कहते हैं कि पहाड़ का पानी और पहाड़ की जवानी पहाड़ के काम नहीं आते, इस पर 33 साल के हरीश पैनुली कहते हैं कि यह कहावत पहली बार गलत साबित हो रही है. पैनुली खुश नजर आ रहे हैं. आज उनके सामने अलकनंदा की अविरल धारा है और चारों तरफ हिमालय की ऊंची चोटियां हैं.
नदी किनारे धारी देवी सिद्ध पीठ है, जिसके पांव पखारकर अलकनंदा श्रीनगर की ओर बढ़ जाती है और आगे देवप्रयाग में भागीरथी से मिलकर गंगा कहलाती है. उनकी खुशी की वजह यह नहीं है कि वे उस सिद्ध पीठ पर ड्यूटी कर रहे हैं, जहां आकर नई बहुएं माथा टेकती हैं और अपने वर के साथ झेली फैलाकर खुशहाल दांपत्य जीवन की प्रार्थना करती हैं.
पैनुली की मुस्कान का राज यह है कि उन्हें अपने गांव के पास ही पक्की नौकरी मिल गई है, जिसने उन्हें दिल्ली जाकर चाकरी करने के खट-राग से मुक्ति दिला दी है. वे इस बात की फिक्र करने की हैसियत में नहीं हैं कि यह नौकरी आगे जाकर अलकनंदा का प्राकृतिक सौंदर्य नष्ट करने का बहाना बनेगी और पहाड़ों पर अगर गंगा बहेगी भी तो एक मायूस जलधारा बनकर.
दरअसल, पैनुली उत्तराखंड के श्रीनगर में बन रही जीवीके कंपनी की 330 मेगावाट की श्रीनगर-चौरास पनबिजली परियोजना की धारी देवी मंदिर साइट पर सुपरवाइजर हैं. उन्हें अपने गांव में ही 18,000 रु. महीना तनख्वाह मिलती है जो तीन साल पहले दिल्ली में 7,000 रु. महीने की नौकरी से कहीं बेहतर है. यह बात अलग है कि परियोजना के लिए श्रीनगर में बन रहे ऊंचे बांध के कारण धारी देवी का मंदिर डूब जाएगा.
धार्मिक आस्थाओं को बचाने के लिए कंपनी इसी स्थान पर और ऊंचा मंदिर बनाकर धारीदेवी की मूर्ति वहां स्थापित करने के काम में लगी है. 3,500 करोड़ रु. की परियोजना के लिए मंदिर के अलावा कई गांवों की 450 एकड़ जमीन भी अधिग्रहीत की गई है.
''परियोजना के एवज में इलाके के 650 लोगों को सीधा और पक्का रोजगार मिला है, यह जमीन के मुआवजे से अलग है. इसके अलावा बहुत से लोगों को ट्रांसपोर्टर और सहायक ठेकेदार के तौर पर भी परोक्ष रोजगार मिला है.'' यह कहना है जीवीके की श्रीनगर परियोजना के प्रभारी संतोष रेड्डी का.
गंगा पर उत्तराखंड में प्रस्तावित और निर्माणाधीन 95 जल विद्युत परियोजनाओं में से अलकनंदा घाटी की परियोजनाओं का जायजा लेने के लिए हम जैसे-जैसे एनएच 58 पर देवप्रयाग से बद्रीनाथ की ओर बढ़ते गए, विकास और आस्था का यह संघर्ष तीव्रतर होता गया. श्रीनगर परियोजना का तकरीबन 65 फीसदी काम पूरा हो चुका है.
सुपाणा गांव के 40 वर्षीय अर्जुन सिंह रावत कहते हैं, ''मैंने सुना है कि बनारस में एक स्वामी जी जिन परियोजनाओं का विरोध कर रहे हैं उसमें यह परियोजना भी शामिल है. इतना काम होने के बाद परियोजना ठप करने से पुरानी स्थिति तो लौट नहीं आएगी. विरोध करना था तो बहुत पहले करते.''
