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कब वार करेंगे मुलायम सिंह यादव?

सपा नेता ने कार्यकर्ताओं से 2013 में लोकसभा चुनाव की तैयारी करने को कहा. कब तक खैर मनाएगी यूपीए सरकार?

अपडेटेड 23 जुलाई , 2012

उस सरकार में शामिल होने की क्या तुक है जो अंत की ओर बढ़ रही है?'' उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने इंडिया टुडे से मुस्कराते हुए कुछ ऐसा कहा. यह जवाब हमारे उस सवाल पर था जिसमें हमने उनसे पूछा था कि क्या समाजवादी पार्टी केंद्र में कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार में शामिल होगी. यह 18 जुलाई की शाम की बात है जिसके कुछ ही घंटों पहले उनके पिता मुलायम सिंह यादव राष्ट्रपति चुनाव के पहले यूपीए द्वारा आयोजित शानदार लंच में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के साथ टेबल पर बैठे हुए थे. 

जो लोग यह समझ रहे थे कि यह लंच सरकार में हिस्सेदारी की भूमिका थी, उनके लिए यह बयान निराश कर देने वाला था. इससे इस बात का भी संकेत मिला कि राजनैतिक जमात को पता हैः मुलायम के पास तुरुप के इक्के हैं और वे ऐन मौके पर उन्हें चलेंगे.

अखिलेश की टिप्पणी उस बानगी का हिस्सा है जो इस साल मार्च से ही देखी जा रही है. पांच साल बाद उत्तर प्रदेश में सपा के सत्ता में आने के कुछ समय बाद ही 18 मार्च को पार्टी कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए मुलायम सिंह यादव ने अपना आकलन पेश कियाः ''कुछ नहीं कहा जा सकता कि आम चुनाव (जो 2014 में होना है) कब हो जाएं. यह अब किसी भी दिन हो सकते हैं.'' इसी विचार को उन्होंने पांच दिन के बाद लखनऊ में एक समारोह को संबोधित करते हुए दोहराया.

इसके बाद फिर 11 जून को राजधानी में अपनी पार्टी के केंद्रीय संसदीय बोर्ड को संबोधित करते हुए उन्होंने सांसदों से कहा कि वे खूब मेहनत करें और जल्दी चुनावों के लिए तैयार रहें. इसके एक महीने बाद 10 जुलाई को मुलायम सिंह ने एक बार फिर चुनावों की संभावना जताकर राजनैतिक तबके में हलचल मचा दी.Mulayam and Akhilesh

लखनऊ के 19, विक्रमादित्य मार्ग पर स्थित पार्टी कार्यालय में सपा कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा, ''हमें चुनावों के लिए तैयार रहना चाहिए. यह समय से पहले हो सकते हैं और संभवतः अगले साल ही. इसलिए यह महत्वपूर्ण है कि पार्टी के नेता गंभीरता से काम करें और अपने-अपने क्षेत्र का दौरा करें.'' इसके कुछ मिनट बाद ही इसी मंच पर उनके चचेरे भाई रामगोपाल यादव ने उस समय माहौल और गर्मा दिया जब उन्होंने उन सभी 58 लोकसभा क्षेत्रों के लिए पर्यवेक्षकों के नामों की घोषणा कर दी जहां 2009 के चुनाव में सपा उम्मीदवार हार गए थे.

इस पर अखिलेश ने सफाई दी, ''लोकसभा चुनाव किसी भी तरह से 2014 की शुरुआत में होने ही हैं. इसलिए अगर हम अपने लोगों से 2013 तक तैयार रहने को कह रहे हैं तो इसमें चेतावनी वाली कोई बात नहीं है. आखिर मैंने भी तो अपनी रथयात्रा उत्तर प्रदेश में चुनावों से सात महीने पहले शुरू की थी.''

मुलायम लगातार ऐसे खेल खेलने या तेवर दिखाकर यूपीए को पस्त करने के अभ्यस्त हो चुके हैं. उनका अनुमानित गणित जमीनी वास्तविकता के कठोर विश्लेषण पर आधारित है. वे समझते हैं कि मार्च में विधानसभा चुनाव में मिली जीत की ऊंचाई से और ऊपर जाना शायद ही संभव होगा और अगर उन्हें अगले लोकसभा चुनाव में ज्‍यादा से ज्‍यादा सीटें जीतनी हैं तो लंबे समय तक इंतजार नहीं किया जा सकता. मार्च, 2013 में चुनाव होने से उन्हें अधिकतम सीटें मिल सकती हैं, जबकि 2014 में चुनाव होने से वह अपना प्रदर्शन शायद ही इतना बेहतर पर पाएंगे.

