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केरल: कमाई का नया उभरता स्वर्ग

मलयाली जिस तादाद में पैसा कमाने दूसरे मुल्कों में जा रहे हैं, दूसरे राज्‍यों के मजदूर उनकी जगह लेने के लिए केवल पहुंच रहे. अच्छी कमाई से उनकी जिंदगी बदली लेकिन एक सामाजिक संकट भी है.

अपडेटेड 30 अप्रैल , 2012

हर रविवार कोच्चि से सटा हुआ एक उपनगर पेरुम्बावूर, बिहार, ओडिसा या पश्चिम बंगाल के किसी सामान्य कस्बे का रूप धर लेता है. लकड़ी के कारोबार के लिए मशहूर इस उपनगर की हर सड़क इन राज्‍यों से आए हजारों आप्रवासी मजदूरों की भीड़ से अंटी रहती है. ये मजदूर साप्ताहिक छुट्टी के दिन यहां खरीदारी करने, खाने-पीने या मेल-मुलाकात के लिए आते हैं.

पटरियों पर सजी दुकानों पर ग्राहकों का तांता लगा रहता है. इन दुकानों पर ज्‍यादातर मोबाइल फोन और दूसरे इलेक्ट्रॉनिक सामान बिकता है. ठेलेवाले रसोगुल्ला या गोजा जैसी बंगाली मिठाइयां बेचते नजर आते हैं. रेस्तरां हिंदी में लिखे मेन्यू पेश करते हैं. आसपास चलने वाली स्थानीय बसों में जगहों के नाम हिंदी में भी लिखे हुए देखे जा सकते हैं.

यह दिलचस्प है कि केरल जैसा राज्‍य जो खाड़ी या पश्चिमी मुल्कों में काम कर रहे अपने 25 लाख से ज्‍यादा कामगारों की कमाई पर पल रहा है, आज देश के अन्य राज्‍यों से आने वाले आप्रवासी मजदूरों के लिए स्वर्ग बन चुका है. प्लाइवुड उत्पादन में लगी 150 से ज्‍यादा फैक्टरियों की बदौलत पेरुम्बावूर और इसके आसपास का इलाका राज्‍य में आप्रवासी मजदूरों के सबसे बड़े केंद्र के रूप में उभरा है. यही नहीं उनकी तादाद दिन दूनी, रात चौगुनी बढ़ रही है.

केरल में फिलहाल उत्तर, पूरब और पूर्वोत्तर राज्‍यों के 20 लाख से ज्‍यादा श्रमिक अपनी आजीविका कमा रहे हैं. इनमें एक लाख से ज्‍यादा अकेले पेरुम्बावूर में हैं. हर कामकाजी दिन ये सुबह साढ़े छह बजे हजारों की संख्या में शहर के चौक पर इकट्ठे हो जाते हैं और फिर सबसे ज्‍यादा मजदूरी की बोली लगाने वाले के साथ निकल पड़ते हैं. मजदूरी स्थानीय ठेकव्दार और बोली लगाने वाले के बीच जबरदस्त सौदेबाजी के बाद तय होती है. 50 वर्षीय बैंक कर्मचारी शायजू थॉमस बताते हैं, ''यह शहर मुझे पुराने जमाने की गुलामों की मंडी की याद दिलाता है.''

पेरुम्बावूर ही क्यों, समूचा केरल आज उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल, ओडिसा, झारखंड, उत्तराखंड, असम और मणिपुर के अलावा पड़ोसी राज्‍य तमिलनाडु व कर्नाटक से आए मजदूरों के दम पर चल रहा है. इसके अलावा यहां बांग्लादेश और नेपाल जैसे देशों के भी काफी मजदूर हैं. फैक्टरियों के अलावा ये लोग घरेलू नौकर, मिस्तिरी, बढ़ई और नाई जैसे पेशों से अपनी रोजी-रोटी कमाते हैं.

संपन्न मुल्कों में काम कर रहे मलयालियों की ओर से अपने घर भेजी जाने वाली रकम अब सालाना 50,000 करोड़ रु. के आंकड़े को छू रही है. इस रकम की बदौलत केरल मानव विकास सूचकांक (ह्यूमन डेवलपमेंट इंडेक्स) के मामले में देश में शीर्षस्थ स्थान हासिल कर चुका है. नेशनल सैंपल सर्वे, 2010 ने भी कव्रल को देश के संपन्नतम और सबसे ज्‍यादा खर्च करने वाले राज्‍य का दर्जा दिया है. मलयालियों के बड़ी संख्या में पलायन और शारीरिक श्रम के प्रति स्थानीय लोगों की अरुचि की बदौलत देश की सर्वोच्च बेरोजगारी दर के बावजूद यहां मजदूरी की दर आसमान छू रही है.

पिछले पांच वर्षों में यहां औसत दैनिक मजदूरी लगभग दोगुनी हो चुकी है. आज एक मजदूर यहां प्रति दिन 300 से 500 रु. के बीच कमा लेता है. यह रकम राज्‍य में निर्धारित न्यूनतम मजदूरी से तो ज्‍यादा है ही, साथ ही आप्रवासी मजदूरों को उनके गृहराज्‍य में मिलने वाली मजदूरी से तीन गुना ज्‍यादा है. मुख्यमंत्री उम्मन चैंडी के शब्दों में, ''बंगाल और बिहार जैसे राज्‍यों के मुकाबले काफी ज्‍यादा मजदूरी मिलने की वजह से हमारा राज्‍य आप्रवासी श्रमिकों के लिए खाड़ी देशों जैसा हो गया है.''