इस गांव में अब श्रीनगर परियोजना का पावर हाउस बन रहा है और सामने बन रहा है बड़ा-सा बांध. रावत की 45 नाली (9,000 वर्ग मीटर) जमीन इसके लिए अधिग्रहीत हुई है. उन्हें मुआवजे के तौर पर एक करोड़ रु. और कंपनी में सुपरवाइजर की नौकरी मिली है. उनको यह सौदा पूरी तरह फायदेमंद लगता है क्योंकि उन्होंने नदी के पानी का इस्तेमाल कर्मकांड और अंतिम संस्कार के अलावा दूसरे किसी काम के लिए नहीं किया.
श्रीनगर से और ऊंचाई पर पीपलकोट पहुंचने पर लोगों का मिजाज और सख्त हो जाता है. पीपलकोट में बन रही 444 मेगावाट की विष्णुगाड-पीपलकोटी परियोजना के समर्थन में स्थानीय लोगों ने 29 अप्रैल को प्रदर्शन किया. इस प्रदर्शन से दिल्ली तक पता चला कि पहाड़ों पर माहौल बदल रहा है. स्थानीय लोगों ने पर्यावरण और विकास की जंग में, विकास को तरजीह दे दी है.
इसी विषय पर आइआइटी-रुड़की की रिपोर्ट पर नजर डालें तो उत्तराखंड में 20,000 मेगावाट बिजली उत्पादन करने की क्षमता है. महज 13.7 फीसदी खेती लायक जमीन वाले राज्य में 12,235 मेगावाट बिजली उत्पादन क्षमता वाली पनबिजली परियोजनाएं प्रस्तावित हैं.
रिपोर्ट के मुताबिक, राज्य सरकार और उसके सार्वजनिक उपक्रम 2,800 मेगावाट की 32 परियोजनाओं पर, केंद्र सरकार के उपक्रम 7,300 मेगावाट की 25 परियोजनाओं पर और निजी क्षेत्र की कंपनियां 2,100 मेगावाट की 38 परियोजनाओं पर काम कर रही हैं. वैसे, मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा के हिसाब से पनबिजली उत्पादन की क्षमता 27,000 मेगावाट है.
छोटा-सा राज्य और इतनी सारी परियोजनाएं. क्या उत्तराखंड की पहाड़ी नदियों में इतनी ताकत है कि वे इन परियोजनाओं का पहाड़ उठा सकें? इस सवाल पर हेमवतीनंदन बहुगुणा गढ़वाल विश्वविद्यालय में पर्यावरण विज्ञान विभाग के अध्यक्ष आर.सी. शर्मा कहते हैं, ''मैं पनबिजली परियोजनाओं का पूरा समर्थक हूं.
महज भावनात्मक आधार पर पानी से बिजली बनाने का विरोध करने वालों का मैं साथ नहीं दे सकता. लेकिन इतनी बड़ी संख्या में परियोजनाएं बनाना ठीक नहीं है. न ही भागीरथी और न ही अलकनंदा की सहायक धाराओं पर ज्यादा पनबिजली परियोजनाएं बननी चाहिए. परियोजनाएं इस तरह बनाई जाएं कि नदियों पर अनावश्यक बोझ न पड़े और उनमें जल-जीवन भी सुरक्षित रहे.''
अगर जल-जीवन की बात की जाए तो अलकनंदा की धारा पर कर्णप्रयाग तक महासीर मछली जोन है, जबकि इससे ऊपर जोशीमठ तक स्नो ट्राउट मछली जोन है. परियोजनाएं बनने के बाद भी क्या ये मछलियां जिंदा बच पाएंगी? इसका जवाब भी हमने विष्णुगाड-पीपलकोटी परियोजना में खोजा.