लेकिन मुलायम यदि सरकार को गिराकर चुनाव के लिए मजबूर करना चाहते हैं तो उन्हें जल्द कुछ करना होगा. ऐसा कुछ मानसून सत्र के दौरान हो सकता है जो 8 अगस्त से शुरू हो रहा है. रसूख के बढ़ते संकट से लेकर सहयोगी दलों की महत्वाकांक्षाओं तक कई वजहों से अगस्त का महीना कांग्रेस के लिए असाधारण रूप से अशांत रहने वाला है.

तृणमूल कांग्रेस की नेता ममता बनर्जी की सोच भी मुलायम सिंह की ही तरह है. एनसीपी नेता शरद पवार ने भी यूपीए मंत्रिमंडल में प्रधानमंत्री के बाद नंबर-2 हैसियत न मिलने पर इस्तीफे की धमकी दे डाली है.

चुनावी बिसात
सही कहानी की तलाश
इस तूफान की दिशा उधर ही होगी जिधर मुलायम इसे ले जाएंगे. उनके पास लोकसभा का संतुलन है, न सिर्फ  संख्या पर बल्कि उसके डोलने की गति पर भी. मुलायम ने अपनी इच्छा जता दी है, लेकिन उन्होंने यह साफ  नहीं किया है कि इस उद्देश्य को पाने के लिए उनकी योजना क्या है.

यह खेल भी जोखिम भरा है. जब आप जल्द चुनाव के लिए मजबूर करते हैं तो आपके पास इसके लिए ऐसी एक कहानी होनी चाहिए जिससे जनता को संतुष्ट किया जा सके.

सरकार इस तथ्य से कुछ राहत महसूस कर रही है कि सरकार को अस्थिर करने की राह धुंधली है और इससे आसानी से निपटा जा सकता है. खुद कांग्रेस का सरकारों को अस्थिर करने का पिछला रिकॉर्ड ऐसा सबक है जिसे नेता भूलना नहीं चाहते. कांग्रेस ने केंद्र में चार सरकारें गिराई हैं, लेकिन ऐसी सिर्फ एक कवायद से उसे फायदा हुआ है.Sonia and Rahul

इंदिरा गांधी ने 1979 में चरण सिंह की सरकार को गिराने का खेल रचा था, राजीव गांधी ने 1991 में चंद्रशेखर सरकार की पटरी उखाड़ दी, सीताराम केसरी ने 1997 में एच.डी. देवगौड़ा और 1998 में इंद्र कुमार गुजराल सरकार को डुबो दिया. लेकिन सिर्फ इंदिरा गांधी ही इस खेल का फायदा उठा पाईं क्योंकि उन्होंने बहुत सोच-समझ कर योजना बनाई थी कि आगे उन्हें क्या करना है.

मुलायम जानते हैं कि लोकसभा में सिर्फ  21 सांसदों के दम पर वे जल्दी चुनाव कराने का माहौल नहीं बना सकते. इसके लिए उन्हें यूपीए के भीतर ही कांग्रेस विरोधी गठबंधन बनाना होगा. क्या उन्हें इसके लिए सहयोगी दलों या उनके एक गुट का समर्थन मिलेगा? यूपीए को लोकसभा में 272 सांसदों का समर्थन हासिल है जो 543 सदस्यों वाली लोकसभा में बमुश्किल आधे के पार है. इनमें टीएमसी के 19 सदस्य शामिल हैं.

बहुजन समाज पार्टी (20 सांसद) और राष्ट्रीय जनता दल (4 सांसद) बाहर से समर्थन दे रहे हैं. सरकार को गिराने की कहानी सिर्फ  पार्टी के लिए फायदेमंद वजहों के आधार पर नहीं रची जा सकती. जनता को यह बात समझानी होगी कि सरकार ने अपना सरोकार खो दिया है. मुलायम सिंह सबसे बढ़िया तर्क यह दे सकते हैं कि किसान आर्थिक रूप से बदहाल होते जा रहे हैं. देश के एक बड़े हिस्से में सूखे की आशंका से असंतोष की राजनीति को धार मिल गई है.

