ट ढंग से अपनी स्थिति का खुलासा किया गया है, वह पहले से कहीं ज्यादा साहसिक है.
बीजिंग को भी यह बात साफ समझ में आ गई, इसीलिए उसने बिना देरी किए पलटकर जवाब दे दिया. चीन ने कहा, दक्षिणी चीन सागर विवाद का ‘‘हल उन देशों को मिलकर करना चाहिए, जो सीधे तौर पर इससे जुड़े हों.’’ नए दृष्टिकोण में शायद सबसे बड़ा बदलाव यह आया है कि भारत पहले इस मामले में शामिल होने से जो हिचक दिखा रहा था, वह हिचक अब दूर हो चुकी है. पहले वह फूंक-फूंककर कदम रखते हुए चीन को नाराज करने से बचता था और यही बात जापानी एडमिरल की खिन्नता की वजह थी.
संयुक्त दृष्टिकोण में इन संवेदनशीलताओं को दरकिनार कर दिया गया है. इसमें घोषणा की गई है कि पांच साल में भारत और अमेरिका संभवतरू जापान से शुरुआत करते हुए ‘‘इस क्षेत्र में तीसरे देशों को शामिल करके त्रिपक्षीय वार्ता पर्य्य जोर देने की कोशिश करेंगे. भारत अगर दक्षिणी चीन सागर में अपनी मौजूदगी बढ़ाने के मामले पर आमादा है, तो मोदी सरकार साथ ही यह भी सुनिश्चित करना चाहती है कि चीन उसकी इस कोशिश को साफ तौर पर अपने खिलाफ समझे. 31 जनवरी से चीन के चार दिवसीय दौरे पर जा रही विदेश मंत्री सुषमा स्वराज से कहा गया है कि वे चीन को यह विश्वास दिलाएं कि मोदी सरकार बीजिंग के साथ मजबूत संबंध बनाना चाहती है, खासकर आर्थिक मोर्चे पर. गुजरात में शी जिनपिंग के दौरे के समय भी मोदी ने यही संदेश देने की कोशिश की थी.
हालांकि यह देखने की बात होगी कि नए सिरे से भारत की पुनर्संतुलन की कोशिशों पर चीन किस प्रकार प्रतिक्रिया देता है, लेकिन भारत को इस बात के लिए तैयार रहना चाहिए कि चीन हिंद महासागर में नई ताकत से अपनी ‘‘सक्रियता’’ बढ़ा सकता है. चीन के विदेश मंत्रालय के एक अधिकारी ने इंडिया टुडे को बताया कि ओबामा के दौरे से चीन के सावधान होने की कोई वजह नहीं है. उन्होंने कहा, ‘‘मैं नहीं समझता कि 21वीं सदी के वैश्वीकरण वाले युग में शीत युद्ध के दौर वाली मानसिकता की कोई जगह हो सकती है.’’
रोचक बात है कि भारत के पड़ोस में श्रीलंका, बांग्लादेश, म्यांमार और मालदीव में अपनी मौजूदगी बढ़ाने के मामले पर भी चीन ने यही दलील दी है. अपने नए दृष्टिकोण के बाद अब भारत को भी इसी तरह की गतिविधि सुनिश्चित करने का कठिन काम करना होगा.
दिल्ली से एयरफोर्स वन के रवाना होने के तुरंत बाद चीन की मीडिया ने खबर दी कि देश की सबसे बड़ी तेल निकालने की परियोजना हैयांग शियोयु हिंद महासागर में अब और लंबे समय तक जारी रहेगी. चीन ने 28 जनवरी को महत्वाकांक्षी पाइपलाइन शुरू करने की घोषणा की. यह पाइपलाइन म्यांमार के पास बंगाल की खाड़ी में गहरे समुद्र में बने एक बंदरगाह से प्रति वर्ष 2.2 करोड़ टन कच्चा तेल निकालेगी. कम्युनिस्ट पार्टी की पत्रिका ग्लोबल टाइम्स ने अपनी एक टिप्पणी में कहा, ‘‘चीन और भारत एकतरफा खेल नहीं खेलना चाहेंगे.’’ फिर इसमें चेतावनी देते हुए कहा गया, ‘‘लेकिन भारत पश्चिमी प्रभाव में आता जा रहा है.’’
यह भी स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है कि दूसरी ओर मोदी और ओबामा की ओर से प्रस्तावित ‘‘संयुक्त रणनीतिक दृष्टि’’ से चीन को तकलीफ हुई होगी. हालांकि दोनों देशों के लंबे-चौड़े संयुक्त बयान में इस मुद्दे पर ज्यादा ढिंढोरा नहीं पीटा गया. शायद सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण बात यह है कि इस क्षेत्र में अपनी भूमिका को लेकर भारत का नजरिया अब अमेरिका के अपने ‘‘पुनर्संतुलन’’ नजरिए से कितना मेल खाता है. दोनों देशों ने दृढ़तापूर्वक घोषणा की कि वे ‘‘समुद्री सुरक्षा सुनिश्चित करने के महत्व पर बल देंगे्य्य और पूरे क्षेत्र में ‘‘नौपरिवहन और उड़ानों की स्वतंत्रता’’ को सुनिश्चित करेंगे, खासकर दक्षिणी चीन सागर में.
