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बीजेपी नेतृत्व के लिए आंख की किरकिरी क्यों हैं संजय जोशी

बीजेपी के पूर्व संगठन महासचिव के पास कोई जिम्मेदारी नहीं, फिर भी वे पार्टी के शीर्ष नेतृत्व के लिए गले की हड्डी बने हुए हैं. आखिर क्यों?

अपडेटेड 27 अप्रैल , 2015

उन्हें ऐसा कुशल संगठनकर्ता माना जाता है जो करीब एक दशक से राजनैतिक वनवास के बावजूद कार्यकर्ताओं के दिलों में अपनी खास जगह बनाए हुए है. हर रोज उनसे मिलने के लिए 300-400 कार्यकर्ता पहुंचते हैं, लेकिन हाल ही में उनके 53वें जन्मदिन के मौके पर यह संख्या पांच हजार के करीब पहुंच गई. दिल्ली में बीजेपी दफ्तर समेत कई जगहों पर होर्डिंग्स टंग गए. उत्साहित कार्यकर्ताओं ने 53 किलो का विशेष लड्डू बनवाकर बांटा. लेकिन कभी बीजेपी के शक्तिशाली संगठन महासचिव रहे संजय जोशी को शायद ही एहसास रहा होगा कि यह उत्साह किसी को नागवार गुजर रहा है. जोशी को जन्मदिन के बधाई संदेश वाले होर्डिंग्स लगाने के लिए केंद्रीय स्वास्थ्य राज्यमंत्री श्रीपाद येस्सो नाईक के तत्कालीन अतिरिक्त निजी सहायक नितिन सरदारे को नौकरी से हाथ धोना पड़ा. बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने इस पर कड़ा संज्ञान लिया और पोस्टर बनाने वाली कंपनी को तलब कर पूछताछ की गई. पार्टी के एक नेता का कहना है, "सरदारे ने शरारतपूर्ण रवैया अपनाया, इसलिए शाह ने श्रीपाद को फोन कर फटकारा." बीजेपी ने जोशी को बधाई देने वाले ऐसे 125 लोगों की सूची तैयार की गई है जिन पर भले सरदारे की तरह तुरंत कार्रवाई न हो, लेकिन उन लोगों को भविष्य में जिम्मेदारी से वंचित रखने की रणनीति बनाई गई है. बीजेपी के इस तेवर से सवाल उठता है कि आखिर जोशी की शख्सियत में ऐसा क्या है जिन्हें सामान्य शिष्टाचार के तहत अगर कोई बीजेपी कार्यकर्ता जन्मदिन की बधाई भी देता है, तो सत्ता और संगठन में बैठे बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व के कान खड़े हो जाते हैं.

कौन हैं संजय जोशी 
नागपुर में पैदा हुए और वहीं पले-बढे संजय जोशी ने विश्वेश्वरैया नेशनल इंस्टीटयूट ऑफ टेक्नॉलोजी से मैकेनिकल इंजीनियरिंग की डिग्री ली. फिर उसी संस्थान में वे 6 साल तक लेक्चरर रहे और पूर्णकालिक प्रचारक बनने के लिए नौकरी छोड़ दी. पहले गुजरात और फिर 2001 में वे महज 38 साल की उम्र में बीजेपी के सबसे युवा राष्ट्रीय संगठन मंत्री की कुर्सी पर काबिज हुए. साधारण पाजामा और कुर्ता पहनने वाले 53 वर्षीय जोशी की सांगठनिक कार्यशैली की विशेषता उनकी सहजता रही है. हालांकि 2005 में मुंबई के बीजेपी अधिवेशन में, जहां आडवाणी की विदाई हुई वहां जोशी की कथित सेक्स सीडी ने उन्हें भी राजनीति के बियाबान में धकेल दिया. बाद में पुलिस जांच में उन्हें क्लीन चिट मिल गई. नितिन गडकरी के अध्यक्ष रहते कुछ महीनों को छोड़ दें तो जोशी एक दशक से बीजेपी की मुख्य धारा से बाहर हैं. वे पार्टी में किसी पद पर नहीं हैं और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से उनके रिश्तों की कड़वाहट जगजाहिर है, फिर भी उनसे रोजाना मिलने वाले कार्यकर्ताओं की संख्या बीजेपी के किसी भी नेता से मिलने वालों से ज्यादा रहती है. इंडिया टुडे से बातचीत में जोशी विवादास्पद मुद्दों पर बोलने से परहेज करते हैं, लेकिन आगे की रणनीति पर कहते हैं, "मैं दल और देश की सेवा के लिए प्रतिबद्ध हूं इसलिए पार्टी और कार्यकर्ताओं की ओर से आयोजित कार्यक्रमों में जाता हूं." पोस्टर मसले पर उनका कहना है, "इसमें कोई संदेह नहीं कि मोदी जी हमारे नेता हैं. मैं अपनी भूमिका से संतुष्ट हूं."