आर्थिक सुस्ती और लगातार बढ़ती महंगाई की निराशाजनक कहानी सबको पता है. कमजोर मानसून से मुलायम के मुख्य आधार समर्थक किसानों पर और मार पड़ने वाली है. सरकार द्वारा संचालित भारतीय मौसम विज्ञान विभाग (आइएमडी) के अनुसार, जून के पहले तीन हफ्तों में देश भर में बारिश लंबे समय के औसत का 76 फीसदी ही रही. औसत से 94 फीसदी से नीचे बारिश को कम माना जाता है. आइएमडी के अनुसार अगस्त माह में सामान्य से कम 42 फीसदी बारिश होने की संभावना है और सामान्य बारिश होने की संभावना 36 फीसदी.

आइएमडी के मुताबिक, स्थिति और खराब ही होगी, बेहतर नहीं. अर्थशास्त्री और पूर्व केंद्रीय मंत्री योगेंद्र के. अलघ का मानना है कि खरीफ  की फसल को तो नुकसान हो ही गया है. उन्होंने कहा, ''पूरे जून और जुलाई के पहले हफ्ते में बारिश न होने से बुआई बहुत कम हो पाई है. शुरुआती बारिश कम होने से पैदावार भी कम होती है.''

इस प्रकार कमजोर मानसून कृषि पैदावार पर गंभीर असर डाल सकता है. हालांकि, इसका जीडीपी पर असर कम ही होगा क्योंकि कृषि क्षेत्र का जीडीपी में योगदान सिर्फ 14 फीसदी है. लेकिन लोगों पर इसका असर बहुत ज्‍यादा होगा क्योंकि देश की कुल श्रमशक्ति का 52 फीसदी हिस्सा कृषि क्षेत्र में लगा है. अलघ कहते हैं, ''रोजगार में कमी आएगी, पेयजल की गंभीर समस्या पैदा होगी और लोग मनरेगा पर ज्‍यादा निर्भर हो जाएंगे.'' प्रमुख कृषि जिंसों के दाम भी बढ़ जाएंगे जिसका असर समूची आबादी पर होगा.

जून माह में थोक मूल्य सूचकांक पर आधारित महंगाई मई के 7.55 फीसदी से गिरकर 7.25 फीसदी पर आ गई, इस दौरान खाद्यान्न संबंधी महंगाई बढ़कर 10.81 फीसदी पर पहुंच गई जो जून, 2011 (सामान्य मानसून) के 7.6 फीसदी के मुकाबले बहुत ज्‍यादा है. यदि खाद्य वस्तुओं की कीमतें बढ़ती रहीं तो दीवाली तक महंगाई की दर फिर से दो अंकों में पहुंचने की आशंका है.

कम बारिश से ऐसी अपरिहार्य स्थिति बन जाएगी जिसमें हर राज्‍य अतिरिक्त पैकेज की मांग करेगा. कर्नाटक के नए मुख्यमंत्री जगदीश शेट्टार ने 18 जुलाई को केंद्र सरकार से 2,000 करोड़ रु. के पैकेज की मांग की है. मुलायम ने केंद्र सरकार को उन प्रोजेक्ट के लिए 45,000 करोड़ रु. का अनुदान देने को मना लिया है जो संभवतः अभी तक राज्‍य सरकार की निष्क्रियता की वजह से नहीं मिल पाया था, लेकिन यदि सूखा पड़ता है तो वह और रकम की मांग करेंगे.Mulayam Singh Yadav

अगर दूसरे राज्‍यों को मदद मिली तो ममता बनर्जी भी चुप नहीं बैठेंगी, जिनकी बंगाल के लिए 22,000 करोड़ रु. के पैकेज की मांग ठुकरा दी गई, सूखे से संबंधित मदद की मांग केंद्र सरकार पर भारी दबाव डालेगी जो पहले से ही बेकाबू वित्तीय घाटे से जूझ रही है. सूखा राहत पैकेज में यदि 50,000 करोड़ रु. खर्च करने पड़े तो इससे वित्तीय घाटे में 0.5 फीसदी की बढ़त हो जाएगी.

फिर से दबाव
मानसून सत्र में खराब रहेंगे हालात
कमजोर मानसून ही अकेले यूपीए सरकार का सिर दर्द बढ़ाने वाला नहीं है. मनमोहन सिंह सरकार भ्रष्टाचार के कई आरोपों से जूझ रही है जिससे कांग्रेस पहले से ही बुरी तरह पस्त है. इसके खिलाफ असंतोष ने उत्तर प्रदेश निकाय चुनावों में इसे सिर के बल खड़ा कर दिया है, जिसके नतीजे 7 जुलाई को घोषित किए गए. मेयर की 14 सीटों में से 12 सीटें बीजेपी के खाते में गईं, जबकि दो अन्य सीटों पर सपा और बसपा समर्थित निर्दलीय प्रत्याशी काबिज हुए.

