गंगा का पानी किसका है और हिमालय की चोटियों में अगर खनन होना है तो क्या उसकी नीलामी होगी या फिर उसे पहले आओ, पहले पाओ के आधार पर कंपनियों को दिया जाएगा. ऐसे सवाल अब बेतुके नहीं रहे. पिछली 2 फरवरी को सुप्रीम कोर्ट के न्यायमूर्ति जी.एस. सिंघवी और ए.के. गांगुली की पीठ ने पूर्व संचार मंत्री ए. राजा के जारी किए 122 टेलीकॉम लाइसेंसों को रद्द करने का आदेश दिया. राजा ने 2008 में 'पहले आओ, पहले पाओ' के आधार पर ये लाइसेंस जारी किए थे.
शीर्ष अदालत ने अपने आदेश में कहा कि 'पहले आओ, पहले पाओ' की नीति असंवैधानिक है क्योंकि यह समान अवसर के सिद्धांत के खिलाफ है. इस आदेश से तमाम किस्म के प्राकृतिक संसाधनों के आवंटन की सरकारी नीति पर असर पड़ेगा. अदालत ने यह आदेश भी दिया कि ''प्राकृतिक संसाधनों को हस्तांतरित करने की स्थिति में सरकार की जिम्मेदारी है कि वह नीलामी प्रक्रिया अपनाए.''उद्योग जगत और सरकार में इससे हड़कंप मच गया है.
उद्योगपति और सांसद राजीव चंद्रशेखर इस फैसले का मजबूती से समर्थन करते हैं. चंद्रशेखर कहते हैं, ''किसी सार्वजनिक संपत्ति को निजी व्यावसायिक उपयोग के लिए देते वक्त सरकार को तीन उसूलों का पालन करना चाहिए-पारदर्शिता, संपत्ति को हासिल करने के इच्छुक सभी पक्षों के लिए समान अवसर और सार्वजनिक हित की रक्षा. सिर्फ नीलामी से ही यह सब संभव है.'' दूसरे लोग इतने आशावादी नहीं हैं. अर्थशास्त्री बिबेक देबरॉय कहते हैं, ''सिद्धांत रूप में नीलामी सबसे अच्छा तरीका है. लेकिन मुझे नहीं लगता कि सरकार को फैसला लेने के अधिकार से पूरी तरह किनारा कर लेना चाहिए. झटपट राजस्व बढ़ाने के अलावा भी कुछ लक्ष्य होने चाहिए, जैसे किसी खास बाजार का दीर्घकालिक विकास.'' फरवरी और जून, 2011 के बीच प्राकृतिक संसाधनों के आवंटन के लिए गठित सरकारी समिति के मुखिया और कंपिटीशन कमीशन के चेयरमैन अशोक चावला कहते हैं, ''पहले आओ, पहले पाओ की नीति और नीलामी, इन दोनों के बीच कई और तरीके भी मौजूद हैं.''
तेल और गैस: शुरू हो चुकी हैनीलामी की प्रक्रिया
स्पेक्ट्रम के अलावा यह एकमात्र प्राकृतिक संसाधन है, जिसके लिए खुली और प्रतियोगी बोलियां लगती हैं. 1997-98 में तैयार की गई नई खोज और लाइसेंस पॉलिसी (एनईएलपी) सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के अनुरूप है. तेल और गैस क्षेत्र में दिक्कत यह है कि यह बोली-उपरांत चरण में है, जहां निजी खोजकर्ता और सरकार के बीच समझौते की मॉनीटरिंग चल रही है. आवंटन के बाद भी सरकार को हर हाल में यह सुनिश्चित करना है कि उसे पर्याप्त पैसा मिले. चावला कहते हैं, ''मेरी अध्यक्षता वाली समिति ने तेल खोज और उत्पादन (अपस्ट्रीम) क्षेत्र में एक स्वतंत्र नियामक की सिफारिश की थी, ताकि मॉनीटरिंग ठीक ढंग से हो सके.'' अपस्ट्रीम क्षेत्र के लिए नियामक का काम महानिदेशक हाइड्रोकार्बन (डीजीएच) देखते हैं जो सीधे पेट्रोलियम मंत्रालय के अधीन आते हैं. सीएजी ने रिलायंस इंडस्ट्रीज के केजी-डी6 बेसिन मॉनीटरिंग के मामले में पूर्व डीजीएच वी.के. सिब्बल की भूमिका पर गंभीर सवाल खड़े किए थे. सीबीआइ भ्रष्टाचार के आरोपों पर सिब्बल की जांच कर रही है.
