scorecardresearch

राजीव गांधी के रूप में एक बड़ा पेड़ गिरा

पचास वाले दशक के मध्य में कांग्रेस पार्टी के भीतर के सांप्रदायिक तत्वों ने जब पार्टी पर कब्जा जमा लिया था तब भारत विभाजन के बाद उभरा सांप्रदायिकता का प्रेत फिर हावी होता दिखने लगा था, लेकिन 1951 के मध्य में नेहरू ने जब दोबारा कांग्रेस का नियंत्रण अपने हाथ में लिया तो यह प्रेत दब गया.

अपडेटेड 21 मई , 2011

पचास वाले दशक के मध्य में कांग्रेस पार्टी के भीतर के सांप्रदायिक तत्वों ने जब पार्टी पर कब्जा जमा लिया था तब भारत विभाजन के बाद उभरा सांप्रदायिकता का प्रेत फिर हावी होता दिखने लगा था, लेकिन 1951 के मध्य में नेहरू ने जब दोबारा कांग्रेस का नियंत्रण अपने हाथ में लिया तो यह प्रेत दब गया.

इसके बाद 1952 और उसके बाद के आम चुनावों में कांग्रेस और अन्य धर्मनिरपेक्ष ताकतों को जबरदस्त विजय मिली. धर्म के नाम पर फायदा उठाने वाले राजनीतिक दल हाशिये पर धकेल दिए गए, भले ही वे अस्थायी तौर पर सत्ता में आए हों, जैसा कि 1977 में इमरजेंसी के बाद हुए चुनाव में हुआ.

जनता पार्टी और आरएसएस की दोहरी सदस्यता के सवाल पर उन्हें अपनी ही पंगत में जल्दी ही दरकिनार कर दिया गया. 

लेकिन प्रधानमंत्री के रूप में राजीव गांधी के कार्यकाल का दूसरा वर्ष शुरू होने पर, फरवरी 1986 से सांप्रदायिकता फिर से सिर उठाने लगी थी, मुख्य रूप से उस महीने फैजाबाद जिले के सत्र न्यायाधीश के उस आदेश के कारण जिसमें बाबरी मस्जिद/रामलला मंदिर के दरवाजे खोलने की बात कही गई थी.

अनेक लोगों का मानना है कि इसकी योजना अरुण नेहरू के करीबी समझे जाने वाले उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री ने बनाई थी. न्यायिक रोक के कारण मंदिर के दरवाजे पिछले 36 साल से बंद थे.

दरवाजे संयोग से उस समय खुले जब शाहबानो मामले में करीब साल भर पहले मुख्य न्यायाधीश चंद्रचूड़ द्वारा सुनाए गए फैसले को लेकर संसद में एक निजी प्रस्ताव पर खुली बहस चल रही थी. इस बहस में अप्रत्याशित कदम उठाते हुए प्रधानमंत्री ने अपने दो मंत्रियों को उस प्रस्ताव पर अलग- अलग विचार प्रकट करने की अनुमति दे दी थी.

इन विचारों का फैसले से उतना लेना-देना नहीं था. फैसले में शाहबानो को तंगी से निकालने के लिए मुआवजे के तौर पर हर महीने 179 रु. और कुछ पैसे गुजारा भत्ता देने की पुष्टि की गई थी. बल्कि इन विचारों का ताल्लुक उस फैसले में की गई टिप्पणियों से ज्‍यादा था जो मुस्लिम पर्सनल लॉ का अतिक्रमण करतीं या उसको चुनौती देती लग रही थीं.

हालांकि मुस्लिम महिला विधेयक का उद्देश्य पहले से तय कानून को और मजबूत करना था, कि खास तौर से तंगी के बारे में फौजदारी कानून के प्रावधान सभी समुदायों को संवैधानिक गारंटी देने की बात को कमजोर नहीं करेंगे. पर्सनल लॉ के मामले में प्रत्येक समुदाय के पास अपना कानून बनाने का मुक्त अधिकार होगा.

यह उदार विचारधारा का अजीब मिश्रण था और हिंदू उग्रवाद ने यह कह कर सांप्रदायिक भावनाओं को अप्रत्याशित रूप से भड़काया कि यह तो इस्लामी कठमुल्लाओं को खुश करने के लिए किया गया है. साथ ही देश में उस समय पंजाब में आतंकवादी गतिविधियों की वजह से सांप्रदायिक तनाव फैल रहा था, जिसकी शुरुआत 1978 में एक ही संप्रदाय के दो घटकों के बीच भड़के झ्गड़े से हुई थी.