8 अगस्त से शुरू हो रहे संसद के मानसून सत्र में सरकार पर और दबाव दिखाई देगा.  एक ओर सरकार नीतिगत पक्षाघात के लिए भारतीय उद्योग जगत और विदेशी नेताओं की भारी आलोचना झेल रही है-अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा और सिंगापुर के प्रधानमंत्री ली सिएन लिउंग हाल के हफ्तों में इस मामले में मुखर रहे हैं. इसका जवाब देना होगा. इसलिए एफडीआइ को लेकर नए सिरे से सक्रियता दिख रही है. पिछली बार जब नवंबर, 2011 में सरकार ने खुदरा कारोबार में एफडीआइ को खोलने की कोशिश की थी तो उसे यूपीए में विद्रोह का सामना करना पड़ा था.

कांग्रेस को लगता है कि अब स्थिति दूसरी है. लेकिन वह गलत हो सकती है. 18 जुलाई को केंद्रीय वाणिज्‍य मंत्री आनंद शर्मा ने एक बिजनेस अखबार से कहा कि पश्चिम बंगाल के अलावा अन्य राज्‍यों की ओर से रिटेल कारोबार में एफडीआइ के विरोध की संभावना बहुत कम है. उसी दिन अखिलेश ने एक अखबार से कहा कि रिटेल कारोबार में एफडीआइ आम आदमी के खिलाफ है. सरकार यदि एफडीआइ के एजेंडे पर आगे बढ़ती है तो मुलायम और ममता से टकराव अपरिहार्य है. डीजल की कीमत को नियंत्रणमुक्त करने के मामले में भी सरकार को संसद में सहयोगियों के कोप का सामना करना पड़ सकता है, जिसकी वजह से एक झटके में ही डीजल की कीमत 13 रु. प्रति लीटर बढ़ जाएगी.

कांग्रेस के आर्थिक कुप्रबंधन के बड़े मसलों के उठाए जाने पर मुलायम, ममता के साथ खड़े हो सकते हैं. कांग्रेस के सामने अब सदन में फ्लोर मैनेजमेंट की चुनौतियां बढ़ गई हैं क्योंकि अब प्रणब मुखर्जी राष्ट्रपति भवन की ओर अग्रसर हैं. शायद कांग्रेस के लिए सबसे कठिन तात्कालिक निर्णय लोकसभा के नेता का नाम तय करने का होगा.

केवल मुखर्जी के पास ही वह कद और प्रभाव था कि वे बीजेपी के चार वरिष्ठ नेताओं-मुरली मनोहर जोशी, राजनाथ सिंह, यशवंत सिन्हा और जसवंत सिंह को 15 मार्च को लोकसभा में उन्हें ''चिड़चिड़े बच्चों जैसे व्यवहार पर'' डपट लगाते हुए बैठा पाए. और किसी के पास वह कद नहीं है जो किसी को इस तरह से डांट-फटकार सके. इसलिए अचरज की बात नहीं है कि इस डांट-फटकार के बाद सोनिया ने मुखर्जी के कान में कहा था, ''इसलिए तो हमें आपकी जरूरत है.''

शिखर का शून्य
पार्टी बेहाल, युवराज नदारद
मुलायम सिंह, ममता बनर्जी और गठबंधन के अन्य सहयोगी अगर यूपीए सरकार की नकेल कसने में अब ज्‍यादा मजबूत स्थिति में हैं तो सिर्फ  इसलिए कि कांग्रेस का नेतृत्व कमजोर है. पांच साल पहले राष्ट्रपति चुनाव के वक्त किसी ने चूं तक नहीं की थी. इस बार बवाल मच गया. कांग्रेस में हालात ऐसे बन गए हैं कि सामान्य घटना भी संकट की शक्ल ले रही है. ऐसे हालात में कांग्रेस की रणनीति यह होती है कि इस बात का प्रचार कर दिया जाए कि एक और संकट टल गया और अब सब कुछ ठीक है.