अधिकारियों का कहना है कि भारत हालांकि पहले भी रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण दक्षिणी चीन सागर में नौपरिवहन की आजादी के विषय पर अपनी रुचि की बात कह चुका है, लेकिन इस बार अपने नजरिए में जिस जोरदार और स्पष्ट ढंग से अपनी स्थिति का खुलासा किया गया है, वह पहले से कहीं ज्यादा साहसिक है.
बीजिंग को भी यह बात साफ समझ में आ गई, इसीलिए उसने बिना देरी किए पलटकर जवाब दे दिया. चीन ने कहा, दक्षिणी चीन सागर विवाद का ‘‘हल उन देशों को मिलकर करना चाहिए, जो सीधे तौर पर इससे जुड़े हों.’’ नए दृष्टिकोण में शायद सबसे बड़ा बदलाव यह आया है कि भारत पहले इस मामले में शामिल होने से जो हिचक दिखा रहा था, वह हिचक अब दूर हो चुकी है. पहले वह फूंक-फूंककर कदम रखते हुए चीन को नाराज करने से बचता था और यही बात जापानी एडमिरल की खिन्नता की वजह थी.
संयुक्त दृष्टिकोण में इन संवेदनशीलताओं को दरकिनार कर दिया गया है. इसमें घोषणा की गई है कि पांच साल में भारत और अमेरिका संभवतरू जापान से शुरुआत करते हुए ‘‘इस क्षेत्र में तीसरे देशों को शामिल करके त्रिपक्षीय वार्ता पर्य्य जोर देने की कोशिश करेंगे. भारत अगर दक्षिणी चीन सागर में अपनी मौजूदगी बढ़ाने के मामले पर आमादा है, तो मोदी सरकार साथ ही यह भी सुनिश्चित करना चाहती है कि चीन उसकी इस कोशिश को साफ तौर पर अपने खिलाफ समझे. 31 जनवरी से चीन के चार दिवसीय दौरे पर जा रही विदेश मंत्री सुषमा स्वराज से कहा गया है कि वे चीन को यह विश्वास दिलाएं कि मोदी सरकार बीजिंग के साथ मजबूत संबंध बनाना चाहती है, खासकर आर्थिक मोर्चे पर. गुजरात में शी जिनपिंग के दौरे के समय भी मोदी ने यही संदेश देने की कोशिश की थी.
हालांकि यह देखने की बात होगी कि नए सिरे से भारत की पुनर्संतुलन की कोशिशों पर चीन किस प्रकार प्रतिक्रिया देता है, लेकिन भारत को इस बात के लिए तैयार रहना चाहिए कि चीन हिंद महासागर में नई ताकत से अपनी ‘‘सक्रियता’’ बढ़ा सकता है. चीन के विदेश मंत्रालय के एक अधिकारी ने इंडिया टुडे को बताया कि ओबामा के दौरे से चीन के सावधान होने की कोई वजह नहीं है. उन्होंने कहा, ‘‘मैं नहीं समझता कि 21वीं सदी के वैश्वीकरण वाले युग में शीत युद्ध के दौर वाली मानसिकता की कोई जगह हो सकती है.’’
रोचक बात है कि भारत के पड़ोस में श्रीलंका, बांग्लादेश, म्यांमार और मालदीव में अपनी मौजूदगी बढ़ाने के मामले पर भी चीन ने यही दलील दी है. अपने नए दृष्टिकोण के बाद अब भारत को भी इसी तरह की गतिविधि सुनिश्चित करने का कठिन काम करना होगा.
दिल्ली से एयरफोर्स वन के रवाना होने के तुरंत बाद चीन की मीडिया ने खबर दी कि देश की सबसे बड़ी तेल निकालने की परियोजना हैयांग शियोयु हिंद महासागर में अब और लंबे समय तक जारी रहेगी. चीन ने 28 जनवरी को महत्वाकांक्षी पाइपलाइन शुरू करने की घोषणा की. यह पाइपलाइन म्यांमार के पास बंगाल की खाड़ी में गहरे समुद्र में बने एक बंदरगाह से प्रति वर्ष 2.2 करोड़ टन कच्चा तेल निकालेगी. कम्युनिस्ट पार्टी की पत्रिका ग्लोबल टाइम्स ने अपनी एक टिप्पणी में कहा, ‘‘चीन और भारत एकतरफा खेल नहीं खेलना चाहेंगे.’’ फिर इसमें चेतावनी देते हुए कहा गया, ‘‘लेकिन भारत पश्चिमी प्रभाव में आता जा रहा है.’’