सभी जिंदा चीजें अपने भीतर कुछ हद तक एक पागलपन लिए होती हैं जो उन्हें अजीबोगरीब तरीके से आगे बढ़ाती है.” यह बात यान मार्टेल ने लाइफ ऑफ पाइ में लिखी थी. टी24 के नाम से जाना जाने वाला बाघ भी कुछ ऐसे ही पागलपन से भरा हुआ था, जिसने पिछली 8 मई को वन प्रहरी रामपाल सैनी को मार डाला था. 17 मई को उसे उदयपुर स्थित सज्जनगढ़ के बायोलॉजिकल पार्क भेज दिया गया और फिलहाल उस पर नजर रखी जा रही है. बाघों के जानकार वाल्मीक थापर कहते हैं, “उसकी आंखों में आप हमेशा यह भाव देख सकते थे.” टी24 अगर आपकी ओर पीठ कर के खड़ा हो तब भी वह आपको देख रहा होता था. थापर कभी भी उससे अपनी निगाह नहीं हटाते थे, खासकर तब जब उनकी पत्नी संजना और बच्चे आसपास हों.
यही कारण था कि टी24 9 मार्च, 2012 को जब अशफाक नामक ग्रामीण को तकरीबन पूरा खा गया, तब थापर ने राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण (एनटीसीए) को लिखकर भेजा कि कोई और मरे, उससे पहले इसे वहां से कहीं और ले जाया जाना होगा. इसके दो साल पहले इस बाघ की 3 जुलाई, 2010 की पहली वारदात में घमंडी माली नाम का आदमी मारा गया था. एनटीसीए और रणथंभौर अभयारण्य के अधिकारी एक बाघ को इतनी जल्दी नरभक्षी घोषित करने को तैयार नहीं थे, इसलिए उन्होंने इसके ऊपर नजर रखने का फैसला किया. एनटीसीए के दिशा-निर्देशों में इनसान को मारने वाले और खाने वाले बाघ के बीच स्पष्ट फर्क बरता गया है. आदमी से किसी नाटकीय मुठभेड़ में जो बाघ उसे मार डालते हैं उन्हें “मैन किलर” कहा जाता है जबकि जो बाघ खाने के लिए आदमी को अपना शिकार बनाते हैं उन्हें “मैन ईट” कहा जाता है. यह साफ नहीं था कि टी24 ने जो शिकार किए हैं वह खाने के लिए किए हैं, लिहाजा उसे इस संदेह का लाभ मिल गया.
टी24 पर 8 मई को प्रहरी रामपाल सैनी के शिकार का आरोप है जो रणथंभौर नेशनल पार्क की शेरपुर चेकपोस्ट पर तैनात था. उसकी लाश बरामद हो गई थी और अस्पताल ले जाया जा रहा था, उसी दौरान टी24 को मौका-ए-वारदात पर अपने शिकार की खोज में सूंघते हुए पाया गया. उसने लाश ले जा रही जीप का पीछा भी किया. मुख्य वन्यजीव वार्डेन आर.के. त्यागी के निर्देश पर उसे शामक देकर शांत कर दिया गया और 17 मई को अलग भेज दिया गया. त्यागी ने एनटीसीए को इस कदम की जानकारी तो दी लेकिन मानक दिशा-निर्देश प्रक्रिया के मुताबिक किसी कमेटी के निष्कर्षों का इंतजार नहीं किया. उन्होंने ऐसा तब किया जब राजस्थान के वन मंत्री राजकुमार रिणवा इस मामले की जांच के लिए एक कमेटी गठित ही कर रहे थे. इस दौरान होटल लॉबी से दबाव की अफवाहें उड़ने लगीं और रियल एस्टेट फर्म के एक कर्मचारी तथा पुणे के वन्यजीव प्रेमी चंद्रभाल सिंह ने दिल्ली हाइकोर्ट में बाघ के स्थानांतरण का विरोध करते हुए एक याचिका दायर की, जिसके चलते टी24 के समर्थन में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भावनाएं उमड़ आईं. अपनी विशेषज्ञता पर सवाल उठता देख बाघ संरक्षकों ने तीखी प्रतिक्रिया दी. हालांकि 42 साल के सिंह ऐसे शख्स हैं जिन्होंने वन्यजीव समुदाय को अपनी हरकतों से हिला रखा है. अतीत में भी वे तीन मुकदमे दायर कर चुके हैं और कहते हैं कि अब वक्त आ गया है कि आम लोग विशिष्ट लोगों के वर्चस्व को चुनौती दें. उनकी याचिका राजस्थान हाइकोर्ट में स्थानांतरित कर दी गई जिसे बाद में 28 मई को खारिज कर दिया गया. अदालत ने विशेषज्ञों और पर्यटन उद्योग को क्लीन चिट दे दी.