राष्ट्रपति चुनाव के लिए मतदान से ठीक एक दिन पहले 18 जुलाई को सोनिया ने दिल्ली के अशोक होटल में यूपीए और उसके सहयोगियों को दावत दी. दस्तरख्वान पर भारतीय और चाइनीज पकवान थे और दावत का एजेंडा राष्ट्रपति और उप-राष्ट्रपति चुनाव में सहयोगियों की मदद के लिए उन्हें धन्यवाद देना था. चूंकि जनता दल (यूनाइटेड) और शिवसेना यूपीए गठबंधन में नहीं हैं इसलिए इन्हें न्योता नहीं भेजा गया था, हालांकि दोनों ही पार्टियों ने मुखर्जी का ही समर्थन किया था.

प्रधानमंत्री के साथ बैठे थे राहुल गांधी, मुलायम, फारूक अब्दुल्ला और प्रफु ल्ल पटेल जबकि सोनिया के साथ शरद पवार, लालू यादव, रामविलास पासवान और टीआर बालू बैठे थे. मायावती इस भोज में नहीं आई थीं. उन्होंने सांसद भेज दिए थे. उस भोज का खाना पचा भी नहीं था कि अखिलेश की टिप्पणी ने सियासी हलके का जायका बिगाड़ दिया.

कांग्रेस के शीर्ष पर नेतृत्व का जो सपाट मैदान खाली पड़ा है, उसे न सिर्फ  विपक्षी बल्कि सहयोगी दल भी बड़े गौर से देख रहे हैं. अगले आम चुनाव में मनमोहन सिंह पार्टी का नेतृत्व नहीं करने जा रहे. सोनिया गांधी अपने स्वास्थ्य के चलते पहले ही दौड़ से बाहर हैं. मुखर्जी भी नहीं होंगे. कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी अभी पाले में घुसे भी नहीं हैं. जब सन्नाटा होता है, तो कांग्रेस कहे-सुने पर सिद्धांत गढ़ लेती है. मसलन, एक कैबिनेट मंत्री ने बताया, ''मैंने जो सुना है, उसके मुताबिक राहुल ने मां से कहा है कि वे तभी प्रधानमंत्री बनेंगे जब कांग्रेस पूर्ण बहुमत में आएगी. ऐसा तो खैर काफी लंबे समय तक नहीं होने वाला.''

विकल्पों की कमी के चलते कांग्रेसी अब राहुल पर दबाव डालने लगे हैं कि वे अपनी आरामगाह से बाहर आएं और ज्‍यादा महती जिम्मेदारी कंधों पर लेकर अपनी मेहमान की भूमिका को खत्म करें. कांग्रेस के महासचिव दिग्विजय सिंह ने मीडिया से कहा है कि सितंबर तक पार्टी संगठन के भीतर राहुल कुछ बड़ी जिम्मेदारियां निभाने लग जाएंगे.

इस बयान के बाद कांग्रेसी यह कयास लगाने लगे कि राहुल को या तो पार्टी का उपाध्यक्ष या फिर कार्यकारी अध्यक्ष बना दिया जाएगा, जिसे साफ  करने के लिए दिग्विजय ने इंडिया टुडे  को बताया कि उन्हें अपने नेता की योजनाओं के बारे में कुछ पता नहीं है, वे तो बस पार्टी की उनसे अपेक्षाओं को आवाज दे रहे थे. दिग्विजय बोले, ''लोग दरअसल यही अपेक्षा कर रहे हैं. सितंबर मैंने इसलिए कहा क्योंकि तब तक राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के चुनाव खत्म हो चुके होंगे. वह सही वक्त होगा.''

बहरहाल, 18 जुलाई को जब सोनिया गांधी उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी को परचा भरवाने ले जा रही थीं, तो संसद के बाहर उन्होंने एक ही बयान देकर सारी अटकलों पर विराम लगा दिया, ''राहुल की ओर से कोई नहीं बोल सकता.''

अगले ही दिन संसद में राहुल ने संवाददाताओं को बताया कि वे पार्टी और सरकार में बड़ी भूमिका निभाने को तैयार हैं, उन्होंने यह भी कहा कि उनकी भूमिका पर आखिरी फैसला कांग्रेस अध्यक्ष को ही लेना है. सोनिया पिछले काफी लंबे समय से कोशिश कर रही हैं कि राहुल नेतृत्व की कमान अपने हाथ में लें. पिछले अगस्त में उन्होंने इस बात के साफ संकेत दिए थे जब वे सर्जरी के लिए विदेश गई थीं.