हालांकि यहां पहुंचने वाले ज्‍यादातर मजदूर अर्धकुशल या अकुशल श्रेणी में आते हैं मगर उनकी ओर से अपने घर भेजी जाने वाली राशि प्रति सप्ताह करोड़ों रु. में पहुंच चुकी है. भारतीय स्टेट बैंक की पेरुम्बावूर शाखा के मुख्य प्रबंधक पी.एम. विजयन कहते हैं, ''हमारी शाखा से हर हफ्ते एक करोड़ रु. से ज्‍यादा राशि बाहर भेजी जाती है. हर सोमवार को 1,500 से ज्‍यादा मजदूर हमारी शाखा में आते हैं.''

केरल में आप्रवासी मजदूरों की बढ़ती तादाद पर पहला विस्तृत अध्ययन कोच्चि स्थित सेंटर फॉर सोशियो-इकोनॉमिक ऐंड एनवायर्नमेंटल स्टडीज (सीएसईएस) ने 2011 में किया. अध्ययन के मुताबिक, आप्रवासी मजदूरों की इस बाढ़ के पीछे कई वजहें हैं. इनमें संबंधित मजदूरों के गृहराज्‍य में खेती और परंपरागत उद्योगों का ह्रास तथा बेरोजगारी व ग्रामीण गरीबी में बेतहाशा वृद्धि को प्रमुख बताया गया है. इसके अलावा केरल में मजदूरी की ऊंची दर और खाड़ी देशों में स्थानीय मलयालियों के आप्रवास से पैदा हुई अर्धकुशल और अकुशल श्रमिकों की भारी कमी जैसे कारकों ने भी इस रुझान को बढ़ावा दिया है. इस अध्ययन का नेतृत्व कर रहे 45 वर्षीय एन.

अजीत कुमार कहते हैं, ''आप्रवासी मजदूर न रहें तो केरल की अर्थव्यवस्था ठहर सकती है.'' पेरुम्बावूर स्थित इंडो रीगल प्लाइवुड्स के मैनेजिंग पार्टनर बी. संतोष कुमार के मुताबिक, ''ये मजदूर देर तक काम करते हैं, इनकी यूनियनें नहीं हैं और ये लोग बहुत ज्‍यादा अपेक्षाएं भी नहीं रखते हैं.'' जाहिर है, इंडो रीगल प्लाइवुड्स के सभी 125 श्रमिक आप्रवासी हैं.

पिछले पांच साल से एक प्लाइवुड फैक्टरी में काम कर रहे असम के उत्तर लखीमपुर जिले से आए 35 वर्षीय कृष्ण गोगोई बताते हैं, ''भोजन को छोड़ दें तो हमें कव्रल में कोई शिकायत नहीं है. यहां मजदूरी ठीक-ठाक है, अच्छी जलवायु है और माहौल शांतिपूर्ण है.''

कई मजदूरों ने यहां अपने समाज की बढ़ती आबादी को देखते हुए छोटा-मोटा कारोबार भी शुरू किया है. पश्चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद से आए मुहम्मद अली पेरुम्बावूर में ढाबा चलाते हैं जबकि श्याम मंडल अपने बंगाली भाइयों के बीच मिठाइयां बेचते हैं.

मगर अजीत कुमार कहते हैं कि कथित अच्छी मजदूरी के बावजूद आप्रवासी मजदूर बेहद असुरक्षित हैं. ये लोग सामाजिक रूप से उन्नत माने जाने वाले इस राज्‍य में बेहद घटिया माहौल में रहते हैं. अध्ययन बताता है कि इन मजदूरों को सरकार की किसी भी किस्म की कल्याणकारी योजना का लाभ नहीं मिलता. यह स्थिति उस तथ्य के बावजूद है, जिसके मुताबिक सरकार राज्‍य के 45 लाख श्रमिकों को सुरक्षा देने के लिए विभिन्न योजनाओं के अंतर्गत प्रति वर्ष 322 करोड़ रु. खर्च कर रही है.

अध्ययन बताता है, ''ये आप्रवासी श्रमिक उन्हें उनके गृहराज्‍य में मिलने वाली सस्ता राशन या स्वास्थ्य बीमा योजना जैसी सुविधाओं का भी लाभ नहीं उठा पाते. इसकी सबसे बड़ी वजह है किसी भी किस्म के आवास प्रमाण पत्र का अभाव.'' बीते 29 मार्च को पेरुम्बावूर में एक आप्रवासी परिवार के दो बच्चों की झोंपड़ी की दीवार ढह जाने से मौत हो गई.

श्रम मंत्री शिबू बेबी जॉन कहते हैं, ''हम जल्दी ही यह आदेश जारी करने वाले हैं कि सभी नियोक्ता अपने यहां काम करने वाले आप्रवासी श्रमिकों का विस्तृत विवरण रखें. जो ऐसा नहीं करेंगे, उन्हें दंडित किया जाएगा.'' पूर्ववर्ती वाम जनतांत्रिक मोर्चे की सरकार ने 2010 में आप्रवासी मजदूरों के लिए देश की पहली कल्याणकारी योजना बनाई थी, मगर अब तक इस योजना में मात्र 20,000 मजदूरों का रजिस्ट्रेशन हो पाया है.

इस आप्रवास का दूसरा पहलू भी है. इसने बढ़ती अपराध दर जैसी नई मुसीबतों को जन्म दिया है. राज्‍य नियोजन बोर्ड आप्रवासी श्रमिकों को 'सामाजिक खतरे' के रूप में देखता है. खास तौर पर स्वास्थ्य विशेषज्ञ मानते हैं कि वे चिकनगुनिया जैसी ऐसी कई बीमारियों के वाहक हो सकते हैं, जो राज्‍य के लिए अब तक अनजानी थीं.

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