टी24 ने 8 मई को चौथा शिकार किया था, इसलिए वन अधिकारी और वन्यजीव विशेषज्ञ मानते हैं कि वह खुशकिस्मत है कि बंधक बनकर भी जिंदा है. महाराष्ट्र के तदोबा में, कर्नाटक के भद्रा में और मध्य प्रदेश में तो मवेशियों को मारने वाले बाघों को भी मार दिया जाता है. टी24 को ऐसे में गोली मारी जा सकती थी.
संरक्षणवादी उल्लास कारंत मानते हैं कि पहली वारदात के बाद ही टी24 को बाहर भेज दिया जाना चाहिए था. वे कहते हैं, “कोई भी ऐसा बाघ जिसमें आदमी का भय खत्म हो जाए और उन पर हमला करने या पीछा करने जैसा अटपटा व्यवहार करने लगे, उसे तुरंत हटा दिया जाना चाहिए. हमारा जोर एक प्राणी के तौर पर बाघों को बचाने पर होना चाहिए, न कि हरेक बाघ को बचाने पर. हमारे पास एक ऐसा नजरिया होना चाहिए जिससे भारत में बाघों की आबादी मौजूदा संख्या की दोगुनी यानी 5000 से ज्यादा हो सके.”
सवाल उठता है कि रणथंभौर का यह बाघ इस स्थिति तक पहुंचा कैसे? एक समय में इस बाघ को वन अभयारण्य का सितारा माना जाता था. यही दर्जा उसकी दादी मछली को और उसके भाई टी25 को भी हासिल था जिसे पहले डॉलर कहा जाता था लेकिन बाद में अपना इलाका कब्जाने की आक्रामकता के चलते उसे जालिम कहा जाने लगा. जालिम धीरे-धीरे सुधर गया और भारत का पहला बाघ बना जिसने अनाथ शावकों को पाला-पोसा, लेकिन इसी दौरान उसकी आक्रमकता टी24 में आ गई. पार्क में पूर्व मानद वार्डेन और स्थानीय रिजॉर्ट के मालिक बालेंदु सिंह कहते हैं कि आज भले ही दुनिया में टी24 के लिए मोमबत्तियां जलाई जा रही हों लेकिन इसी बाघ को स्थानीय लोगों ने उसके दुस्साहस के लिए उस्ताद का नाम दिया था. किले और मंदिर के आसपास के इलाके को “24 टेरिटरी” कहा जाने लगा था. प्रहरी अपने वाहनों को धीमा करके लोगों से कहते थे कि वे चहलकदमी न करें वरना “गब्बर आ जाएगा.”