ऑपरेशन ब्लूस्टार ने आग में घी का काम किया. कुल मिलाकर अयोध्या में ताला खुलने, शाहबानो विवाद और पंजाब में सांप्रदायिक आतंकवाद ने खूनखराबे से हुए विभाजन के कड़वे अनुभव के बाद देश की धर्मनिरपेक्ष परंपरा के लिए अब तक की सबसे गंभीर चुनौती खड़ी कर दी थी. राजीव गांधी ने संसद में धर्मनिरपेक्षता को ''राष्ट्रीयता का मजबूत जोड़'' बताते हुए जो बयान दिया था वह धर्मनिरपेक्षता पर संसद में दिया गया बड़ा बयान था.

लेकिन राजीव और सोनिया गांधी द्वारा सार्वजनिक रूप से माफी मांगने और लगातार कानूनी कार्रवाइयों के बावजूद, जिस तरह से राजीव गांधी के प्रधानमंत्री बनने के बाद तीन दिन तक सिखों की हत्याएं हुईं उससे उनकी धर्मनिरपेक्ष छवि के बारे में संदेह पैदा होता है.

उनकी शहादत के बीस साल बाद, यह महत्वपूर्ण है कि हम इस आरोप पर तटस्थ भाव से दोबारा विचार करें कि ''बड़ा पेड़'' गिरने की बात करके राजीव गांधी ने उस सांप्रदायिक उन्माद को बढ़ावा दिया या उसकी अनदेखी की जिसने इंदिरा गांधी की हत्या के बाद राजधानी और देश के अन्य भागों को गिरफ्त में ले लिया था. इंदिरा गांधी के अंगरक्षकों ने उनकी गोली मार कर हत्या कर दी थी जो सिख थे.

राजीव गांधी के प्रधानमंत्रित्व के सबसे खराब तीन दिन उनके लिए सबसे पहले तीन दिन थे. 31 अक्तूबर की दोपहर तक भीड़ जमा होने लगी थी. शाम तक बदले की भावना से लोग शिकार की खोज में सड़कों पर निकल चुके थे. हत्याओं का सिलसिला रात में शुरू हो गया था.

हिंसा पर काबू पाने की जिम्मेदारी वरिष्ठतम मंत्री, गृह मंत्री पी.वी. नरसिंह राव और देश के सर्वश्रेष्ठ प्रशासक माने जाने वाले दिल्ली के उप-राज्‍यपाल पर थी. दोनों विफल हो गए और नरसंहार के लिए जिम्मेदार प्रधानमंत्री को ठहराया गया. इस आरोप का प्रतीक यह है कि राजीव गांधी ने नरसंहार को यह कहकर उचित बताया कि ''जब बड़ा पेड़ गिरता है, धरती हिलती ही है.''

असली रिकॉर्ड के अध्ययन से एकदम अलग ही कहानी उभरती है. हिंसा के लिए उकसाने या उसे बढ़ावा देने से कहीं दूर राजीव गांधी ने 31 अक्तूबर की शाम रेडियो पर निवेदन किया थाः ''हमारी प्रिय इंदिरा गांधी की आत्मा को और किसी बात से उतना दुख नहीं पहुंचेगा जितना देश के किसी भी भाग में हिंसा भड़कने से पहुंचेगा.''

अगले दिन, टेलीविजन पर दिखाया गया कि राजीव गांधी कांग्रेस के उन कार्यकर्ताओं को फटकार लगा रहे हैं जो ''खून का बदला खून'' के नारे लगाते हुए इंदिरा गांधी के पार्थिव शरीर के बगल से गुजर रहे थे. अफसोस की बात कि इससे भी नृशंसता नहीं रुकी. 2 नवंबर की शाम तक ही इतने बल दिल्ली मंगाए जा सके कि उनकी तादाद इतनी हो सकी कि वे प्रभावी हो सकें.

यह उस फैसले का नतीजा था जो कई दशक पहले लिया गया था. इस फैसले के मुताबिक किसी तरह के तख्तापलट की संभावना को रोकने के लिए दिल्ली में सैनिकों की संख्या कम रखी गई थी. नए युवा प्रधानमंत्री के फैसले ने स्थिति को पूरी तरह बदल दिया.