मोदी और जोशी में अदावत क्यों
संघ ने जोशी को गुजरात में मोदी के साथ लगाया. दोनों की जोड़ी ने पार्टी की जड़ें जमाई, और 1990 में बीजेपी इस स्थिति में आ गई कि जनता दल को सरकार बनाने के लिए उसकी जरूरत पड़ गई. 1995 में केशुभाई पटेल के नेतृत्व में बीजेपी की सरकार बन गई. यहीं से गुजरात की राजनीति की दिशा बदली तो संघ के दोनों प्रचारकों मोदी-जोशी के रिश्तों में भी कड़वाहट का दौर आया. मोदी को उसी साल बीजेपी का राष्ट्रीय मंत्री बनाकर हिमाचल प्रदेश-हरियाणा का प्रभारी बनाया गया. लेकिन उनका केंद्र दिल्ली की बजाए चंडीगढ़ रखा गया. मोदी को लगा कि इसके पीछे जोशी का हाथ है. 2005 के बाद तो दोनों का न तो एक-दूसरे से आमना-सामना हुआ और न ही फोन पर बातचीत. जब गडकरी ने उन्हें दोबारा पार्टी में लाकर कार्यसमिति सदस्य और यूपी का संयोजक बनाया तो मोदी चुनाव प्रचार में नहीं गए. आखिर 24 मई 2012 को उन्होंने जोशी को कार्यसमिति से हटाने के लिए पार्टी को मजबूर कर दिया.
ताजा मसला पोस्टर विवाद का है. जिस तरह से जोशी को बधाई देने वालों पर कार्रवाई हुई उससे साफ है कि मोदी के नेतृत्व में बीजेपी की मुख्य धारा में जोशी की वापसी नामुमकिन है. आखिर इस कार्रवाई की वजह दुश्मनी है या भय? जोशी समर्थक इसे दोहरा मापदंड बता रहे हैं. उनका कहना है कि मोदी 'सबका साथ, सबका विकास' की बात करते हैं, लेकिन जोशी के साथ ऐसा बर्ताव क्यों? समर्थकों का कहना है कि जोशी के मामले में शाह निमित्त मात्र हैं और असली खेल मोदी की ओर से हो रहा है. सूत्रों का दावा है कि शाह और जोशी के बीच संपर्क रहता है, लेकिन बीजेपी के नेता इसे सिरे से खारिज करते हैं. जोशी समर्थक सवाल उठाते हैं कि जिन मुलायम सिंह ने कारसेवकों पर गोली चलवाई उनके घर शादी समारोह में मोदी खुद जाते हैं. जिन लालू यादव ने आडवाणी की रथ यात्रा रोकी वहां भी मोदी जाते हैं. जिन शरद पवार ने संघ को आतंकी संगठन कहा, उनके साथ बारामती में मंच साझा करते हैं, मुफ्ती मोहम्मद सईद से आत्मीयता से गले मिलते हैं, लेकिन जोशी से परहेज क्यों? हालांकि बीजेपी के राष्ट्रीय सचिव श्याम जाजू कहते हैं, "सरदारे संगठन की प्रक्रिया से श्रीपाद नाईक के सहायक नहीं बने थे, इसलिए इसमें संगठन की कोई भूमिका नहीं है."

खामोश क्यों हैं संघ
'सजय' पर हो रहे महाभारत में आखिर संरक्षक की भूमिका निभाने वाला संघ खामोश क्यों है?  जनवरी में अहमदाबाद में संघ कार्यकर्ता शिविर का आयोजन हुआ तो जोशी भी आमंत्रित थे. लेकिन सूत्रों का कहना है कि जोशी को बैठक में आने से रोकने के लिए बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व ने खुद राज्य के संघ के पदाधिकारियों से संपर्क साधा था. संघ के अखिल भारतीय प्रचार प्रमुख मनमोहन वैद्य इंडिया टुडे से कहते हैं, "जोशी हमेशा संघ का हिस्सा रहे हैं और संघ उनके लिए घर जैसा ही है." लेकिन बीजेपी में अहम भूमिका निभा चुके संघ के एक पूर्व प्रचारक संघ की खामोशी पर कहते हैं, "संघ हमेशा पार्टी की सत्ता आने के बाद सत्ता के साथ खड़ा हो जाता है और स्वयं इतना लिप्त हो जाता है कि उसमें समाधान की क्षमता नहीं रह जाती." पोस्टर विवाद पर उनका मानना है कि कुछ लोग यह समझते होंगे कि राजनीति में किसी को सिर्फ घायल करके नहीं छोडऩा चाहिए. लेकिन श्याम जाजू जोशी की जिम्मेदारी को संघ का मसला मानते हैं. जबकि वैद्य कहते हैं, "मोदी-जोशी प्रचारक नहीं अब सिर्फ स्वयंसेवक हैं और जोशी की जिम्मेदारी या पोस्टर विवाद के बारे में पार्टी से पूछा जाना चाहिए."
मोदी-शाह जोड़ी के शीर्ष पर होने के बावजूद पार्टी के अंदर, और बाहर भी, इन दोनों को असहज करने का जोशी का माद्दा उनके व्यक्तित्व की गुरुता बयान कर देता है.