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उत्तर प्रदेश: मुस्लिम किशोरों की क्रांति

वाराणसी के महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ में अंग्रेजी साहित्य और समाजशास्त्र की कक्षाओं में जाने के लिए  बीए अंतिम वर्ष की छात्रा 18 वर्षीया जुही सिद्दीकी हफ्ते में दो बार बस से 25 किमी का सफर तय करती हैं.

अपडेटेड 18 अप्रैल , 2011

वाराणसी के महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ में अंग्रेजी साहित्य और समाजशास्त्र की कक्षाओं में जाने के लिए  बीए अंतिम वर्ष की छात्रा 18 वर्षीया जुही सिद्दीकी हफ्ते में दो बार बस से 25 किमी का सफर तय करती हैं.

अपनी 19 वर्षीया सहेली तनवीर बानो के साथ मिलकर वे जी.टी. रोड पर बसे अपने गांव मिर्जामुराद में एक कमरे में निर्मित मदरसा इत्तेहाद-उल-मुसलमीन में बच्चों को पढ़ाती हैं. खचाखच भरे उस कमरे में बच्चे दोनों को ध्यान से सुनते हैं और उर्दू, हिंदी तथा अंग्रेजी में बोले उनके शब्दों को दोहराते रहते हैं.

मुस्कराते हुए तनवीर कहती हैं, ''पढ़ने पढ़ाने के लिए कोई भी जगह छोटी नहीं होती.'' चहकते हुए जुही कहती हैं, ''अगर हम इन बच्चों को महज साक्षर ही नहीं, शिक्षित भी कर सकें तो हमें बहुत खुशी होगी.''

हाल ही में एक नजदीकी कॉलेज से इतिहास और मनोविज्ञान विषयों में स्नातक करने वाली 19 वर्षीया उज्मा सबरीन और बीए अंतिम वर्ष में पढ़ रहीं 18 वर्षीया सबीना बानो बनारस से 30 किमी दूर बेनीपुर में बुनकरों की 158 लड़कियों समेत 220 बच्चों को न सिर्फ उर्दू और अरबी सिखाती हैं, बल्कि गणित, अंग्रेजी, कला और हिंदी भी पढ़ाती हैं.

वे कहती हैं, ''हमें इन बच्चों को पढ़ाने में मजा आता है. ऐसा करने में हमारी जेब से तो कुछ नहीं जाता बल्कि एक तरह का संतोष ही मिलता है कि हम इन्हें अंधेरे से निकालकर रोशनी की ओर ले जाने की कोशिश कर रहे हैं.''{mospagebreak}

उन्होंने बताया कि गांववालों ने इसके लिए उन्हें बिल्डिंग उपलब्ध कराई. रजा-ए-मुस्तफा नाम के इस स्कूल के प्रबंधक मोइनुद्दीन अंसारी के अनुसार, गांव वाले, जिनमें ज्‍यादातर बुनकर हैं, मुफ्त में यह स्कूल चलाने के लिए चंदा देते हैं.

तबस्सुम और तरन्नुम बानो ने इंटर की परीक्षा देने के बाद अपने गांव में कुछ बड़ा काम कर दिखाने का फैसला किया. उन्होंने बनारस से 18 किमी दूर सजोइन गांव के बुनकरों को बरसों से बंद पड़े मदरसा अंसारुल उलूम को दोबारा शुरू करने के लिए राजी कर लिया.

गांव में ही रहने वाले मुस्तकीन अंसारी ने बताया कि यह मदरसा पिछले 17 वर्षों से बंद पड़ा था. यहां आसपास भी कोई स्कूल नहीं था लेकिन इन लड़कियों के उत्साह ने हमें इसे दोबारा शुरू करने के लिए मजबूर कर दिया और हम इन्हें हर तरह की मदद देने के लिए राजी हो गए, ''हम पूरी तरह से उनकी मदद के लिए खड़े हो गए और अब बच्चे खासकर लड़कियां अनेक बातें सीखने और समझने लगी हैं.'' इन दोनों लड़कियों के अलावा एक और किशोरवय लड़की रबीना भी उन्हें पढ़ा रही है.

गांववालों ने 175 बच्चों और 25 वयस्कों को पढ़ाने के लिए एक मौलवी मुहैया करा रखा है.

तबस्सुम और तरन्नुम के लिए तो सुबह 7.30 बजे ही दिन की शुरुआत हो जाती है और वे रबीना के साथ चार घंटे तक इन बच्चों को पढ़ाने में जुटी रहती हैं. पारंपरिक मदरसों के विपरीत यहां बच्चे गुड मार्निंग, सर कहकर लोगों का अभिवादन करते हैं.{mospagebreak}

प्राइमरी कक्षाओं की पढ़ाई पूरी होते ही सिर पर दुपट्टा ओढ़े औरतें और लड़कियां उर्दू, हिंदी, अरबी और अंग्रेजी के साथसाथ गणित सीखने के लिए आ जाती हैं, और फिर दो घंटे के लिए वे सिलाई, कढ़ाई, बुनाई औरडिजाइनिंग भी सीखती हैं.