भारत सरकार का उपक्रम टीएचडीसी इंडिया लिमिटेड महासीर मछली की रिहाइश वाले इलाके में विश्व बैंक की सहायता से 4,200 करोड़ रु. की बिजली परियोजना का निर्माण कर रहा है. क्या बिजली परियोजना बनने पर महाशीर जिंदा बच पाएगी? इस सवाल पर परियोजना के महाप्रबंधक पी.पी.एस. मान ने कहा कि फिश पास और फिश लिफ्ट जैसी वैज्ञानिक व्यवस्थाओं से मछली को बचाया जा सकता है. हालांकि इस बारे में प्रोफेसर शर्मा की टिप्पणी है, ''यूरोप में तो फिश पास सफल हैं, लेकिन एशिया में यह कामयाब नहीं रहे हैं.''
दिक्कत सिर्फ मछली की नहीं है, आस्था की भी है. कुछ ऐसी ही राय है उत्तराखंड के पूर्व मुख्यमंत्री और वरिष्ठ भाजपा नेता भुवन चंद्र खंडूड़ी की. खंडूड़ी कहते हैं, ''गंगा को स्वच्छता भी चाहिए और गुणवत्ता भी. जल विद्युत परियोजनाओं से स्वच्छता पर असर नहीं पड़ेगा. इसलिए बिजली बननी चाहिए. लेकिन सुरंग से जब नदी बहेगी तो क्या उसमें वे प्राकृतिक तत्व बच पाएंगे, जिन्होंने गंगा को गंगा मैया बनाया है.
वैज्ञानिक जल की गुणवत्ता में परियोजनाओं के असर का भी अध्ययन करें. अगर पानी की गुणवत्ता खराब हो रही है तो बिजली न बनाएं.'' गंगा की निर्मलता के मुद्दे पर ही जल संरक्षणवादी राजेंद्र सिंह ने नेशनल गंगा रिवर बेसिन अथॉर्टी की सदस्यता से मार्च में इस्तीफा दे दिया था. उनका मानना है कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह अथॉर्टी के अध्यक्ष होने के बावजूद गंगा को लेकर जिम्मेदारी नहीं समझ रहे हैं. राजेंद्र सिंह ने कहा कि गंगा से जुड़े संवेदनशील मुद्दों पर अथॉर्र्टी ने कोई ठोस फैसला नहीं किया.
इन्हीं सवालों के साथ आगे बढ़े तो विष्णुगाड-पीपलकोटी परियोजना का दायरा खत्म होते ही अलकनंदा पर एनटीपीसी की 520 मेगावाट की तपोवन-विष्णुगाड परियोजना का दायरा शुरू हो गया. यहां पटेल इंजीनियरिंग के सीनियर मैनेजर जयंत बिस्वाल जब हमें सुरंग के जरिए निर्माणाधीन पावर हाउस तक ले गए तो नजारा अलग था. चारों तरफ लगी हैलोजन लाइट. पीले हैलमेट पहने तेजी से काम में जुटे मजदूर और इंजीनियर. टनों लोहा और कंक्रीट के उलटे-यू आकार की सुरंग के ऊपर टिका हजारों फुट ऊंचा पहाड़. यहां आदमी ने वाकई पहाड़ सिर पर उठा लिया है.
पर्यावरणविदों को इस बात की फिक्र हो सकती है कि ये महानिर्माण महाविनाश को न्योता न दे. लेकिन बिस्वाल का दावा है कि यह ढांचा रिक्टर स्केल पर 9 से अधिक तीव्रता के भूकंप को झेल सकता है. सिविल इंजीनियरों के हिस्से का काम निबटने वाला है और वे जल्द ही यह स्थल बीएचईएल को सौंप देंगे जो यहां पावर हाउस के इलेक्ट्रिकल उपकरण और टर्बाइन लगाएगी. शायद इसी तरक्की को देखकर साहित्यकार लीलाधर जगूड़ी और अवधेश कौशल ने परियोजनाएं रोके जाने पर पद्मश्री लौटाने की चेतावनी दी है.