उस्ताद हमेशा से हटकर था. उदयपुर के मुख्य वन अधिकारी राहुल भटनागर, जिनकी देखरेख में फिलहाल टी24 को रखा गया है, साल भर तक रणथंभौर में फील्ड निदेशक के तौर पर काम कर चुके हैं. वे याद करते हैं कि टी24 अपने शिकार को हाइवे तक खींच कर ले आता था और जनता के सामने खुलेआम उसे खाता था. एक बार वह शामक दिए जाने के बाद बीच बेहोशी में ही उठ गया था और अपना इलाज कर रहे वाइल्डलाइफ इंस्टिट्यूट ऑफ इंडिया के वैज्ञानिकों को डरा दिया था. वह लाठी रखने वालों को घूरता था और उन पर हमला करता था. दूसरे बाघ इंसानों को देखने के बाद सड़क पार करते थे लेकिन टी24 ऐसा नहीं करता था. भटनागर बताते हैं, “कहते हैं कि वह 40 प्रहरियों का काम अकेले करता था. न लकड़ी चुराई जा सकती थी और न ही बुश का मांस कोई ले जा पाता था. उस्ताद के इलाके में शिकारी तो घुस ही नहीं पाते थे.” अपनी सनक के चलते लोग उसे प्यार भी करते थे और उससे उतना ही डरते भी थे. उस पर विशेष ध्यान देने की हालांकि एक और वजह थी-अधिकारियों को भीतर से यह एहसास था कि उसकी ऐसी शख्सियत बनाने में इस व्यवस्था का दोष रहा है.
टाइगर वॉच के साथ काम करने वाले संरक्षक धर्मेंद्र खंडाल टी24 को पैदाइश से जानते हैं. वे 8 मई की घटना के बाद मौका-ए-वारदात पर अपने सहायक दौलत सिंह शेखावत के साथ पहुंचने वाले पहले शख्स थे. वे रणथंभौर में बाघों द्वारा मारे गए इंसानों के मामलों पर एक दस्तावेज भी तैयार कर रहे हैं. कुल नौ शिकार में चार को वे टी24 के खाते में डालते हैं. तीसरी घटना 25 अक्तूबर, 2012 को हुई जब बाघ ने वन कर्मचारी घीसू सिंह को गरदन पर हमला करके उसे मार दिया. टी24 को उससे 10 फुट दूरी पर बैठा पाया गया था और लाश को हासिल करने के लिए उसे खदेड़ने में चार जीपों को लगाना पड़ा. इस घटना से खंडाल को भरोसा हो गया कि वह नरभक्षी था. वाल्मीक थापर कहते हैं, “अपने बाकी दो शिकारों को वह सिर्फ इसलिए नहीं खा सका क्योंकि लाशों को बरामद करने के लिए उसे दूर कर दिया गया था.” थापर की ही तरह खंडाल भी मानते हैं कि टी24 इन शिकार का दोषी है लेकिन वे यह भी मानते हैं कि वह परिस्थितियों का शिकार है और वह जैसा है, उसकी वजह वन्यजीव संरक्षकों और पर्यटन विभाग द्वारा उसके साथ किया गया बरताव है. खंडाल कहते हैं, “उसकी अतीत की कुछ स्मृतियां अप्रिय हैं जिससे इनसानों को देखने का उसका नजरिया बदल गया है.” ऐसा कहते हुए वे सीधे तौर पर पूर्व फील्ड निदेशक बी.एन. मेहरोत्रा पर दोष लगाते हैं. उन्हीं के आदेश पर 2009 में पैर में लगी एक चोट का इलाज करने के लिए टी24 को शामक देकर एक पिंजड़े में तीन दिन तक बंद रखा गया था. खंडाल कहते हैं, “यही टी24 के लिए निर्णायक मोड़ था.”
राजस्थान के वरिष्ठ संरक्षक रजा तहसीन बताते हैं कि कैसे जब टी24 के पैर में एक चोट लग गई थी तब उसे तीन दिन से ज्यादा समय तक शामक दिया जाता रहा, ऑपरेट किया गया, एक से ज्यादा एंटीबायोटिक के इंजेक्शन दिए गए और फिर पिंजड़े में कैद कर दिया गया. वह जब कभी जगता, आक्रामक और बेचैन हो जाता था. वह खीझ गया था. उसे जब छोड़ा गया, तो उसने अपनी पट्टी को फाड़ दिया और घाव पर अपनी जीभ फिराकर अपनी लार से उसे ठीक कर दिया जिसमें कुदरती एंटीसेप्टिक होता है. उसे कब्ज हो गया था. इसका इलाज करने के लिए उसे घास खाने देने के बजाय वन्यजीव अधिकारियों ने दोबारा उसे बेहोश कर दिया और एनीमा दे डाला.
