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शब्दशः: इस कांग्रेस-NCP कोलाहल कलह में

पवार एक पटाखे के फुस्स होने जैसे बेकार हो जाने के खतरे को समझते हैं. उन्होंने लांग टर्म की कोई योजना बनाए बिना यह दांव नहीं चला होगा, पर उनको मुंबई में अपना मुख्यमंत्री मिलने से रहा.

अपडेटेड 28 जुलाई , 2012

इस बात को अरसा हो चुका है, जब किसी ने सोनिया गांधी को कोई चेतावनी दी हो और वह शख्स अफसाना बताने के लिए बचा रह गया हो. 24 जुलाई को शरद पवार ने कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को एक सार्वजनिक संदेश भेजाः 24 घंटे के भीतर मेरी सभी समस्याओं का समाधान करें अन्यथा मैं बाहर हो जाऊंगा. यह 24 घंटे खामोशी से 48 घंटे में बदल गए, आखिरकार कांग्रेस ने पवार के अहं को तुष्ट करने के लिए कुछ मरहम लगा दिया. उतना ही, जैसे कांग्रेस के साम्राज्‍य में किसी याचक को कुछ मिल जाए.

करीब आठ साल से सोनिया गांधी और शरद पवार यूपीए सरकार में साझेदार हैं. राजीव गांधी जब इंडियन एयरलाइंस में महज एक पायलट थे तब पवार महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री थे. लेकिन उनके प्रति सोनिया गांधी ने किसी अवांछित हमसफर जैसी बेरुखी दिखाई. सोनिया अपनी कोई मुस्कराहट भी पवार पर जाया नहीं करना चाहेंगी. अपने विरोध को कांग्रेस अध्यक्ष अभी तक न तो भूल पाई हैं और न ही उन्हें माफ  कर पाई हैं.

पवार ने 2004 में सोनिया को प्रधानमंत्री बनाने का विरोध किया था. एनसीपी से सोनिया का संपर्क ज्‍यादा लचीले प्रफुल्ल पटेल के जरिए रहता रहा है. उन्होंने पटेल के लिए 2004 और 2009 में चुनाव प्रचार किया था. जिस विधानसभा क्षेत्र में उन्होंने सभाएं कीं, उसमें पटेल को सबसे कम बढ़त मिली थी, लेकिन निष्पक्ष तौर पर कहें तो उन्हें इतना ही फायदा मिल सकता था क्योंकि वे सोनिया को सबसे मुश्किल इलाकों में ले गए थे.

इसके उलट पवार के डॉ. मनमोहन सिंह से समीकरण बेहतरीन रहे हैं. सोनिया आड़े न होतीं तो सिंह पवार को ऐसा कोई विभाग देते जो राजनीति में उनके भारी कद को देखते हुए उपयुक्त रहता. प्रणब मुखर्जी को राष्ट्रपति भवन भेजने के भी पवार शुरुआती दौर से ही उत्साही समर्थक रहे हैं, जिस पर कि सोनिया को एतराज था.

हालांकि, इसका यह मतलब नहीं कि एनसीपी में दो धड़े हैं. पटेल किसी सिराजुद्दौला की सेना के क्लाइव समर्थक धड़े के कमांडर नहीं हैं. वे अपने नेता पवार के वफादार हैं, जो सहयोगियों और शत्रुओं, दोनों के साथ अच्छी पुलिस/बुरी पुलिस का खेल खेलते हैं.

तब फिर पवार की रणनीति क्या है? राजनीतिक अनबन के चार चरण होते हैं. पहला चरण भुनभुनाने का होता है. यह भुनभुनाहट सुनाई तो देती है लेकिन वास्तव में इस पर कोई गौर नहीं करता क्योंकि हर कोई जानता है कि किसी ज्‍वालामुखी के फटने के लिए सिर्फ  पेट दर्द काफी नहीं होता. दूसरा चरण बगावत का होता है जिसमें मोल-तोल की गुंजाइश बची रहती है. लेकिन इसमें एक जोखिम का तत्व जुड़ जाता है. इसमें शुरुआती उद्देश्य अस्थिर करने का नहीं बल्कि अशांत करने का ही होता है, लेकिन दोनों पक्ष यह जानते हैं कि इतनी ज्‍यादा मांग नहीं कर सकते जिसकी पूर्ति ही न हो पाए.

