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मजदूर संघ: नई नस्ल के मजदूर संघ नेता

बड़े स्तर पर संगठित मजदूर संघों का दौर लौट आया है. मारुति के कर्मचारियों की हड़ताल महीने भर तक सुर्खियों में छाई रही लेकिन मजदूरों के अंसतोष का यह सिर्फ इकलौती मिसाल नहीं है.

मजदूर संघ
मजदूर संघ
अपडेटेड 20 नवंबर , 2011

बड़े स्तर पर संगठित मजदूर संघों का दौर लौट आया है. मारुति के कर्मचारियों की हड़ताल महीने भर तक सुर्खियों में छाई रही लेकिन मजदूरों के अंसतोष का यह सिर्फ इकलौती मिसाल नहीं है. मजदूर संघों के विवाद देश भर में फैलते जा रहे हैं. मारुति उद्योग, डनलप, धनलक्ष्मी बैंक, कोल इंडिया, बॉश, लुधियाना के कपड़ा मजदूर-विवाद से ग्रसित कंपनियों के नामों की फेहरिस्त काफी लंबी है.

कार्यदिवसों की संख्या में भी गिरावट हुई है और यह आंकड़ा 2002 के 9 लाख से 2010 में 16 लाख पर पहुंच गया है. इस साल की पहली छमाही में लगभग 10 लाख कार्यदिवसों का नुक्सान हुआ. इन विरोध प्रदर्शनों की अगुआई नए स्वतंत्र मजदूर संघ और ऐसे युवा सामाजिक कार्यकर्ता कर रहे हैं जो संघ और पार्टी के रुख से हटकर बात कर रहे हैं. इनमें से कुछ आखिरकार पैसे और दबाव के आगे घुटने टेक देते हैं लेकिन बाकी कड़ी मेहनत के साथ ऐसे संगठनों में संघों का निर्माण कर रहे हैं जहां पहले कभी इस बारे में सोचा भी नहीं जा सकता था.

हरियाणा के बिनौला में स्थित आइएफबी ऑटोमोटिव, ऑटोमेटिव सेक्टर में सुरक्षा और सुख-सुविधा से जुड़े उत्पादों के लिए तकनीक उपलब्ध कराने वाली बड़ी कंपनी है. इसके ग्राहकों की सूची में होंडा, फोर्ड, टोयोटा और हुंडई सरीखे बड़े नाम शामिल हैं.

25 वर्षीय मनोज कुमार कहते हैं, ''जब भी आप अपनी कार में आगे की सीट को पीछे करते हैं, याद रखें यह हमारी कड़ी मेहनत से ही मुमकिन हुआ है. हम दूसरों के जीवन को आसान बनाने के लिए काम करते हैं, बिना किसी अतिरिक्त भत्ते के अतिरिक्तकाम करना पड़ता है. अब, कोई जायज वजह बताए बिना ही 250 कर्मचारियों को बरखास्त कर दिया गया.''

वे आपकी पाठ्यपुस्तक में बताए गए मजदूर संघ के नेता जैसे नहीं हैं. राजनीतिशास्त्र में स्नातक मनोज आइएफबी मिल मजदूर संघ के प्रमुख हैं, जो कर्मचारियों को निकालने के कंपनी के फैसले के खिलाफ विरोध की कमान संभाल रहा है.

वे कहते हैं, ''जब 250 कर्मचारियों को प्रबंधन ने नौकरी से निकाला उसके अगले ही दिन हमने संघ बनाने का फैसला कर लिया. मैं कभी भी किसी राजनैतिक दल से जुड़ा नहीं रहा हूं. मैंने सोचा कि मैं अपनी शिक्षा का इस्तेमाल इन श्रमिकों को नेतृत्व करने जैसे अच्छे काम के लिए कर सकता हूं.'' मनोज पहले ही श्रमिकों के लिए ओवरटाइम का 62 लाख रु. का बिल तैयार कर चुके हैं और जांच के लिए जिला श्रमायुक्त के सामने उसे जमा करा चुके हैं.