तबस्सुम कहती हैं, ''हम इन्हें पढ़ाने और जिंदगी की नई शुरुआत करने में मदद करने से बहुत खुश हैं.'' दरअसल इस पढ़ाई से वे अब नएनए सपने भी देखने लगी हैं. अब वे फैशन डिजाइनिंग और मेहंदी लगाना सीखना चाहती हैं, यहां तक कि टीवी देखकर वे ब्यूटीशियन का भी काम करने लगी हैं.

एक स्वयंसेवी संगठन यह काम सिखाने के लिए एक महिला को भेजता है ताकि वे गांव में कुछ कमाई कर सकें. तरन्नुम बताती हैं, ''शादियों में हर लड़की दुल्हन की तरह खूबसूरत दिखना चाहती है.'' उन्हें लगता है कि इससे उन महिलाओं का रंगढंग और नजरिया बदल जाएगा जो घरों से बाहर निकलने का मौका नहीं पाती हैं. 

राजीव गांधी के जमाने में गंगा एक्शन प्लान बनाने वालों में शामिल और बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में वैज्ञानिक डॉ. रजनीकांत ने सारनाथ में ह्यूमन वेलफव्यर एसोसिएशन नाम से एक स्वयंसेवी संस्था गठित की, जो अब गांवों के इन स्कूलों को बाहर से मदद पहुंचाती है.{mospagebreak}

इन किशोर लड़कियों के प्रयासों से प्रभावित होकर डॉ. रजनीकांत ने न सिर्फ इन स्कूलों को मुफ्त किताबें और कॉपियांमुहैया कराई हैं, बल्कि गांववालों का सहयोग लेते हुए वे अपनी टीम के जरिए प्रतिभाशाली लड़कियों को बेहतर प्रशिक्षण के लिए लखनऊ और जयपुर भी भेज रहे हैं.

वे कहते हैं, ''मकसद यह है कि लड़कियां बाहर जाकर लोगों से मिलें और उन्हें दूसरी लड़कियों से मिलकर अपना व्यक्तित्व संवारने का मौका मिले.'' ह्यूमन वेलफव्यर एसोसिएशन इन स्वयंसेवी लड़कियों को महीने में एक मानदेय राशि भी मुहैया कराती है क्योंकि दूरदराज के  इलाकों में कमाने का भाव लड़कियों में सशक्तिकरण का भाव जगाता है.

बनारस की पीपुल्स विजिलेंस कमेटी फॉर ह्यूमन राइट्‌स (पीवीसीएचआर) की प्रबंध समिति की सदस्य, 28 वर्षीया शीरीन शबाना खान कहती हैं, ''जब भी लड़कियों को आधुनिक शिक्षा पाने का मौका मिलता है और वे आत्मनिर्भर बनती हैं तो वे अपने परिवार और समाज के प्रति असामान्य योगदान करती हैं. खुद मैंने भी जिंदगी में इस कड़वी सचाई का सामना किया है. मेरे वालिद बिस्तर पर पड़े थे और मेरी मां को मुझे और मेरे भाइयों बहनों को पढ़ाने के लिए कड़ी मेहनत करनी पड़ी थी. इसीलिए आज हम जिंदगी कीचुनौतियों का सामना करने के लायक बने हैं.''{mospagebreak}

ये लड़कियां अपने मातापिता, रिश्तेदारों और पड़ोसियों की देखरेख में बच्चों को शिक्षा देने की नई पहल कर रही हैं. दरअसल, इस तरह ये लड़कियां अपनी उच्च शिक्षा पूरी करते हुए एक तरह से सरकार के अधूरे काम को पूरा कर रही हैं.

यही वजह है कि रूढ़िवादी मुल्ला और मौलवी भी उनके इन प्रयासों का समर्थन करने लगे हैं. मुफ्तीएबनारस मौलाना अब्दुल बातिन नोमानी कहते हैं, ''हमें गांवों में साफसुथरे और सुरक्षित माहौल में इन लड़कियों के किए जा रहे  प्रयासों का समर्थन करना चाहिए. आज की दुनिया में लड़कियों का शिक्षित होना जरूरी है.

उनकी तरबियत (इस्लामिक तहजीब) के साथसाथ तालीम भी होनी चाहिए. लड़कियों को आधुनिक भाषाओं और साइंस के साथ दीनीयात सीखनी चाहिए.

लेकिन बनारस हिंदू विश्वविद्यालय  के जानेमाने समाजशास्त्री डॉ. एस.आर. यादव इसे गरीब बुनकर परिवारों की लड़कियों के संस्कृतीकरण की प्रक्रिया बताते हैं. बनारस में यूनिवर्सिटी और कॉलेजों में जाने वाली लड़कियां दरअसल अगड़े वर्ग की लड़कियों से प्रेरित होकरअपने गांवों में भी बदलाव लाना चाहती थीं. इस तरह से यह क्रांति शुरू हुई जो जल्दी ही गांवों का चेहरा बदल देगी.{mospagebreak}

दरअसल, 4,000 की आबादी पर एक प्राइमरी स्कूल होने की सरकार की नीति के बावजूद बुनकरों की 70,000 की आबादी वाले लोहटा गांव में सिर्फ एक प्राइमरी स्कूल है. इस वजह से अब 40 वर्ष की हो चुकीं जमीला खातून ने, जो घरों में ट्‌यूशन पढ़ाती थीं, लोहटा के ही एक हिस्से रहीमपुर (आबादी 50,000) में एक आधुनिक मदरसा ख्वाजा गरीब नवाज खोला. इसमें अब 130 लड़कियां पढ़ती हैं.

