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गरीबी एक फुलटाइम जॉब है

कुछ लोग मानते हैं कि जो अमीर नहीं वो ऑटोमेटिक गरीब है. ऐसा है नहीं. गरीब वैसे लगता आदमी टाइप ही है.

अपडेटेड 14 अप्रैल , 2012

आज हम गरीब और गरीबी पर बात करेंगे. जब योजना आयोग को यह मानसिक विलास करने का सरकारी अधिकार है तो हमने ऐसा क्या बिगाड़ा है कि हम गरीब पर बात न करें?

आमतौर पर यह माना जाता है कि आदमी दो तरह के होते हैं-गरीब आदमी, और अमीर आदमी. हमारे जैसे समझदार लोगों का मानना है कि  यह वर्गीकरण ही गलत है. इसमें गरीब को आदमी मानकर चला जा रहा है. यह बात ठीक नहीं. गरीब को आदमी मानने पर अमीर नाराज होते हैं. संवेदनशील सरकार भी गुस्सा हो सकती है. गरीब को आदमी कहो तो कहने वाले को नक्सली करार दिया जा सकता है. सो हम इस लेख में उसे केवल गरीब कहेंगे, गरीब आदमी नहीं. उसे आदमी कहने, न कहने का निर्णय आप पर छोड़ते हैं. गरीब की परिभाषा आज तक नहीं बन सकी है. कुछ लोग मानते हैं कि जो अमीर नहीं है, वह आटोमेटिक ही गरीब है. पर ऐसा है नहीं. सारा पेच उसे आदमी मानने न मानने का है.

वैसे गरीब भी देखने में एकदम आदमी टाइप ही लगता है. उसकी भी दो टांगें, दो हाथ, गर्दन, सिर तथा पेट होता है. परंतु कुछ ऐसा चमत्कार है कि इसका पूरा शरीर और व्यक्तित्व अंततः बस पेट में सिमट कर रह जाता है. वरना इसका सिर भी होता है गो कि वह पेट के चक्कर में इतना झुका रहता है कि दिखता ही नहीं. इसकी गर्दन भी होती है गो कि वह अमीरी की मुट्ठी में यूं जकड़ी होती है कि पता ही नहीं चलती. इसकी दो टांगें भी होती हैं. इन पर वह जीवन भर दौड़ता हुआ गरीबी से परे भागने की कोशिश करता रहता है पर जा नहीं पाता क्योंकि गरीबी हजारों पैरों से उसका पीछा करके उसे दबोचे चलती है.

गरीब के दो हाथ भी होते हैं. ये हरदम खाली रहते हैं. गरीब के सिर पर एक अदद सूना आसमान तना रहता है, जिसमें उन तोतों के अलावा और कोई नहीं होता जो गरीब के हाथों से उड़े होते हैं. उसकी दो आंखें भी होती हैं. ये इतनी खाली होती हैं कि उनमें झांकने से भी डर लगता है. गरीब के दो कान भी होते हैं. उनसे उसे जमाने भर की लानतें तथा गालियां सुनने की ईश्वर प्रदत्त सुविधा मिली होती है.

इस तरह, ऊपर से सरसरी तौर पर देखा जाए तो एक गरीब में भी वे सारे अंग होते हैं जो यह भ्रम खड़ा कर सकते हैं कि वह भी एक आदमी है. परंतु, जैसा कि हमने बताया ही कि मात्र इतने से ही कोई आदमी नहीं हो जाता. गरीब को आदमी बन पाने की फुरसत ही नहीं मिल पाती. गरीबी ही उसका पूरा समय ले लेती है. गरीबी एक 'फुल टाइम जॉब' है.

गरीब इस धरती का सबसे पुराना प्राणी है. गरीबी वह चीज है जो शायद धरती के साथ ही प्रकट हुई. गरीबी, अमीरी का विलोम कतई नहीं है. इसका अपना स्वतंत्र अस्तित्व है. गरीबी इतनी पुरानी चीज अवश्य है परंतु इतनी सदियों बाद भी यह तय नहीं हो सका है कि आखिर यह चीज है क्या? इसकी परिभाषा क्या हो? कौन बनाए परिभाषा? गरीबी पर कौन चिंतन करे? किसके अध्ययन का विषय है यह? क्या राजनीतिशास्त्र का? राजनीति में तो गरीबी का उतना ही स्थान है जितना कि मोड़-माड़कर एक मत्रपत्र जगह घेरता है, बस. सदियों से गरीबी की राजनीति भी अमीर ही चलाते रहे हैं. कभी गरीबों ने चलाई भी तो वे अमीर बनकर ही चलाते रहे.

तो क्या यह अर्थशास्त्र का विषय है? कहते तो यही हैं परंतु अर्थशास्त्र के पास गरीब के लिए समय ही कहां है? अर्थशास्त्र का जन्म ही अमीरी को समझने-समझाने के लिए हुआ है. वैसे भी आदमी को एक बार अमीरी पैदा होने का मैकेनिज्‍म समझ में आ जाए तो वह अपने आप समझ जाता है कि गरीबी क्यों पैदा हो रही है?

तो क्या यह काम समाजशास्त्रियों का है? समाज में अभी भी बहुतायत तो गरीबों की ही है परंतु न जाने यह क्या खेल है कि गरीबों का समाज भी अंततः अमीरों द्वारा ही संचालित समाज है. इसीलिए समाजशास्त्र में भी गरीबी का जिक्र उड़ता-उड़ता ही मिलता है. अब बचा इतिहास. क्या गरीब इतिहास का विषय है? पर इतिहास में तो इसका जिक्र उड़ता-उड़ता भी नहीं मिलता. गरीब का कोई इतिहास कभी लिखा ही नहीं गया. इतिहास की किताबें राजाओं, महाराजाओं, चक्रवर्ती सम्राटों, बादशाहों और नवाबों के किस्सों से भरी हैं. उनकी प्रजा के किस्से कहीं मिलते ही नहीं.
इतिहास की किताब में यह तो है कि राजा ने सड़कें बनवाईं परंतु उन भिखारियों का कहीं जिक्र ही नहीं जो इन सड़कों से गुजरने वाले रथों तथा अश्वसवारों के पीछे भागते, रिरियाते हुए भीख मांगा करते थे ताकि वे गरीबी में उसी सड़क के किनारे पड़े भूखे न मर जाएं. इतिहास में यह तो दर्ज है कि राजा ने कुएं, बावड़ियां खुदवाईं परंतु यह कहीं भी नहीं बताया जाता कि उन कुओं में कूदकर कितने त्रस्त गरीबों ने आत्महत्या की?

तो क्या गरीब किसी की भी चिंता का विषय नहीं? वह कविता, कहानी, पेटिंग का ही विषय है? उससे भी क्या पता चल पाता है गरीबी के बारे में? मैंने ही अभी तक इस लेख में जो लिखा उससे आप गरीब के विषय में क्या जान सके? नहीं जान सके न?....यही होता है भाईसाहब. यह गरीब इतना रहस्यमय प्राणी है कि क्या कहें. सरकार भी इसका क्या तो करे? कोई भी क्या करे? गरीब और गरीबी पर केवल चिंता ही प्रकट की जा सकती है. वह तो हमने अभी की. खूब की. अब यह सनद रहे और प्रगतिशील इतिहास में लेखक का नाम भी दर्ज कराने में कभी काम आ जाए. तभी इस तरह के फालतू विषय पर लिखने का कोई मतलब बना भाईसाहब. है कि नहीं?

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