लुधियाना के दो युवाओं-29 वर्षीय राजविंदर और 28 वर्षीय लखविंदर-ने पावरलूम के 1,500 श्रमिकों का बेहतर वेतन, काम के जायज समय और फैक्टरी की सुरक्षित फ्लोर की मांग को लेकर 22 सितंबर को अनिश्चितकालीन हड़ताल का नेतृत्व किया. गरीब ईंट भट्ठा मजदूर के बेटे राजविंदर, जो अब शक्तिशाली टेक्सटाइल मजदूर यूनियन (टीएमयू) का नेतृत्व कर रहे हैं, की यूनियन ने लुधियाना के औद्योगिक इलाके की 95 मझेली कपड़ा इकाइयों का सारा काम ठप करा दिया था.

उनका कहना है कि जब वे बच्चे थे उस समय भी पिता के साथ ईंट बनाने के लिए मिट्टी का घोल बनाते वक्त वे अच्छी तरह समझ्ते थे कि कुछ ''बहुत गलत'' हो रहा है. दूसरे ईंट भट्ठा मजदूर परिवारों की ही तरह उनके परिवार को भी भुखमरी की कगार पर रहकर जीवन गुजारना पड़ता था जबकि भट्ठा मालिक और धनी होते जा रहे थे.

स्वतंत्रता सेनानी भगत सिंह की डायरी पहली बार पढ़ने को याद करते हुए राजविंदर कहते हैं, ''कॉलेज में एक नई दुनिया मेरे सामने आ गई.'' इस युवक ने मजदूर आंदोलनों पर मौजूद साहित्य का गहन अध्ययन किया, जिसमें 1862 में काम की अवधि कम करने के हावड़ा के रेल कर्मियों के आंदोलन से लेकर 1980 के दशक में दत्ता सामंत के नेतृत्व वाला समकालीन आंदोलन तक शामिल था. चंडीगढ़ के सेंट्रल साइंटिफिक इंस्ट्रळ्मेंट्स ऑर्गेनाइजेशन से कास्टिंग और मोल्डिंग में डिप्लोमाधारी राजविंदर और लखविंदर ने 2005 में लुधियाना का रुख किया.

उन्होंने जून, 2008 में एक स्वतंत्र कारखाना मजदूर यूनियन (केएमयू) का गठन किया, विभिन्न पार्टियों से जुड़े श्रमिक संघों से मोहभंग होने की वजह से उसके सदस्यों की संख्या तेजी से बढ़ी. सितंबर, 2010 में कपड़ा मजदूरों की हड़ताल से मिली सफलता ने लुधियाना भर में केएमयू का झ्ंडा बुलंद कर दिया. उसने लुधियाना के साइकिल उद्योग, ऑटोमोबाइल क्षेत्र की सहायक इकाइयों और हौजरी मजदूरों को संगठित करने के लिए टीएमयू की स्थापना की राह खोली.

पंजाब आज भी देश के उन राज्‍यों में शामिल है जहां न्यूनतम मजदूरी की दर बहुत कम है, जिसके बारे में टीएमयू का दावा है कि 1970 के बाद से उसकी व्यापक स्तर पर समीक्षा नहीं की गई है. निजी कारखानों के मालिक कम मजदूरी भी देने को तैयार नहीं हैं. 2008 में एक स्थानीय टायर उत्पादन इकाई प्रबंधन ने कारखाने की एक मंजिल पर आग लगने पर एक मजदूर की मौत से खुद को एकदम अलग कर लिया.

राजविंदर उस घटना को याद करते हुए कहते हैं, ''कपड़ा मजदूरों का जबरदस्त शोषण किया जा रहा है. एक अकेले कर्मचारी को दशक भर पहले के मुकाबले दोगुनी मशीनें चलानी पड़ रही हैं, और महंगाई के लिहाज से उन्हें उस जमाने के मुकाबले बहुत ही कम मजदूरी मिल रही है. काम के हालात भी पूरी तरह स्वास्थ्य के प्रतिकूल हैं. वे बहुत गरीब लोग हैं जो इतने गंदे माहौल में रहते हैं जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती. मजदूरों के पास लड़ाई के अलावा कोई विकल्प नहीं है. उनके लिए इससे ज्‍यादा बदतर हालात नहीं हो सकते.''