तीसरा चरण समूह के साथ मिलकर मुकाबला करने के कम तीव्रता वाले विद्रोह का होता है. मौजूदा परिप्रेक्ष्य में इसे इस तरह से कह सकते हैं ''कांग्रेस के इरादों में पार्टनर का अड़ंगा?'' अंतिम चरण तलाक का होता है लेकिन इसके लिए अस्तित्व पर चोट करने लायक कारण होना चाहिए. सिर्फ झगड़ा दूरी जरूर पैदा करता है पर वह अलगाव के लिए पर्याप्त आधार नहीं हो सकता. कांग्रेस के प्रमुख सहयोगी दल उबाल खा रहे हैं. डीएमके गरज रहा है. परिस्थितियों ने उसे अपने ही गुस्से का असहाय कैदी बना दिया है. हालांकि, एक क्षेत्रीय पार्टी के लिए यह पिंजरा कितना भी अपमानजनक क्यों न हो, बाहर मांसाहारी बिल्लियों से भरे भयानक जंगल में जाने से तो बेहतर है.

अपनी भुनभुनाहट को दबाकर रखने वाले पवार ने ऐसी बगावत के साथ सार्वजनिक अभियान शुरू कर दिया जो कि लगता है कि मोल-तोल के लिए ही था. ममता बनर्जी रोष के तीसरे चरण तक पहुंच गई हैं. लेकिन पवार और बनर्जी दोनों जानते हैं कि वे किस दिशा में बढ़ रहे हैं. पवार एक पटाखे के फुस्स होने जैसे बेकार हो जाने के खतरे को समझते हैं.

हालांकि, उन्होंने लांग टर्म की कोई योजना बनाए बिना यह दांव नहीं चला होगा, आखिर उन्हें वह तो मिलने से रहा जो उनकी पार्टी के लोग वास्तव में चाहते हैं, मुंबई में एक नया मुख्यमंत्री. पवार मानते हैं कि पृथ्वीराज चव्हाण 2004 के बाद कांग्रेस के अब तक के सबसे ईमानदार मुख्यमंत्री हैं, लेकिन उनका प्रशासन विफल है. वे इसके लिए चुकाई जाने वाली कीमत में हिस्सेदार नहीं बनना चाहते. इस नाटकीय पटकथा के मूल में यह थाः शासन और जवाबदेही. कांग्रेस शासित राज्‍यों का पूरी तरह से लड़खड़ा जाना जितना आश्चर्यजनक है, उतना गूढ़ भी.

तीन साल पहले आंध्र प्रदेश, असम और हरियाणा राजनैतिक ईमानदारी के मॉडल थे. वे अब सामाजिक हिंसा और राजनैतिक अस्थिरता के नाबदान में तब्दील हो चुके हैं. सांप्रदायिक हिंसा और दंगे असम में वापस आ गए हैं, जिनकी वजह से कांग्रेस को ऐतिहासिक जीत मिली थी और इन्हीं की बदौलत अब कांग्रेस को ऐतिहासिक हार जैसा दंड मिल सकता है. प्रकट तौर पर कुछ नया न हो रहा हो तो क्या होता है? आप अपने वाहन और दिमाग पर नियंत्रण खो दें तो हादसा हो जाता है.

इसकी एक वजह नशा हो सकती है, दूसरी गफलत. सहयोगी दल स्टीयरिंग व्हील से दूर जाने की कोशिश कर रहे हैं, जिसको उन्हें कभी-कभी ही छूने की इजाजत दी गई है, ताकि किसी चट्टान के सामने आने पर वे गाड़ी को घुमाकर दूर ले जा सकें.

खबर यह नहीं है कि दिल्ली में क्या हो रहा है, बल्कि राजधानी के दरवाजे के बाहर से लेकर देश के सुदूर सीमावर्ती क्षेत्रों तक खतरनाक और बढ़ता कोलाहल दिख रहा है. बीजेपी भी कर्नाटक में त्रासदी की ओर बढ़ रही है और जबर्दस्त सफलता के कुछ ही महीनों के भीतर मुलायम सिंह यादव यूपी वालों को मायावती की फिर से याद दिलाने लगे हैं. यह ऐसी तकलीफदेह जकड़न है जो पूरे भारत को अपने गिरफ्त में ले रही है.