अहमद पटेल, जनार्दन द्विवेदी और ए.के. एंटनी की तीन सदस्यीय कोर कमेटी के साथ उन्होंने पार्टी मामलों का कार्यभार अपने बेटे को ही सौंपा था. यही वह वक्त था जब अण्णा हजारे ने रामलीला मैदान में अनशन कर के संसद को तकरीबन बंधक बना डाला था और सरकार से जनलोकपाल बिल पारित करने की मांग उठाई थी. राहुल के लिए यह सही मौका था कि कमान अपने हाथ में लेते, लेकिन वे सीन से गायब रहे सिवाय संसद में एक बयान के, जिसके कारण पूरी पार्टी को ही कदम पीछे खींचने पड़ गए. उस घटना के बाद से ही वे राष्ट्रीय राजनीति से दूर हैं.

पार्टी के एक सांसद बताते हैं, ''राष्ट्रपति चुनाव के दौरान वे आसानी से कमान अपने हाथों में ले सकते थे. प्रणब मुखर्जी पर दांव सटीक है.'' फिलहाल, कैबिनेट और संगठनात्मक उलटफव्र के अंदेशे में कांग्रेसी जोड़-तोड़ करने में जुटे हुए हैं. सरकार का काम ठप पड़ा है.

मजबूत करते आधार
मुलायम का एमवाइ समीकरण
मुलायम सिंह की निगाहें निशाने पर हैं. वे अपने मुस्लिम-यादव चुनावी समीकरण को मजबूत करने निकल चुके हैं. विधानसभा चुनाव में अल्पसंख्यकों ने उन पर भरोसा जताया था. उसी का इनाम देते हुए शाही इमाम मौलाना बुखारी के दामाद को वे विधान परिषद में ले आए हैं और मौलाना कल्बे जव्वाद के इशारे पर शिया वक्फ बोर्ड के अध्यक्ष वसीम रिजवी को उनके पद से हटा दिया गया.

इसके बाद अखिलेश ने बाबरी मस्जिद ऐक्शन कमेटी के संयोजक जफरयाब जिलानी को राज्‍य का अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल भी नियुक्त कर दिया. सरकार ने तमाम प्रोत्साहनकारी घोषणाएं की हैं, जिनमें एक हाइस्कूल पास करने वाली हर मुस्लिम लड़की को 30,000 रु. की मदद देने की बात है. मुलायम अपनी पार्टी के सांगठनिक ढांचे को भी दुरुस्त करने में लग गए हैं. पार्टी संगठनों जैसे लोहिया वाहिनी, छात्र सभा, समाजवादी युवजन सभा और मुलायम सिंह यूथ ब्रिगेड जिसने विधानसभा चुनावों में अहम भूमिका निभाई थी, इन सबको आम चुनाव के लिए कमर कस लेने के आदेश दिए गए हैं.

मुलायम की योजनाओं में राज्‍य प्रशासन ने हमेशा बड़ी भूमिका अदा की है. उन्होंने अखिलेश के साथ मिलकर राज्‍य मशीनरी को ताश के पत्तों की तरह फेंट दिया है. अखिलेश ने मुख्य सचिव के पद को दोबारा बहाल किया और अपने पिता के वफादार आइएएस जावेद उस्मानी को इस पर बैठा दिया. राज्‍य सरकार ने पिछले तीन महीने में 2,000 से ज्‍यादा वरिष्ठ और कनिष्ठ अधिकारियों के तबादले कर दिए हैं. सभी 75 जिलों में नए जिला मजिस्ट्रेट लाए गए हैं.

सभी में नए एसपी या एसएसपी तैनात किए गए हैं. सपा के राज्‍यसभा सांसद और पूर्व पार्टी प्रवक्ता मोहन सिंह कहते हैं, ''हम चुनाव के लिए तैयार हैं.'' उनसे जब पूछा गया कि राष्ट्रपति चुनाव की दौड़ में उनकी पार्टी यूपीए के काफी करीब आती दिख रही है, तो उन्होंने जवाब दिया, ''सड़क पर जब गाड़ियां चलती हैं तो हादसे होते हैं. हमने ट्रॉमा सेंटर खोल रखा है. मोरारजी देसाई की सरकार दो साल में गिर गई.

विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार दस महीने में चली गई. अटल बिहारी वाजपेयी की शुरुआती दो सरकारें 13 दिन और 13 महीने ही टिक पाईं. भारतीय राजनीति में आप कोई पूर्वानुमान नहीं लगा सकते.''