जमीन और जंगल: तय करें कहां व्यावसायिक इस्तेमाल होगा
जल, जंगल और जमीन जैसे संसाधनों के लिए नीलामी हो पाना शायद संभव नहीं होगा. ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश, जो भूमि संसाधन मंत्रालय का काम भी देखते हैं, सुप्रीम कोर्ट के फैसले के मामले में कहते हैं, ''कोर्ट ने प्राकृतिक संसाधनों के निष्पादन के लिए दिशा-निर्देश दिए हैं. हर मामले में नीलामी संभव नहीं है.'' उनकी बात का समर्थन करते हुए चावला कहते हैं, ''कुछ मामलों में, जैसे स्कूल, अस्पताल, सस्ते घर आदि के लिए नीलामी बहुत अच्छा विकल्प नहीं है और ऐसे मामलों में आवंटन के उद्देश्य को भी देखने की जरूरत पड़ती है.'' रियल एस्टेट डेवलपर्स एसोसिएशन के महासंघ क्रेडाई के अध्यक्ष पंकज बजाज की राय है कि नीलामी बेहतर है लेकिन इस बारे में और विचार विमर्श की जरूरत है. वे कहते हैं, ''ऐसा मुमकिन है कि सबसे ऊंची बोली लगाने वाला प्रोजेक्ट को पूरा कर पाने में सक्षम न हो. बोली लगाने वालों की पूर्व निर्धारित शर्तों के हिसाब से छंटनी होनी चाहिए.'' वन्यजीव एवं वन विशेषज्ञ वाल्मीकि थापर मौजूदा कानून को पूरी तरह से बदलने की जरूरत महसूस करते हैं. थापर नीलामी के विरोधी नहीं हैं. वह कहते हैं, ''मेरी समझ से जंगलों के मामले में नीलामी तभी फायदेमंद होगी जब मिलने वाली रकम स्थानीय निवासियों को इन जंगलों के रखरखाव के लिए लौटाई जाए.''
खनन: सरकारी कंपनियों का एकाधिकार खत्म हो
कोयला और लौह धातुओं (जैसे लौह अयस्क और बॉक्साइट) के खनन की व्यवस्था बेहद पुराने कानूनों से की जाती है. ये कानून किसी भी किस्म की नीलामी की इजाजत नहीं देते. 1973 का कोयला राष्ट्रीयकरण कानून सार्वजनिक क्षेत्र की दिग्गज कोल इंडिया को कोयला खनन पर एकछत्र अधिकार देता है. 1993 में इस कानून में किए गए एक संशोधन के बाद स्टील व ऊर्जा उत्पादकों को कुछ खानें दे पाना संभव हो पाया. इन खानों से निकले कोयले को बाजार में बेचने की इजाजत नहीं है. सीबीआइ और सीएजी की जांच के मुताबिक सरकार ने 2006 और 2009 के बीच 49 अरब टन की कोयला खदानों को सरकारी और निजी कंपनियों को बिना नीलामी के कौड़ियों के भाव लुटा दिया. इन 143 कोल ब्लॉक में से सिर्फ 26 में ही उत्पादन शुरू हो पाया.
कोल इंडिया की एक शाखा सेंट्रल कोलफील्ड्स एंड सेंट्रल माइन प्लानिंग ऐंड डिजाइन इंस्टीट्यूट के पूर्व अध्यक्ष बी. अकाला कहते हैं, ''अगर बोली लगाने वाले ने रकम लगाई है तो वह खदान के विकास को लेकर ज्यादा गंभीर होगा.'' 10 फरवरी को कोयला मंत्रालय ने एक अधिसूचना जारी कर बताया कि अब से कैप्टिव कोल माइंस सिर्फ नीलामी के जरिए न्यूनतम मूल्य निर्धारित करके ही दी जाएंगी. सिर्फ बिजली क्षेत्र को ही नीलामी की प्रक्रिया से मुक्त रखा गया है. बिजली क्षेत्र में खान देने का फैसला बिजली की दर के हिसाब से तय होगा.