आगे बढ़ने पर जोशीमठ से ऊपर मंजर बदल चुका है. 6,000 फुट की ऊंचाई पार करने के साथ ही चीड़ की बादशाहत खत्म हो गई और देवदार ने देवभूमि पर अपना दबदबा दिखाना शुरू कर दिया. लेकिन यह क्या, शिव की जटाओं की तरह अलग-अलग ग्लेशियरों से हरहराकर घाटी में गिरती और लगातार पारदर्शी और ज्यादा घुम्मकड़ होती जा रही अलकनंदा, अचानक गायब हो गई.
एन-58 पर जिस जगह बद्रीनाथ 17 किमी का मील का पत्थर लगा है, वहां नदी में सिर्फ टनों वजनी फक्क सफेद गोल-गोल चट्टानें ही नजर आईं. और आंख गड़ाकर देखने पर ही कहीं-कहीं पानी की सहमी धारा की झ्लक दिखी. दो-तीन किमी ऊपर बढ़ने पर माजरा साफ हो गया.
ऊपर जेपी के 400 मेगावाट के पनबिजली संयंत्र का जलाशय है. पांच सितारा होटलों के स्वीमिंग पूल को मात देना वाला निर्मल हरा पानी इस बांध में रुका है और टनल के जरिए आगे बढ़ जाता है, नीचे अलकनंदा की धारा सूख जाती है. हमने यह दृश्य 4 मर्ई, 2012 को देखा और अपने कैमरे में कैद कर लिया.
सूखती नदी के इस दर्द से बद्रीनाथ से हजार किलोमीटर दूर दक्षिण-पूर्व में वाराणसी में स्वामी ज्ञान स्वरूप साणंद के हृदय में एक हूक-सी उठ रही है. अविरल गंगा के लिए सिर्फ गंगा जल पर टिकी उनकी उपवासी देह को डॉक्टर नलियों के जरिए तरल खाना देकर जिलाए हुए हैं.
अपनी मांग के सवाल पर आइआइटी के प्रो. जी.डी. अग्रवाल से स्वामी साणंद ने कहा, ''गंगा की अविरल धारा. किसी एक नहीं, मैं गंगा पर बन रही सारी परियोजनाएं बंद कराना चाहता हूं.'' उनके सहयोगी स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद भी साथ में अनशन पर बैठे हैं. अविमुक्तेश्वरानंद कहते हैं, ''जब गंगा हिमालय में ही नहीं बहेगी तो वह गंगा रहेगी ही कैसे.''
सरकार भी अविरल गंगा की मांग का सियासी महत्व समझ रही है. इसीलिए 14 अप्रैल को गंगा बेसिन अथॉर्टी की बैठक में न सिर्फ साणंद को आमंत्रित किया गया बल्कि उससे पहले 6 अप्रैल को मौखिक आदेश के जरिए कई परियोजनाओं का काम स्थगित करा दिया. बैठक खत्म होने के बाद 17 अप्रैल से इन परियोजनाओं पर फिर से काम शुरू हुआ. इस फौरी कार्रवाई के अलावा संसद के बजट सत्र में गंगा को लेकर विशेष चर्चा भी कराई गई. इस चर्चा में भी सांसदों ने गंगा को बचाने के लिए बढ़-चढ़कर दावे किए लेकिन नतीजा यहां भी ढाक के तीन पात ही रहा.
लेकिन कोई यह बात नहीं कर रहा कि आज गंगा के जिन मैदानों में खेती होती है, कभी वह घने जंगल और वन्य जीवन के शानदार चरागाह थे. गंग नहर से जो हरित क्रांति आई, उसके लिए भी गंगा की धारा को बड़ी कीमत चुकानी पड़ी थी. संतों की मांग कितनी ही निर्मल क्यों न हो, आधुनिकता की आंधी में उसका टिकना मुश्किल है.
इंसानी जरूरतें जिस दिशा में चल पड़ी हैं, पहाड़ के लोग भी मैदानों की तर्ज पर उसी दिशा में भाग रहे हैं. अंधे विकास की विभीषिकाएं अंधभक्ति से कम खतरनाक नहीं होतीं, लेकिन लोगों को अब विकास का जबरदस्त चस्का लग गया है. पहाड़ अब मैदानी रास्ते पर है. देखें क्या होता है?