राजविंदर और लखविंदर मानते हैं कि देश के विभिन्न हिस्सों में चल रहे मजदूर असंतोष का मंच 1980 के दशक के उत्तरार्द्ध और 1990 के दशक के पूर्वाद्ध में शुरू हुए उदारीकरण के साथ तैयार हो गया था. वे कहते हैं कि नया असंतोष 1990 के दशक के बाद ''आंदोलन संबंधी अंतराल'' से आया है. इस अवधि में पारंपरिक मजदूर संघ, जिन्हें मूलतः सरकारी क्षेत्र के प्रबंधन से निबटने के लिए तैयार किया गया था, यह तय नहीं कर सके कि निजी मालिकों, नए क्षेत्रों और केंद्र सरकार की सामाजिक क्षेत्र की विशालकाय योजनाओं से कैसे निबटा जाए. लखविंदर कहते हैं, ''नए स्वतंत्र संघों के पास युवा नेतृत्व है और वे समान रूप से युवा कामगारों की आकांक्षाओं के साथ तालमेल बिठा सकते हैं.''

छोटे बाल और चेहरे पर बेफिक्र मुस्कान लिए 41 वर्षीया राखी सहगल हवा में मुट्ठी लहराते हुए कहती हैं, ''मुझे अच्छी लड़ाई में मजा आता है.'' उनका संघ, नेशनल ट्रेड यूनियन इनिशिएटिव (एनटीयूआइ), आज बड़ा आकार ले चुका है.  2006 में स्थापना के समय उसके सदस्यों की संख्या 500 थी जो अब बढ़कर 11 लाख पहुंच चुकी है. जहां पारंपरिक मजदूर संघ अब भी अपनी रणनीतियां बनाने में लगे हैं, वहीं एनटीयूआइ असंगठित मजदूर, निजी कारखानों पर धावा बोल चुका है और महिला मजदूरों को संगठित कर रहा है.

वाशिंगटन स्थित अमेरिकन यूनिवर्सिटी से अंतरराष्ट्रीय संबंधों में पोस्ट ग्रेजुएट सहगल पहली बार 2003 में अपने डॉक्टरल शोध कार्य पर फील्ड स्टडी के लिए गुड़गांव आई थीं. वे कहती हैं, ''श्रमिकों की समस्याएं मुझे वापस ले आईं और मैंने यहीं रहने और उन्हें संगठित करने का फैसला कर लिया.''

वे बताती हैं, ''हमने पारंपरिक संघों के उलट मजदूरों की बातें सुनकर संगठन को लोकतांत्रिक बनाया. केंद्रीय नेतृत्व को बुनियादी स्तर पर किए गए फैसले को टालने नहीं दिया जाता.'' एनटीयूआइ मालिकों और सरकार के साथ सामूहिक बातचीत और कार्यस्थलों पर रोजगार के नियमन जैसे मुद्दों को लेकर जुड़ा  हुआ है. इसका दखल देश भर में डीएचएल के कर्मचारियों से लेकर पंजाब के स्वास्थ्य कर्मियों तक है.

पारंपरिक मजदूर संघ नया करने में नाकाम रहे और अपनी गतिविधियों को सरकारी क्षेत्र की इकाइयों तक ही सीमित रखा. एक समय शक्तिशाली रहे वाम श्रमिक संघ ऑल इंडिया ट्रेड यूनियन कांग्रेस का नए उद्योगों के मजदूरों में मामूली असर है. ऑल इंडिया फेडरेशन ऑफ आंगनवाड़ी वर्कर्स ऐंड हेल्पर्स, जो माकपा के श्रमिक संघ सेंटर फॉर इंडियन ट्रेड यूनियंस (सीटू) से संबद्ध है, की 38 वर्षीया सचिव ए.आर. सिंधु मजदूर संघों से जुड़े उन कुछ लोगों में से हैं जो सरकार की सामाजिक क्षेत्र की योजनाओं में लगे कर्मचारियों तक पहुंचने की कोशिश कर रही हैं. भौतिकशास्त्र में स्नातक सिंधु अपने पति कृष्ण प्रसाद के माकपा की छात्र शाखा स्टुडेंट्स फेडरेशन ऑफ इंडिया के राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने पर 2000 में केरल से दिल्ली आ गई थीं.