चार साल पहले जब उन्होंने स्कूल शुरू किया तो कॉलेज में पढ़ाई करने वाली दो लड़कियां सलमा और समीना बानो बच्चियों को पढ़ाने  में सहयोग देने लगीं. उन्हें मिलाकर अब इस स्कूल में चार अध्यापिकाएं हैं. एसोसिएशन ने यहां भी साफसफाई, किताबकापियां और टीचरों को मानदेय राशि देना शुरू  किया.

डॉ. रजनीकांत के मुताबिक, बनारस के इर्दगिर्द मुसलमानों की आबादी वाले कई गांवों में स्कूल नहीं हैं. लेकिन गांववालों के सहयोग और इन लड़कियों की कोशिशों से आसपास के 32 गांवों में 13 आधुनिक मदरसेखुल गए हैं.

ह्यूमन वेलफव्यर एसोसिएशन और इसके माध्यम से दूसरी एजेंसियां गांवों में लड़कियों को शिक्षा के लिए प्रोत्साहित करने और बाहरी सहयोग देने का काम कर रही हैं. पीपुल्स विजिलेंस कमेटी फॉर ह्यूमन राइट्‌स (पीवीसीएचआर) की श्रुति नागवंशी (जो सावित्रीबाई फुले वीमेंस फोरम से जुड़ी हैं) के मुताबिक, बनारस के आसपास बुनकरों के पांच लाख परिवार रहते हैं जिनमें से 40 प्रतिशत गरीबी रेखा से नीचे जीवन बसर कर रहे हैं.{mospagebreak}

इनमें से अधिकांश के लिए दो समय के लिए पेट भरना भी मुश्किल है और इनके बच्चे कुपोषण के शिकार हैं. कुछ समय पहले पीवीसीएचआर ने एक अध्ययन करवाया था जिससे पता चला कि 1990 के दशक में हैंडलूम कम होने के बाद बुनकरों को रोजगार मिलना बंद हो गया और वे गरीबी तथा तनाव का शिकार होकर आत्महत्याएं करने पर मजबूर होने लगे.

उनके बच्चे कुपोषण का शिकार होने लगे. पीवीसीएचआर का दावा है कि कमसेकम 175 बुनकर भूख और आत्महत्या के कारण मर चुके हैं.

डॉ. रजनीकांत बताते हैं कि गावों में सरकारी स्कूल अगर हैं भी तो गरीबी कव्कारण बच्चे कुछ समय बाद स्कूल छोड़ देते हैं. स्कूलों में नाम लिखाने वाली लड़कियों की संख्या में तो इजाफा हुआ है लेकिन गरीब परिवारों की लड़कियों में अपर प्राइमरी स्कूल छोड़ने की संख्या तेजी से बढ़ी है. बहरहाल कुछ उत्साही लड़कियों की पहल से एक बड़ा बदलाव आने की उम्मीद बंधी है.

वैसे, पूरे उत्तर प्रदेश में भी तस्वीर बहुत अच्छी नहीं है.

रिपोर्टों के मुताबिक, राज्‍य में कुल 15,000 मकतब और 10,000 मदरसे हैं, जो सिर्फ 3 लाख बच्चों (सच्चर कमेटी की रिपोर्ट के मुताबिक, राष्ट्रीय स्तर पर कुल योग 10 लाख में से) को ही शिक्षा दे पा रहे हैं. यूपी स्टेट कलेक्टिव फॉर राइट्‌स टु एजुकेशन के संयोजक फारुख रहमान खान ने जिला स्कूल शिक्षा सूचना की जानकारी के आधार पर बताया कि प्राइमरी स्कूलों में 16 साल के बच्चों की संख्या में कमी आई है.{mospagebreak}

सन्‌ 2006-07 में 25.64 लाख बच्चों ने नाम लिखाया था लेकिन 200708 में उनकी संख्या घटकर 25.10 लाख रह गई. इसके अगले साल 200809 में यह संख्या और कम होकर 24.94 लाख और 200910 में 23.93 लाख पर आ गई. समस्या यह है कि सरकार ने अब मुस्लिम लड़के और लड़कियों को सामान्य श्रेणी में शामिल कर दिया है, जिसके कारण मुस्लिम बच्चों की सही तस्वीर सामने नहीं आ पाई है.

बहरहाल, कॉलेज में जाने वाली लड़कियों की पहल से गांवों में गरीब मुस्लिम परिवारों की तस्वीर जल्दी ही बदल सकती है.