प्राइस वाटरहाउस कूपर्स के खनन विशेषज्ञ कुमेश्वर राव बताते हैं, ''माइन्स ऐंड मिनरल्स (डिवेलपमेंट ऐंड रेग्युलेशन) बिल 2011, जिसे पुराने एमएमडीआर एक्ट 1957 की जगह लाने के लिए तैयार किया गया है, प्रतियोगी बोलियों के बारे में स्पष्ट रुख रखता है. 2जी फैसले से सामने आए मुद्दों का पहले ही अनुमान कर लिया गया था.'' मगर कोयले के साथ लौह अयस्क व बॉक्साइट पर नीति तय करने वाला नया खनन विधेयक पिछले तीन साल से अटका हुआ है. 2जी फैसले से शायद इसकी भी किस्मत चमक जाए. नए बिल का कई लोग विरोध भी कर रहे हैं. फेडरेशन ऑफ इंडियन मिनरल इंस्डस्ट्रीज (एफआइएमआइ) से संबद्ध आर.के. शर्मा कहते हैं, ''हमारा मानना है कि अगर लौह अयस्क व बॉक्साइट के भंडारों की नीलामी होने लगी तो स्टील, अल्युमिनियम व सीमेंट और महंगे हो जाएंगे.'' सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनी नेशनल अल्युमिनियम कंपनी (नाल्को) के एक वरिष्ठ अधिकारी नीलामी को कोई बहुत अच्छा रास्ता नहीं मानते, क्योंकि इसमें मूल्य संवर्धन जैसे कारकों का खयाल नहीं रखा जाता. वे कहते हैं, ''नीलामी के साथ यह दिक्कत है कि यह वैसे सट्टेबाज कारोबारियों को भी बोली लगाने का मौका दे देती है, जो गंभीर नहीं हैं.''
जल: व्यावसायिक इस्तेमाल का आकलन जरूरी
जल संसाधन के सवाल पर विशेषज्ञ नीलामी की बहुत कम संभावना देखते हैं. भारत के जल संसाधनों के 85 फीसदी का सिंचाई, 10 फीसदी का औद्योगिक और 5 फीसदी का घरेलू जरूरतों के लिए इस्तेमाल होता है. काउंसिल ऑफ इनर्जी, एन्वायर्नमेंट ऐंड वाटर के सीईओ तथा स्वतंत्र चिंतक अरुणाभ घोष कहते हैं, ''फिलहाल भारत में पानी की नीलामी व्यावहारिक विकल्प नहीं है. इससे पहले कई और शर्तें हैं जिन्हें पूरा किया जाना बाकी है. जैसे, जल संसाधनों की पहले से बेहतर निगरानी, उपयोग व निस्तारण की निगरानी, प्रभावी जल नियामक, विभिन्न क्षेत्रों के बीच थोक आवंटन और सुचारू जल व्यवस्थाए बनाए रखने के लिए पर्यावरणीय प्रवाह. इनमें से एक भी शर्त जल उपयोग की नीलामी कर देने भर से पूरी नहीं होने वाली.'' भारत के जल उद्योग में विदेशी निवेश लाने की मुहिम में जुटे और एवरीथिंग अबाउट वाटर के मुखिया एच. सुब्रमनियन कहते हैं, ''भारत में पानी वास्तव में मुफ्त में मिलता है.'' लोकप्रिय संप्रग सरकार पानी के लिए बाजार के मुताबिक दाम वसूलने की शुरुआत करेगी, खास तौर पर किसानों से, ऐसी उम्मीद बेमानी है. आवंटन और मूल्य निर्धारण की बाजार आधारित विधियों के दायरे में लाए जाने वाले प्राकृतिक संसाधनों में पानी यकीनन आखिरी चीज होगा.