वे कहती हैं, ''वे सभी सरकारी योजनाओं के पीछे की मुख्य ताकत हैं लेकिन वे बहुत ही खराब परिस्थितियों में रहती हैं. सरकार को 41.39 लाख ऐसी महिलाएं सेवाएं दे रही हैं, जिन्हें सामाजिक क्षेत्र की योजनाओं में काम के एवज में प्रतिदिन औसतन 50 रु. मिलते हैं.'' प्रसाद वापस केरल चले गए और विधायक बन गए. सिंधु ने उत्तर भारत में आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं को संगठित करने के लिए दिल्ली में ही रहने का फैसला किया. वे कहती हैं, ''2010 में आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं के राजधानी में विशाल सार्वजनिक विरोध प्रदर्शन के बाद केंद्र सरकार ने उनके वेतन 1,500 रु. को दोगुना कर 3,000 रु. कर दिया.''

कारखानों से नेता उभर रहे हैं. 24 वर्षीय श्रवण कुमार के साथ चेन्नै में मोबाइल हैंड सेट बनाने वाली कंपनी नोकिया के मजदूर जुड़े हुए हैं. उन्होंने पी. सुरेश, वे भी 24 वर्ष के हैं, के साथ 2010 में नोकिया इंडिया तोलिलाली संघम की स्थापना की थी. विकासशील देशों में काम कर रहीं फिनिश कंपनियों के लिए वॉचडॉग फिनवॉच ने सितंबर, 2010 की अपनी रिपोर्ट में कहा था कि चेन्नै में नोकिया के कर्मचारियों को ''यहां तक कि भारतीय संदर्भ'' में भी कम वेतन मिलता है.

श्रवण कुमार कहते हैं, ''शुरू में कर्मचारी एकजुट होने को लेकर डरे हुए थे. फिर हमने उनसे उनके अधिकारों पर बात की और उनसे कहा कि वे एक स्वतंत्र संघ की छाया तले आ जाएं.'' नोकिया के चेन्नै के कर्मचारियों ने 2010 में हड़ताल की और उन्हें वेतन समीक्षा की सौगात मिली.

पश्चिम बंगाल के हरिपुर में बगुराम जलपाई नामक मछुआरों के एक छोटे से गांव में 32 वर्षीय देबाशीष श्यामल रहते हैं, वे 70 लाख मछुआरों की सदस्यता वाली नेशनल फिशवर्कर्स फोरम (एनएफएफ) का प्रतिनिधित्व करते हैं. वे 2004 में 24 वर्ष की उम्र में एनएफएफ की कार्यकारी समिति में शामिल हुए थे. श्यामल स्नातक हैं लेकिन उनके सातों चाचा/मामा मछुआरे हैं. श्यामल कहते हैं, 'हुएनएफएफ के चेयरमैन दिवंगत हरेकृष्ण देबनाथ और केरल स्वतंत्र मत्यस्यतोलिलाली फेडरेशन के संस्थापक फादर थॉमस कोचेरी से मिलने के बाद मेरा जीवन ही बदल गया.'' वे अपने आप ही मछुआरों के आंदोलन से जुड़ गए.

श्यामल ने मछीमार अधिकार राष्ट्रीय अभियान, मछुआरों के इस अभियान की शुरुआत 1 मई, 2008 को कच्छ के झ्खाऊ से की गई थी और यह 27 जून, 2008 को कोलकाता में खत्म हुआ, में भी अहम भूमिका निभाई है. इस अभियान में समुद्र तट के साथ पड़ने वाले मछुआरों के सभी प्रमुख गांवों को शामिल किया गया था. अभियान की मांगों में केंद्र वन और पर्यावरण मंत्रालय की ओर से प्रस्तावित कोस्टल मैनेजमेंट जोन (सीएमजेड) की अधिसूचना को खारिज करना और मछुआरों के अधिकारों को मान्यता देने की बात भी शामिल थी. सरकार ने आंदोलन के बाद सीएमजेड कानून में संशोधन कर दिया.

अक्सर स्वतंत्र श्रमिक संघों पर व्यापक मजदूर संघ आंदोलन की कीमत पर अदूरदर्शी कारखाना स्तरीय रवैया अपनाने के आरोप लगाए जाते हैं. मजदूर संघ के नेता 25 वर्षीय सोनू कुमार उर्फ सोनू गुर्जर, जिसने मारुति सुजुकी को घुटने टेकने के लिए मजबूर कर दिया, को इस तरह की सोच वाला बताया जाता है. 'प्रधानजी,' जैसा कि उन्हें बुलाया जाता है, मजदूरों की नई पौध का जून से तीन हड़तालों में नेतृत्व कर चुके हैं.