ज्यादा वक्त नहीं बीता था कि उसे बेहोश कर के उसके गले में एक रेडियो कॉलर डाल दिया गया और दो साल बाद फिर से उसे हटाने के लिए शामक दिया गया. बार-बार बेहोश करने वाली दवा दिए जाने के कारण ही उसका यह हाल हुआ.
थापर कहते हैं कि इसी वजह से इनसानों के सामने उसकी प्राकृतिक शर्म खत्म हो गई. वे इसके पीछे बार-बार ट्रैक्विलाइजर दिए जाने को ही दोषी नहीं ठहराते बल्कि 2008 में रणथंभौर से आठ बाघों को सरिस्का भेजे जाने को भी कारण बताते हैं. अभयारण्य के अधिकारियों ने न सिर्फ बाघों के कुदरती पारिवारिक ढांचे की उपेक्षा कर के अपने मन से बदली के लिए बाघों को चुन लिया बल्कि एक बाघ को तो समागम के दौरान बीच में ही उठाकर ले जाया गया. अपने परिवार में बड़े नर के अभाव में टी24 ने उम्र से पहले ही इलाके पर कब्जा कर लिया. अपनी मादा नूर के लिए वह जितना वफादार था, आदमी के लिए वह उतना ही विश्वासघाती होता गया. टी24 को अब दोबारा आदमी पर भरोसा नहीं होना था.
उदयपुर के 35 एकड़ वाले सज्जनगढ़ बायोलॉजिकल पार्क में पहाड़ियों के नीचे अब उसका नया आशियाना है. उसके सिर पर रात की चांदनी में महाराजाओं के सफेद मानसून महल चमकते हैं. भोजन के लिए यहां चंदन के पेड़ और झाड़ियां हैं. उसकी निगरानी के लिए पांच सदस्यों की एक टीम बनाई गई है. हर सुबह और शाम उसकी दहाड़ सुनने को मिलती है. पहले ही दिन उसे यह देखकर काफी अपमानजनक महसूस होता है कि उसे भैंसे का दस किलो का फेंका हुआ मांस खाना होगा. वह उसे नहीं खाने का फैसला करता है. उस इलाके में वह इकलौता प्राणी है जो चिड़ियाघर में नहीं पला है. उसके बगल के पिंजड़े में दामिनी बाघिन है. अगले दिन उसके पास एक जिंदा भैंसा शिकार के लिए भेजा जाता है. चार दिन बाद उसे जिंदा मुर्गियां मिलती हैं. अब तक वह इस बात को समझ चुका है कि राजा को भी घटिया खाने से काम चलाना पड़ सकता है.
याचिकाकर्ता चंद्रभाल सिंह का दावा है कि पर्यटन लॉबी के दबाव के चलते टी24 को नरभक्षी करार दे दिया गया. वन्यजीव विशेषज्ञों ने इस पर कड़ी प्रतिक्रिया दी है. थापर कहते हैं, “नरभक्षी की अब कोई परिभाषा नहीं रह गई है. कोई भी बाघ जो इनसान को मार कर खाता है वह नरभक्षी है. टी24 नरभक्षी है.” एनटीसीए की प्रतिक्रिया का इंतजार किए बगैर टी24 को क्यों यहां से हटा दिया गया, त्यागी कहते हैं कि कई बार इंतजार नहीं करना होता, बस कार्रवाई करनी होती है.
(-साथ में रोहित परिहार)
टी-24 यानी बाघ उस्ताद किसका बंदी
बहुचर्चित टी24 उर्फ उस्ताद इंसानी लालच का शिकार है या वाकई नरभक्षी हो गया है? इस विवाद से आदमी और जानवर के टकराव के नए पहलू उजागर

अपडेटेड 1 जून , 2015
Advertisement
Advertisement