शुरू के उन भयावह दिनों की घटनाओं को लेकर गलत सूचनाओं की जो आंधी बही उसमें इस झूठ को जानबूझ्कर बढ़ावा दिया गया कि राजीव गांधी ने कार्यभार संभालने के बाद राष्ट्र के नाम अपने पहले संदेश में ''बड़ा पेड़'' का हवाला दिया था. इस अफवाह का खंडन जरूरी है.

दिल्ली और अन्य स्थानों पर हर प्रकार की हिंसा जब रुक गई, विस्थापित लोगों को शिविरों में जगह दे दी गई, तथा राहत और पुनर्वास के उपाय शुरू कर दिए गए तब पूरे एक पखवाड़े बाद जाकर राजीव गांधी ने बोट क्लब में एक विशाल रैली में यह टिप्पणी की थी. यह रैली 19 नवंबर को इंदिरा गांधी के जन्मदिन पर आयोजित की गई थी.

उन्होंने वास्तव में जिन शब्दों का इस्तेमाल किया था, और जिस संदर्भ में ''बड़ा पेड़'' के गिरने की बात कही थी, उस पर विस्तार से गौर करने की जरूरत है. इस बात पर जोर देते हुए कि ''गुस्से में उठाया गया कोई भी कदम देश को नुकसान पहुंचा सकता है'' और ''गुस्से में कोई भी काम करके हम केवल उन लोगों की मदद करते हैं जो देश को तोड़ना चाहते हैं'' उन्होंने चेतावनी दी थी कि ''हमारा गुस्सा या हमारा दुख बदला लेने का कारण नहीं बनना चाहिए.''

हिंसा की शुरुआत से ही अपने सभी भाषणों में वे ऐसे गुस्से के खिलाफ   सभी को सावधान कर रहे थे (''खून मत बहाओ, नफरत छोड़ो '') उन्होंने खुद भी अंत तक इसका पालन किया. इसके बाद ही उन्होंने 'हुएक विशाल  पेड़'' के गिरने का चलताऊ जिक्र किया था. और इस जुमले को संदर्भ से काट कर उनकी छवि खराब करने के लिए कहा गया कि उन्होंने हिंसा से पहले ये बयान दिया था जबकि यह बयान तब दिया गया था जब किसी और की अपेक्षा खुद उस हिंसा को रोका था.

और इस जुमले के ठीक बाद जो बात उन्होंने कही, उसमें कहीं भी हिंसा को फिर से भड़काने की बात नहीं थी, राजीव गांधी ने हिंसा समाप्त करने का पूरा श्रेय खुद या सरकार को न देकर उनके सामने मौजूद कांग्रेस कार्यकर्ताओं सहित जनता को दिया. ''जैसे आपने इसे रोका है, आपकी मदद से भारत एक बार फिर एकजुटता के रास्ते पर आ गया है...''

3 नवंबर के बाद, चाहे उकसावा कितना भी जबरदस्त क्यों न रहा हो, किसी निर्दोष सिख को नुकसान नहीं पहुंचाया गया. मई, 1985 में जब राजधानी में अनेक ट्रांजिस्टर बम धमाके हुए, मैंने खुद राजीव गांधी को दिल्ली के प्रत्येक सांसद को बुलाकर यह कहते और जिम्मेदारी देते हुए सुना कि वे सुनिश्चित करें कि किसी प्रकार की सांप्रदायिक हिंसा न हो.

पंजाब और उसके आसपास हिंदुओं की लगातार हत्याओं के बावजूद उनकी सुध लेने वाला न तो उस वक्त कोई था और न ही बाद में. 3 नवंबर, 1984 के बाद भारत भर में सिख समुदाय के जीवन और उनकी संपत्ति की रक्षा का आश्वासन दिया गया, चाहे सिख समुदाय के नाम पर आतंकवाद अगले दशक तक जारी रहे. 

राजीव गांधी के प्रधानमंत्रित्व का काल खत्म होने तक, पंजाब के 47 फीसदी थानों को आतंकवादी वारदात की एक भी जानकारी नहीं मिली थी. पंजाब में आतंकवाद नब्बे के दशक के मध्य तक खत्म कर दिया गया, लेकिन दुख इस बात का है कि तब तक खुद राजीव गांधी एक मानव बम का शिकार बन चुके थे.