उनका विरोध मैनेजमेंट के ''नाजायज व्यवहार'' के प्रति था और उनकी मांग रही है कि मारुति सुजुकी एंप्लाइज यूनियन को मान्यता दी जाए. मारुति सुजुकी को जून से कम-से-कम 50,000 यूनिटों और राजस्व के रूप में 1,800 करोड़ रु. से ज्‍यादा का नुक्सान हो चुका है. सोनू ने बंदोबस्त पैकेज के रूप में 40 लाख रु. से ज्‍यादा पैसे लिए और नवंबर के शुरू में पल्ला झड़ लिया, और साथियों को उनके भाग्य पर छोड़ दिया. रोहतक के इंडस्ट्रियल ट्रेनिंग इंस्टीट्यूट का ग्रेजुएट सोनू 2006 में मारुति से उस समय जुड़ा था जब उसकी मानेसर इकाई की स्थापना की जा रही थी.

उन्होंने मारुति उद्योग कामगार यूनियन (एमयूकेयू) के अध्यक्ष पद के लिए अह्ढैल में खड़े होने का फैसला किया. चूंकि एमयूकेयू गुड़गांव के मजदूरों के वर्चस्व वाला संगठन था, इसिलए मानेसर के मजदूरों ने अपना संघ बनाने का फैसला किया. सोनू को अध्यक्ष चुन लिया गया. एक कर्मचारी परविंदर बताते हैं, ''उन्होंने इस तरह के महत्वपूर्ण मुद्दों को उठाया और ऐसी प्रतिबद्धता दिखाई कि वे हमें प्रेरित करने में सफल रहे.''

अब सोनू प्रबंधन और कर्मचारियों के बीच 21 अक्तूबर को हुए अंतिम समझैते को लेकर वाहवाही और आलोचना दोनों ही पात्र बने हुए हैं. सोनू के एक पूर्व सहयोगी ऋषि कहते हैं,  ''हमें लगता था उनमें क्षमता है और हमारा नेतृत्व करने की प्रतिबद्धता भी.'' उनके समर्थकों का कहना है कि श्रमिकों की शुरुआती मांगों को थामे रखना मुश्किल था क्योंकि सरकार बड़े स्तर पर प्रबंधन के पक्ष में बात कर रही थी.

सुजुकी पावरट्रेन इंडिया एंप्लॉइज यूनियन के नेता सुबेर सिंह यादव कहते हैं कि समस्या का एक हिस्सा सोनू की उम्र है. वे कहते हैं, ''सभी पह्नों से बहुत ज्‍यादा दबाव था. एक नेता को डरना नहीं चाहिए; वह अभी काफी छोटा है.'' सोनू अभी मीडिया से बात करने से इनकार कर रहे हैं.

नए संघ लोकतांत्रिक प्रक्रिया को लेकर न चल पाने और इसे अपनी जागीर समझ्ने वाले नेताओं के अगवा करने जैसे जोखिम के दौर से गुजर रहे हैं. सिंधु कहती हैं, ''असली काम कार्यकर्ताओं में लोकतांत्रिक भावना का संचार करना है. उत्तर भारत में मजदूर संगठन और उसके मिशन पर गंभीरता से विचार किए बिना ही नेता का अनुकरण करते हैं.''

बीपीओ सेक्टर के कई कर्मचारी संकट पड़ने पर ही संघों का रुख करते हैं. बीपीओ उद्योग संघ युनाइट्स के कार्तिक शेखर कहते हैं, ''हम अक्सर शिकार होने पर जागते हैं. कई कर्मचारियों का पहला वेतन उनके अभिभावकों के आखिरी वेतन के बराबर होता है. भरोसेमंद और प्रतिबद्ध नेतृत्व तैयार करना मुश्किल काम है क्योंकि हम उसी संकट से गुजर रहे हैं जिससे उद्योग गुजर रहा हैः कर्मचारियों की जबरदस्त आवाजाही.''

-साथ में असित जॉली, लक्ष्मी सुब्रमण्यन, पार्थ दासगुप्ता और श्रव्या जैन